आरंभ में ही यह साफ कर लें इस लेख में विपक्ष शब्द का इस्तेमाल सिर्फ संसदीय विपक्ष के लिए नहीं किया जा रहा है। बल्कि इसमें वे तमाम राजनीतिक दल, जन संगठन, सिविल सोसायटी के संगठन और आम नागरिक शामिल हैं, जो वर्तमान सरकार (अथवा आरएसएस-बीजेपी) की विचारधारा एवं कार्यशैली के खिलाफ हैं या कम से कम उससे असहमत हैं। आज उन सबके सामने सवाल यह है कि सरकार जो एजेंडा उछाल रही है- या संसद के अगले विशेष सत्र में जो कदम उठाएगी, उसका उनके पास क्या जवाब है?
नरेंद्र मोदी के दौर में आरएसएस-बीजेपी की बड़ी ताकत यह रही है कि वे सारे विपक्ष को अपने एजेंडे पर उलझाए में रखने में सफल रहे हैं। पिछले नौ साल की कहानी यह है कि मुद्दे और विवाद उनकी तरफ से उछाले जाते हैं और सारा विपक्ष उस पर प्रतिक्रिया जताने में अपनी सारी ऊर्जा नष्ट करता रहा है। इससे विपक्ष का कुछ नहीं बना है, क्योंकि अपनी प्रचंड प्रचार (दुष्प्रचार) शक्ति के कारण अंततः अपने समर्थक वर्ग के बीच आरएसएस-बीजेपी-मोदी अपने प्रभाव को लगातार मजबूत बनाते गए हैं।
चूंकि विपक्षी अपना कोई एजेंडा नहीं रख पाए हैं, इसलिए जानबूझ कर उछाले गए विवादों से जनता के एक बड़े वर्ग में आरएसएस-बीजेपी के तर्क अधिक स्वीकृत होते चले हैं। इस कारण आरएसएस-बीजेपी का प्रभाव क्षेत्र इस दौर में और फैला है।
इस दौर में मोदी सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) जैसे भारतीय संविधान के मूल स्वरूप को बदल देने वाले कदम उठाए, लेकिन उन पर भी विपक्ष का ज्यादातर हिस्सा संसद में भाषण देने, प्रेस कांफ्रेंस करने और ट्विट करने के अलावा कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं कर सका।
सीएए के खिलाफ जो बड़ा जन आंदोलन छिड़ा, वह परंपरागत विपक्ष के दायरे से बाहर की शक्तियों ने संचालित किया। इसी तरह कृषि कानूनों के खिलाफ पहल खुद किसान संगठनों ने संभाली और वे कामयाब रहे। इन संगठनों के सिर्फ एक हिस्से को ही व्यापक (संसदीय और गैर-संसदीय अर्थ में) विपक्ष का हिस्सा कहा जा सकता है, क्योंकि उनके बीच एक हिस्सा वह भी था, जिसका बीजेपी के एजेंडे से कोई विरोध नहीं था।
बहरहाल, इन दो अपवादों को छोड़ कर बाकी समय में विपक्ष की स्थिति कुछ उस लतीफे की तरह रही है, जिसमें किसी व्यक्ति से पूछा जाता है कि तुम्हारे सामने शेर आ जाए, तो तुम क्या करोगे और उस पर उसका जवाब होता है कि ‘तब मैं क्या करुंगा जो करना होगा शेर ही करेगा।’ यह सवाल संसद के विशेष सत्र के सिलसिले में फिर विपक्ष के सामने खड़ा हुआ है। सवाल यह है कि क्या वह भी कुछ करेगा, या जो करना होगा मोदीजी ही करेंगे, जिस पर वह सिर्फ प्रतिक्रिया जताएगा?
आजादी के बाद यह पहला मौका है, जब सरकार ने संसद का सत्र बुलाया है, लेकिन यह सरकार के कर्ता-धर्ताओं के अलावा किसी को मालूम नहीं है कि यह सत्र क्यों बुलाया गया है। जिस रोज से सत्र बुलाने की बात सामने आई है, सारा देश अटकल की मुद्रा में है। इस बारे में तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। संसदीय विपक्षी दल भी इस बारे में अंधेरे में हैं। अभी तक सिर्फ इतना मालूम है कि 18 से 22 सितंबर तक होने वाले उस सत्र के दौरान प्रश्न काल या शून्य काल नहीं होंगे। सत्र के बारे में जारी संसदीय बुलेटिन में सभी पांच दिन की कार्यसूची में सरकारी कामकाज (गवर्नमेंट बिजनेस) लिखा हुआ है।
तो यह संभावना मजबूत है कि सरकार उस दौरान कोई बड़ी पहल करेगी। संभव है कि एक या एक से अधिक विधेयक लाए जाएं, जिनमें संविधान संशोधन के बिल भी हो सकते हैं। चूंकि संसदीय विपक्ष को भी यह नहीं मालूम है कि उन पांच दिनों में क्या होगा, तो इस सवाल पर चर्चा के लिए उन्होंने मंगलवार को अपनी विशेष बैठक की। पहले कांग्रेस संसदीय दल की बैठक हुई, जिसमें ये फैसले हुएः
- पार्टी सत्र के दौरान अडानी घोटाले, मणिपुर की हालत, महंगाई, बेरोजगारी और भारतीय जमीन पर चीन के कब्जे जैसे मुद्दों पर चर्चा की मांग करेगी।
- यह मांग सरकार के सामने रखने के लिए कांग्रेस संसदीय दल की नेता सोनिया गांधी प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखेंगी। बुधवार को कांग्रेस ने बताया कि सोनिया गांधी ने वह पत्र मोदी को भेज दिया है।
- मंगलवार और बुधवार को पार्टी की प्रेस ब्रीफिंग में जयराम रमेश ने कहा कि कांग्रेस “रचनात्मक सहयोग” की भावना से संसद के सत्र में जाएगी और देश के सामने मौजूद प्रमुख मुद्दों पर चर्चा की मांग करेगी।
कांग्रेस की बैठक के बाद पार्टी अध्यक्ष एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे के निवास पर इंडिया गठबंधन में शामिल दलों के लोकसभा और राज्यसभा में नेताओं की साझा बैठक हुई।
- बैठक के बाद प्रेस ब्रीफिंग में बताया गया कि इंडिया गठबंधन ने सरकार से यह बताने की मांग की है कि विशेष सत्र का एजेंडा क्या है?
यह अनुमान बिना किसी ऊहापोह के लगाया जा सकता है कि कांग्रेस की “रचनात्मक भावना” या इंडिया एलायंस की मांग को सरकार तिरस्कार भावना के साथ ठुकरा देगी। आखिर कांग्रेस ने बिना मांगे ऐसे सहयोग की पेशकश की है।
अधिक संभव यह है कि सत्र के एजेंडे को लेकर भ्रम 17 सितंबर तक ठीक उसी तरह बना रहे, जैसे चार अगस्त 2019 की रात तो आम जन को मालूम नहीं था कि अगले दिन संसद में क्या होने वाला है। खुद जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने मीडिया इंटरव्यू में बताया है कि चार अगस्त की शाम तक उन्हें नहीं मालूम था कि अगले दिन केंद्र सरकार अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने जा रही है और साथ ही जम्मू-कश्मीर को दो भागों (जम्मू-कश्मीर और लद्दाख) में विभाजित कर दोनों भागों को केंद्र शासित प्रदेश बना देने का उसका इरादा है।
बहुत संभव है कि चार साल पहले की कहानी फिर दोहराई जाए। इसीलिए यह सवाल उठा है कि सरकार जो भी करने वाली है, उसके प्रति विपक्ष का जवाब क्या होगा? मान लीजिए, सरकार कोई ऐसी विधायी पहल करती है, जिसे विपक्ष संविधान के बुनियादी ढांचे या संवैधानिक भावना के विरुद्ध मानता है, तो क्या इस बार उसकी प्रतिक्रिया उसके पुराने ट्रैक रिकॉर्ड से अलग होगी? अगर यह पुराने ट्रैक रिकॉर्ड के अनुरूप रही, तो फिर हम यह नजारा देखेंगेः
- विपक्षी नेता संसद में उस पहल के खिलाफ तेज स्वर में आक्रोश भरा भाषण देंगे।
- वे हंगामा करेंगे, जिस दौरान कुछ सांसदों का निलंबन हो सकता है।
- संसद से बाहर आकर वे प्रेस को संबोधित कर उस पहल पर विरोध जताएंगे।
- विपक्षी पार्टियां ट्विटर (अब एक्स) थ्रेड के जरिए सरकारी कदम को बेनकाब करने में अपनी ताकत लगाएंगी।
- गैर संसदीय विपक्ष भी सोशल मीडिया पर गुस्सा जताएगा।
- उसका एक हिस्सा उस कदम का मखौल उड़ाएगा।
- सरकार विरोधी यू-ट्यूबर उस कदम के खिलाफ व्यंग्य भरे लहजे में प्रोग्राम बनाएंगे, जिसे देख कर नाराज लोगों का एक बड़ा वर्ग संतुष्ट हो जाएगा कि जो सरकार ने किया, उसका आखिर मीडिया कर्मियों के एक हिस्से ने भी विरोध किया है।
- स्टैंड-अप कॉमेडियन्स को कुछ दिन के लिए विषय मिल जाएगा, जिससे अपने-अपने कम्फर्ट जोन में बैठे सरकार विरोधी समूह अपना मनोरंजन करेंगे।
- इसके बाद नरेंद्र मोदी या आरएसएस-बीजेपी जो अगला मुद्दा (अथवा विवाद) उछालेंगे, सभी लोग उसका पुराने ट्रैक रिकॉर्ड के मुताबिक जवाब ढूंढने में जुट जाएंगे।
हकीकत यह है कि सत्ता पक्ष को इस ट्रैक रिकॉर्ड के अनुरूप जताई गई प्रतिक्रिया के सिरे से निष्प्रभावी रहने का पूरा अंदाजा है, इसीलिए वह अपने सीमित (राष्ट्रीय स्तर पर यह भी सीमित ही है) राजनीतिक समर्थन के बावजूद इस देश की बहुसंख्यक जनता की मूलभूत मान्यताओं के खिलाफ जाते हुए संवैधानिक ढांचे में दूरगामी परिवर्तन करने का दुस्साहस दिखाती रही है। आशंका है कि एक बार फिर वह ऐसा ही करने जा रही है।
जब से संसद का विशेष सत्र बुलाने की बात आई है, आखिर विपक्ष के सभी हिस्सों की क्या प्रतिक्रिया रही है? जिस रोज ये खबर आई, इंडिया गठबंधन के नेता मुंबई में अपनी बैठक लिए जुटे हुए थे। लेकिन तब से आज तक वे कयास लगाने के अलावा कोई संकल्पबद्ध प्रतिक्रिया दिखाने में नाकाम रहे हैं। यही हाल उनसे इतर व्यापक विपक्ष का भी है।
अब कल्पना कीजिए। मंगलवार को जब मल्लिकार्जुन खड़गे के घर पर इंडिया एलायंस नेता जुटे थे, तो वे सरकार से एजेंडा बताने की मांग करने के साथ-साथ इस सारी परिस्थिति के बीच पहल अपने हाथ में लेने का इरादा भी दिखाते। वे यह प्रस्ताव भी पारित कर सकते थे कि अगर सरकार ने संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित उसूलों के खिलाफ कोई विधायी पहल की या उसने सर्व-स्वीकृत संवैधानिक ढांचे से छेड़छाड़ की कोशिश, तो इंडिया उसे स्वीकार नहीं करेगा। वह लोगों से भी वे सविनय अवज्ञा (civil disobedience) की अपील करेगा।
प्रस्ताव में यह भी कहा जा सकता था कि इन दलों के नेता और कार्यकर्ता उस हाल में जनता के बीच जाएंगे और तब तक वहीं शांतिपूर्ण जन गोलबंदी करते रहेंगे, जब तक संविधान और संवैधानिक भावना को पुनर्प्राप्त (reclaim) नहीं कर लिया जाता है।
उधर ऐसा ही संकल्प गैर-संसदीय विपक्ष (किसान- मजदूर संगठन, ट्रेड यूनियनें, छात्र संगठन, अलग-अलग अस्मिताओं की नुमाइंदगी करने का दावा करने वाले संगठन, एनजीओ कार्यकर्ता, आदि) भी दिखाता- बल्कि ये संगठन यह एलान भी करते कि संविधान और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए वे संसदीय विपक्ष पर निर्भर नहीं हैं- बल्कि ये पहल वे अपने हाथ में ले रहे हैं।
जाहिर है, तब सारा सियासी नजारा बदला हुआ नजर आता। लेकिन फिलहाल यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि विपक्ष चाहे संसदीय हो या गैर संसदीय- उनकी राजनीति की समझ चुनाव और चुनावी समीकरणों में सिमट कर रह गई है। इसलिए उन्होंने अपनी सारी गतिविधियों को उसी दायरे में समेट लिया है। यह उनका कम्फर्ट जोन है, जिससे निकलकर राजनीति करना फिलहाल तो उसकी सोच के दायरे से भी बाहर है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी यह कहते हुए भारत जोड़ों यात्रा पर निकले थे कि वर्तमान परिस्थितियों में सामान्य ढंग से विपक्ष की भूमिका निभाना संभव नहीं रह गया है, क्योंकि धन, प्रचार बल, संस्थाओं का रुख- सब एक तरफ झुक गए हैं। इस कारण पक्ष और विपक्ष के बीच वैचारिक एवं चुनावी मुकाबले के लिए समान धरातल नहीं बचा है। नतीजतन, जनता के बीच जाना ही एकमात्र रास्ता है। उनकी इस समझ से बाकी किसी दल का प्रभावित नहीं होना तो अपेक्षित ही था, लेकिन उनकी अपनी पार्टी पर भी इसका कोई असर हुआ, इसके संकेत नहीं हैं।
ना ही विपक्ष में देश के सामने कोई ऐसा सकारात्मक एजेंडा रखने की उत्कंठा या जद्दोजहद नजर आती है, जिससे वे एक नए भारत के निर्माण का ऐसा सपना सामने रखते, जिससे सकारात्मक जन गोलबंदी का आधार बनता। कोई सकारात्मक एजेंडा ना होने का ही यह संकेत है कि मुंबई बैठक में इंडिया गठबंधन ने आपसी समन्वय, चुनाव अभियान, मीडिया प्रबंधन और सीटों के तालमेल के लिए तो कमेटी बनाई, लेकिन वैकल्पिक नीति और कार्यक्रम उसकी प्राथमिकता में पिछड़ा रहा।
सवाल है कि अगर विपक्ष के पास देश का एजेंडा सेट करने की बौद्धिक क्षमता या वैचारिक-राजनीतिक प्रतिबद्धता नहीं है, तो वह एक खास एजेंडे के साथ आगे बढ़ रहे आरएसएस-बीजेपी का मुकाबला कैसे करेगा?
चूंकि पहल अपने हाथ में लेने की कोई जद्दोजहद नहीं है और जन-गोलबंदी शब्द राजनीति से गायब हो गया है, इसलिए सत्ता पक्ष विपक्ष और अपने विरोधियों के प्रति निर्भय होकर वह तिरस्कार भाव दिखाता है, जैसा एक बार फिर वह संसद के विशेष सत्र के संदर्भ में संसदीय विपक्ष की मांग के प्रति दिखाने जा रहा है। यह बात बेहिचक कही जा सकती है कि अब भी अगर विपक्ष सिर्फ प्रतिक्रिया जताने में उलझा रहा, तो यही समझा जाएगा कि उसने पिछले नौ साल के अनुभव से कोई सबक नहीं सीखा है। यह देश की जनता और देश के भविष्य के प्रति कर्त्तव्य निर्वाह से उसका मुंह मोड़ना होगा।
अगर 22 सितंबर तक विपक्ष इसी मुद्रा में रहा, फिर यह कहने की मजबूरी बनेगी कि जब तक नई राजनीतिक शक्तियों का उदय नहीं होता है, भारत को आर्थिक बदहाली, सांप्रदायिक तनाव, उग्र होते राजनीतिक ध्रुवीकरण और आपसी विभाजन पैदा करने वाले एजेंडे से मुक्ति नहीं मिलने वाली है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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