‘एक देश बारह दुनिया’ पुस्तक अनूठे भाषा-प्रवाह और दृश्य-बिम्बों के कारण अपने पहले पन्ने से ही पाठकों को बांधकर आगे बढ़ती हुई नजर आती है। फिर भी पुस्तक की भाषा और भावपूर्ण प्रस्तुति इसकी दूसरा विशेषता कही जाएगी। इसकी मुख्य विशेषता है बतौर पत्रकार लेखक का पूरी बेबाकी के साथ भारत के अलग-अलग राज्यों की अनसुनी और अनदेखी जगहों के असली पात्रों से जुड़े मुद्दों का विवरण रखना, जिन्हें पढ़ते हुए हमारा दिमाग यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि अपने देश में कितने हिंदुस्तान हैं!
पिछले दिनों ‘राजपाल एंड सन्स, नई-दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक को लिखने वाले शिरीष खरे मूलत: ग्रामीण पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं, जिन्होंने अपनी पुस्तक में साहित्य की विधा और पत्रकारिता के मानकों का संतुलन साधते हुए मानवीय मूल्यों तथा जिम्मेदारियों को अच्छी तरह से निभाने का प्रयास किया है। एक दुनिया के भीतर भी कई तरह की कहानियों के जरिए पुस्तक में उन तमाम सामयिक विषयों को विस्तार से उठाने की कोशिश की गई है, जो आजादी के सात दशकों के बाद भी विमर्शों की परिधि से अक्सर छूटते रहे हैं।
मुख्यधारा की मीडिया में कभी-कभार राजनैतिक, साहित्यिक और सूचनाओं की औपचारिकताओं को निभाते हुए यदि इन मुद्दों का जिक्र होता भी है, तो कई प्रश्न विमर्श के केंद्र में आते-आते रह जाते हैं।
सामान्य रिपोर्ताज से अलग इस पुस्तक में शामिल हर एक रिपोर्ताज इस मायने में अलग है कि यहां पहाड़ों, झीलों और नदियों के सौन्दर्य का वर्णन करीब-करीब न के बराबर किया गया है। इनकी जगह लेखक ने अपनी पुस्तक के लिए ऐसी कहानियां ढूंढ निकाली हैं जो विकास के दावों, समता की हवाई बातों, प्रशासन की उदासीनता और सत्ता के कॉर्पोरेट गठजोड़ पर सीधे प्रहार करती हैं।
जैसे महाराष्ट्र के मेलाघाट में कुपोषण से मरते बच्चों के आंकड़ों तक को स्वीकार करने के लिए प्रशासन तैयार क्यों नहीं है? यहां कोरकू जनजाति के लोग अब तक स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाओं से वंचित क्यों हैं? स्टोरी के अंत में यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि बाघों को बसाने के लिए जंगलों से खदेड़े गए हजारों आदिवासी परिवारों का क्या हुआ? लिहाजा एक जगह लेखक लिखते हैं, “जंगलों में बाघों का होना पर्यावरण के लिए शुभ माना जा रहा है, लेकिन क्या इसी तरह जंगलों में आदिवासियों का होना भी अच्छे पर्यावरण का प्रतीक नहीं समझा जा सकता?” वह कहते हैं कि देश जंगल के भीतर बनाम जंगल के बाहर की दुनिया में विभाजित है, जंगल के भीतर की दुनिया में भले ही टाइगर रिजर्व सुरक्षित हो रहा हो, लेकिन मेलघाट के लोगों के लिए रोटियों का संकट गहराता जा रहा है।”
वहीं, लेखक का तिथिवार घटनाओं का विवरण एक पाठक को कहीं रोचक तो कहीं विडंबनापूर्ण स्थितियों में लाकर छोड़ देता है। इसी के साथ लोगों की आपबीतियां पाठक के मन में कहीं भीतर तक एक विश्वास भी पैदा करती हैं और उनके प्रति एक लगाव भी महसूस कराती हैं।
पुस्तक में जहां संकट पहले से ज्यादा गहराने लगते हैं, वहां लेखक सिस्टम से कुछ प्रश्न पूछता है। जैसे कि लेखक प्रश्न पूछता है कि क्या मुंबई में कमाठीपुरा की बदनाम कही जाने वाली गलियों और वहां की कोठरीनुमा कमरों में नारकीय जीवन बिता रहीं हजारों सेक्सवर्कर महिलाओं के लिए एक ठोस योजना हो सकती है, जो उनकी अगली पीढ़ी को नया रास्ता दिखा सके।
या फिर मुंबई से सैकड़ों किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के ही आष्टी गांव में पहचान के संकट और उच्च जातियों की दबंगई से जूझ रहे सैय्यद मदारी बंजारों के बच्चों के भविष्य के लिए क्या कोई विशेष संरक्षण व्यवस्था तैयार की जा सकती है? या इसी तरह, मनोरंजन के आधुनिक माध्यमों के दौर में भी परंपरागत तौर पर मनोरंजन करने वाली जमातों द्वारा सड़कों पर दिखाए जाने वाले हेरतअंगेज खेलों के बाहर नई पीढ़ी के लिए क्या अलग से परिवर्तन के खेल हैं? हालांकि, इस पुस्तक में ज्यादातर प्रश्न सीधे हैं, मगर जब लेखक खुद इन प्रश्नों की तह में जाने की कोशिश करता है तो उनके उत्तर हासिल करने उतने ही मुश्किल लगने लगते हैं।

यहां अपने देश के ऐसे ही परदेसियों से जुड़ी कहानियां हैं, जिनमें कई जातियां आम लोगों के सामने मनोरंजन के खेल दिखाकर अपना पेट पालती रही हैं, लेकिन बदली हुई परिस्थितियों में आज वे अपने पेट पलने के संकट से जूझ रही हैं।
इसके बाद लेखक हमें एक और दुनिया में ले जाता है, जहां शुरुआत में गुड़ और चीनी से बनी वस्तुएं जितनी मीठी लग रही होती हैं, अंत तक पहुंचते-पहुंचते गन्ने काटने और उन्हें चीनी मिलों तक पहुंचाने में लगे मजदूरों के असल किस्से जिंदगी में उतनी ही कड़वाहट घोल देती है।
यहां से हमें एक और हिन्दुस्तान नजर आता है, जहां पीढ़ी-दर-पीढ़ी कितनी ही जिंदगियां खेतों में खट जाती हैं और कभी खबर तक नहीं बनतीं, कर्ज में डूबे मजदूर गन्ने की कटाई के लिए अपने घरों से महीनों दूर रहकर दिन रात खेतों में तमाम मुसीबतें झेलते हुए जीते और एक दिन काम करते हुए खेत में ही दम तोड़ देते हैं, महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों की तो खैर गिनती ही नहीं होती है!
यदि इस पुस्तक में दर्द है, अवसाद है, प्रश्न हैं, निराशा है तो संघर्ष की कहानियां भी हैं। इनमें एक तरफ महादेव बस्ती का पारधी समुदाय अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर सामान्य आदमी बनाने से जुड़े सपने देख रहा है, वहीं दूसरी तरफ घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जातियां अपने लिए स्थायी ठिकानों की तलाश भी करती नजर आती हैं।
इसके बाद लेखक एक अलग दुनिया में प्रवेश कराता है, जो बाकी दुनियाओं से भिन्न होने पर भी कहीं-न-कहीं उनसे कनेक्ट भी दिखती है, जहां आधुनिक शहरों को बसाने की कीमत अक्सर गरीबों को चुकानी ही पड़ती है। शहर की चमक-दमक के पीछे कितने अफसाने उजाड़े गए हैं, यह एक अलग कहानी है और पुनर्वास की योजनाएं कितनों को लाभ दे पाई हैं, यह एक अलग कहानी है।
कितनी गजब बात है कि शहर के अमीरों को काम करने के लिए सस्ते मजदूर तो चाहिए, लेकिन उनके आशियाने शहर से बाहर चाहिए। शहरों में भी लोगों के बीच की असमानता की गहराती यह खाई कितने गरीबों को लील जाएगी तो इसका अनुमान लगाना भी मुमकिन नहीं लगता है। लेखक की सूरत शहर की यात्रा ऐसी अनेकों कहानियों का दस्तावेज है।
राजस्थान के थार क्षेत्र में बायतु नामक कस्बे के आसपास से जुड़े एक रिपोर्ताज में एक ओर अनाचार पीड़ितों से जुड़ी साहस की कहानियां हैं, वहीं दूसरी ओर ऐसी पीड़ित महिलाओं के सामाजिक दमन से जुड़ी सच्चाइयों को भी बयां किया गया है। इसी तरह, छत्तीसगढ़ में सूखा पीड़ितों को मिलने वाले मुआवजों में हेर-फेर की दास्तान है, तो एक अगली कहानी में धरोहरों को न बचा पाने का दर्द भी सहेजा गया है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में घूमते हुए लेखक नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच पिस रहे जनमानस के प्रश्नों से जूझते हुए कहते हैं: “यह समझना कठिन है कि पूरे गांव पर लाल आतंक का साया है, या सुरक्षाबलों की दहशत का असर। नक्सली इन्हें अपने पक्ष में करना चाहते हैं और सुरक्षाबल अपने। इन दोनों के बीच द्वंद के मुहाने पर आम बस्तरिया के अपने पक्ष में होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।”
इसी से जुड़े प्रश्न हैं कि अकूत संसाधनों के बावजूद बस्तर या उसी की तरह अन्य अदृश्य संकटग्रस्त आदिवासी इलाकों में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं का अकाल क्यों है? ऐसी जगहों से अधिकतम बिजली पैदा करने के बावजूद वहीं अंधेरा क्यों है? आखिर वनवासियों को उनके जल-जंगल से बेदखल करके और कॉर्पोरेट को संसाधनों की लूट का मौका देकर हम विकास की कौन-सी परिभाषा गढ़ना चाहते हैं?
कुल मिलाकर, इस पुस्तक में दर्ज असली कहानियां अपने शीर्षक ‘एक देश बारह दुनिया’ की सार्थकता को सिद्ध करती हुई मात्र बारह रिपोर्ताज भर नहीं हैं, बल्कि हाशिये के बाहर धकेली गई वंचित और पीड़ित आबादी के पक्ष में एक संवेदनशील नागरिक द्वारा लिखा गया जीवंत भारतीय दस्तावेज है, जिसे अच्छी तरह समझने के लिए प्राथमिक संदर्भों के तौर पर भी बार-बार पढ़ा जा सकता है।”
पुस्तक: एक देश बारह दुनिया
लेखक: शिरीष खरे
प्रकाशक: राजपाल एंड सन्स, नई-दिल्ली
पृष्ठ: 208
मूल्य: 295 रुपए
विधा: रिपोर्ताज
यह पुस्तक अमेजॉन पर भी उपलब्ध है:
(अशोक कुमार दिल्ली सरकार के एक स्कूल में शिक्षक हैं।)
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