2009 में जब आधार की शुरुवात हो रही थी नंदन नीलकेणी को UIDAI का चेयरमैन बनाया गया था जो कि कैबिनेट मिनिस्टर के बराबर की पोस्ट थी तब से ही लोग जानते थे आधार जो दिख रहा है उससे कहीं आगे की चीज है। कुछ बेहद बुरा प्लान हो रहा है। आधार के सरकार के द्वारा ग़लत उपयोग करने की आशंकाएँ सबको थी। सरकार द्वारा दी गयी सफाइयां और दलीलें निहायत ही बकवास और झूठी दिख रही थी।
जहाँ तक कम्युनिटी का सवाल है तो गरीब से गरीब शून्य राजनीतिक समझ वाले मुसलमान को भी महसूस हो रहा था कि ये आधार के लिये जो भी हो रहा है उसका उद्देश्य कुछ भी हो उनके लिये ये अंत पन्त में बुरा ही साबित होगा।
मुझे याद आ रहा है पड़ोस में रहने वाले एक गरीब मुस्लिम ने कहा था – करवा कांग्रेस रही है फायदा बीजेपी को होगा अल्लाह खैर करे।
वो शुरुआती दिन थे । उसी वक्त ये भी सुना था – भाई मसला कुछ भी हो ठीकरा तो मुसलमान के सिर ही फूटना है। इससे मुझे सईद मिर्जा की फ़िल्म ‘ नसीम’ का एक चरित्र याद आ गया। बाबरी मस्जिद के बाद उपजे तनाव में बॉम्बे में नसीम के ट्रेड यूनियनिस्ट पिता सज्जाद को नौकरी से निकाल दिया जाता है जब नसीम के दादा सज्जाद से नौकरी खोने का कारण पूछता है तो सज्जाद का जवाब होता है
“बहाने तो हजारों है वजह तो एक ही है”
पिछले साल जब असम से खबरें आ रही थी कि चार मिलियन लोग वहां नेशनल सिटीजन रजिस्टर में जगह पाने में नाकाम रहे हैं तो मेरा एक रैडकल वामपंथ ख्यालों का सेक्युलर दोस्त मुझे ये समझाने की कोशिश कर रहा था कि असम में एन आर सी सही है बल्कि ये तो इंसानियत से भी आगे की चीज है। और इससे डरने की जरूरत नही है इसमें किसी भी गरीब का कोई अधिकार नहीं छीनेगा । कोई डिटेंशन सेंटर में नही जाने वाला है । सबकी अच्छे से सुनवाई होगी और फाइनल लिस्ट में तो बस दो ढाई लाख लोग ही बचने है। जब मैंने पूछा कि गरीब इंसान कैसे अपनी नागरिकता साबित करेगा तो उसने कहा
– कोई कागज तो होगा न ? गरीब से गरीब के पास भी कोई कागज तो रहता है ऐसा तो नही हो सकता कि कोई कागज न हो ।
कोई कागज तो होगा।
(लेखक असज जैदी जाने माने साहित्यकार हैं। अंग्रेजी में लिखी गयी मूल टिप्पणी का अनुवाद अमोर सरोज ने किया है।)
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