Saturday, April 27, 2024

आज का दौर न राजा-रानियों का है न फासिस्टों का, यह बोलने के साहस का दौर है

फैज अहमद फैज पर उनके देश में देशद्रोह का मुकदमा चल रहा था। जेल शहर से बाहर था। उनकी कोर्ट में पेशी थी। कोर्ट शहर में था। उन्हें कोर्ट में पेशी के लिए लाने वाली गाड़ी खराब हो गई। उस गाड़ी को बनाने में समय लगता। लिहाजा, ऐसे में उन्हें एक तांगे में बिठाया गया। उन्हें तांगे के साथ हथकड़ी से बांध दिया गया। खुले तांगे में उन्हें शहर की सड़क और बाजार से खुलेआम हथकड़ी में बांधे हुए कोर्ट तक लाया गया। और, फिर उनकी पेशी हुई। उस समय तक फैज अहमद फैज महानतम लेखकों में शुमार हो चुके थे। यह एक नायाब दृश्य था, जो शहर पर किस तरह गुजरा, कहना मुश्किल है लेकिन फैज के दिलों से यह जरूर गुजरा। उनकी यह अमर रचना इस संदर्भ में जरूर पढ़ा जाना चाहिएः

चश्म-ए-नम जान-ए-शोरिदा काफी नहीं

तोहमत-ए-इश्क-ए-पोशिदा काफी नहीं

आज बाजार में पा-ब-जौलॉ चलो

खाक-बर-सर चलो खूॅ-ब-दामॉ चलो।

इस वाकए को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि देशद्रोह और आतंकवाद एक ऐसी शब्दावली है, जिसके अर्थ को समझना आसान नहीं है। हां, इतना साफ है कि इन शब्दावलियों का प्रयोग कभी भी जनता के हितों में नहीं किया गया।

अक्सर बच्चों की कहानियों की किताबों में राजा और रानी की कथा जरूर होती है। राजा दुश्मन देश के बहाने या खुद के खिलाफ किसी की जुर्रत करने वाले के खिलाफ आदेश देता है- इसे राज्य से बाहर निकाल दो, या कि इसे फांसी चढ़ो दो, आदि। अक्सर ऐसी कहानियों के अंत में राजा को गलती का अहसास होता है और पश्चाताप करता हुआ दिखता है। ये कहानियां राजा के निर्णय की क्षमता पर सवाल जरूर उठाती हैं लेकिन निर्णय की ताकत पर कभी नहीं बोलती हैं।

आखिर इन कहानियों को पढ़ाया क्यों जाता है? क्या ये राज्य की ताकत को बच्चों के दिलो-दिमाग में बिठाने के लिए पढ़ाई जाती हैं, या इसकी कुछ और भी मंशा होती है! यहां मंशा की जगह योजना कहना ज्यादा मुनासिब होगा।

फैज की तरह ही एक और कवि थे, मख्दूम। उनके गीत बारिश की बूंदों से भी नर्म और ठंडी लिए हुए आपके जेहन में उतरते जाते हैं। तेलंगाना किसान आंदोलन उतार पर था। मख्दूम को सड़क पर घसीटते हुए जेल की कोठरी तक ले जाया गया। उन पर भी देशद्रोह का आरोप था।

मख्दमू, फैज या बच्चों की कहानियों में राजा से पीड़ित वे लोग जिन्हें देश निकाला दे दिया गया, उनके जुर्म में जो देशद्रोह है, वे दरअसल हैं क्या? जाहिर है, इसे जानने के लिए इनके अपने-अपने राज्यों के कानून को देखना होगा। इस मामले में भारत की स्थिति काफी अलग दिखती है। इस मसले पर जिस तरह वर्तमान सरकार सोच रही है, ठीक वैसा ही यहां का न्यायालय नहीं सोच रहा है। जिस तरह से वर्तमान की सरकार चलाने वाली भाजपा सोच रही है, वैसा विपक्ष की पार्टियां नहीं सोच रही हैं। इसमें बदलाव की मांग की जा रही है। बहस की मांग की जा रही है। लेकिन, इन सबका कोई असर नहीं दिख रहा है। बल्कि इसके उलट प्रक्रिया दिख रही है। आज जितना खुलकर आतंकवाद, देशद्रोह जैसे मसले पर कार्रवाइयां चल रही हैं, सैकड़ों की संख्या में छापे, रेड आदि हो रहे हैं उससे तो इसका दायरा नदी के बाढ़ की तरह उन घरों तक पहुंच रहा है, जिन्हें अक्सर सुरक्षित क्षेत्र माना जाता रहा है।

2000 के बाद के दौर में ‘टाडा’ में उल्लेखित आतंकवाद शब्द नया रुख लेकर सामने आया। पंजाब और उत्तर-पूर्व और कश्मीर से यह शब्द जब केंद्रीय भारत की ओर रुख किया, तब इसका प्रयोग मुख्यतः रेडिकल कम्युनिस्ट आंदोलन के संदर्भ में किया जाने लगा और इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा। 2002-2004 के बीच गुजरात में मुख्यतः मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हुई हिंसा और जनसंहार को ‘राज्य प्रायोजित हिंसा’ की तरह लिखा गया। जबकि उस समय भी साफ था कि इस हिंसा में कई सारे संगठनों और पार्टियों ने हिस्सा लिया था। इन पर न तो उस समय बात हुई और न ही उन पर रोक लगाने के लिए कोई कदम उठाया गया। इसका फायदा उन्हें मिला और उन्होंने संगठन विस्तार के लिए काम किया और देश में भर में फैल गये। लेकिन, ये आतंकवाद की श्रेणी से बाहर बने रहे।

2004 के बाद उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी केंद्रीय भारत में उभर रहे रेडिकल कम्युनिस्ट आंदोलन को ही ‘देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ बताया। इस संदर्भ में हिंसा कोई निरपेक्ष शब्द नहीं था, यह एक सापेक्षिक अर्थ लिए हुए था। इसका प्रयोग मुख्यतः कम्युनिस्टों और जनआंदोलनकर्मियों के लिए ही सुरक्षित कर दिया गया था।

2007-08 के बाद देश का विशाल सैनिक-अर्धसैनिक बल केंद्रीय भारत के राज्यों में रेडिकल कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ खूनी जंग में उतर चुके थे। उस समय आतंकवाद विरोधी जो कानून बनाये और संशोधित कर फिर से और मजबूत किये जा रहे थे, उसकी गिरफ्त में वे लोग भी आने शुरू हो गये जिनका हिंसा से कोई लेना देना नहीं था। इस स्थिति के और पुख्ता होने पर हम एक और कवि वरवर राव को घसीटकर जेल की सलाखों के पीछे डाल देने के दृश्य में देखते हैं।

इस कहानी में, आतंकवाद और देशद्रोह की श्रेणी में वे लोग कभी नहीं आये, जिन्हें इन्हीं कानूनों के तहत, यदि वह निरपेक्ष था तब, आ जाना चाहिए था। जाहिर है, कानून निरपेक्ष नहीं होता। वह एक सापेक्ष अवस्थिति में रहता है। ‘राज्य प्रायोजित हिंसा’ का 2002-2004 के आख्यान में जो इन दो श्रेणियों से बाहर रहे वे सिर्फ इसलिए बाहर नहीं रहे कि ऐसा कांग्रेस चाहती थी, कॉरपोरेट समूह चाहता था; दरअसल भारत का मध्यवर्ग, मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग भी चाहता था।

‘हिंसा’ पर आधारित दो तरह के नैरेटिव में एक सीधे राज्य हासिल करने की ओर बढ़ रहा था और दूसरा गांवों में जनवाद आधारित समाज के निर्माण का सपना देखते हुए अपनी संगठन क्षमता और गोलबंदी को आजमा रहा था। ऐसे में हिंसा की पूरी संरचना के साथ राज्य के जो सबसे करीब खड़ा था, और जो छुपा हुआ नहीं था, उसे सत्ता तक पहुंचने के लिए रास्ता दिया गया। तब टाडा, पाटा, पोटा, यूएपीए जैसे कानूनों का अर्थ सिर्फ उनके लिए सुरक्षित किया गया, जिसे कॉरपोरेट, मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, पत्रकार और निश्चित ही राजनीतिक पार्टियां पसंद नहीं करती थीं।

दरअसल देशभक्ति और देशद्रोह, आतंकवाद और हिंसा जैसी शब्दावलियां, कानून का अंग बनकर सत्तासीनों के लिए सिर्फ अभेद्य कवच ही नहीं बनती हैं, ये अमीबा की तरह बहुत तेजी से बढ़ते हुए एक ऐसे जहर का निर्माण करती हैं, जिसे समय रहते ठीक नहीं किया जाय तो जिस राज्य की सुरक्षा करती हैं उसे भी खा जाने की तरफ बढ़ जाती हैं। यह आज हमें दिख रहा है। आज राजनीतिक पार्टियां, कॉरपोरेट का एक हिस्सा, मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी और खुद पत्रकारों का एक समूह, किसी और राज्य का नहीं, इस राज्य को बचा लेने के लिए बेचैन हो उठा है।

निश्चित ही यह एक अभूतपूर्व स्थिति है। एक बेचैनी है कि किस किस के लिए बोला, लड़ा जाय। एक डर सीने में उतरता हुआ लगता है। आज शायद ही कोई कार्यकर्ता बचा हो, जिनके दरवाजों पर डरा देने वाली दस्तक न दी गई हो। कहते हैं कि डर एक आदिम भाव है। और, साहस हासिल किया हुआ विवेक। मुझे कवियों का साहस ज्यादा रूमानी, सर्जनात्मक और आगे ले जाने वाला लगता है। मुझे फैज, मख्दूम और वरवर राव की जिंदगी और कविताएं हौसला देती हैं। आज का दौर न तो राजा रानियों का दौर है, न फासिस्टों का। यह बोलने के साहस का दौर है।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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