समान नागरिक संहिता और हिंदुत्व की राजनीति

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2024 के लोकसभा चुनाव में अब मुश्किल से दस महीने शेष हैं और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को हर हालत में वह चुनाव जीतना है। ‘सब का साथ, सब का विकास और सब का विश्वास’ की चाहे जितनी बातें करें, सच्चाई यह है कि नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के पिछले नौ साल का रिकार्ड यह बताने के लिए पर्याप्त है कि न तो वे सबको साथ लेकर चल सकते हैं, न सबका विश्वास जीतकर शासन करना जानते हैं और न ही विकास की कोई ऐसी समझ उनके पास है जिससे जनता के हर हिस्से और हर तबके को फायदा पहुंचे। सिर्फ़ एक चीज में उनकी मास्टरी है और वह है सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करना। क्योंकि इससे ही हिंदुओं को अपने पीछे एकजुट कर सकते हैं।

आरएसएस की जिस पाठशाला में वे प्रशिक्षित हुए हैं उसमें केवल यही कौशल सिखाया गया है कि मुसलमानों के बारे में ऐसी बातें फैलाना जिसके आधार पर हिंदुओं के मन में उनके प्रति गहरी नफ़रत पैदा हो और वह नफ़रत इस हद तक बढ़े कि जीवन के हर क्षेत्र से मुसलमानों को धकेलकर हाशिए पर जीने के मजबूर कर दिया जाये। उन्हें उन अपराधों के लिए सजा देना जो उन्होंने किये ही नहीं और उन्हें इस हद तक लाचार कर देना कि वे न बराबरी की और न ही मानवाधिकारों की मांग कर सकें। दरअसल इस मामले में आरएसएस का आदर्श नाजीवाद रहा है और इसी नाज़ीवाद का संघी संस्करण ‘हिंदुत्व’ है।

सांप्रदायिक राजनीति ‘हिंदुत्व’ का अधूरा सच है। सच यह भी है कि वे सभी हिंदुओं में भी बराबरी के समर्थक नहीं हैं। आरएसएस की स्थापना मुसलमानों के प्रति नफ़रत से प्रेरित होकर ही नहीं की गयी थी बल्कि आरएसएस उन समाज सुधार आंदोलनों का भी विरोधी था जो दलितों और स्त्रियों की समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय का पक्षधर था। ये सुधार आंदोलन ब्राह्मण वर्चस्व को चुनौती दे रहे थे और दलितों के लिए बराबरी की मांग कर रहे थे। ये स्त्रियों की स्वतंत्रता और समानता के लिए संघर्ष कर रहे थे।

यह महज संयोग नहीं है कि 1925 में जब आरएसएस की स्थापना हुई तब कांग्रेस के राजनीतिक मंच से बाल गंगाधर तिलक जैसे दक्षिणपंथी और ब्राह्मणवादी नेताओं की कोशिशों के बावजूद समाज सुधार की आवाजें भी तीव्र होने लगी थीं। ऐसे समय उन उच्चवर्णीय जातियों को अपना वर्चस्व खतरे में पड़ता नज़र आया जिस वर्चस्व के बल पर वे हजारों सालों से हिंदू सामाजिक संरचना को अपने नियंत्रण में रखे हुए थे और अपने घर में ही स्त्रियों को और घर के बाहर दलितों को हर तरह के मानवाधिकारों से वंचित कर जीने और मरने के लिए मजबूर कर रखा था।

जिस दलित का स्पर्श भी उन्हें अपवित्र कर देता था और जिसके लिए उसके प्राण तक लिये जा सकते थे, उसी दलित के सामने गाय की पूजा की जाती थी। उसे देवतुल्य माना जाता था। दरअसल सवर्ण हिंदुओं की पारिवारिक और सामाजिक संरचना न केवल असमानता पर आधारित थी, वह उत्पीड़न और क्रूरता पर भी आधारित थी। जहां मृत पति के साथ स्त्री का ज़िंदा जलना गौरव की बात समझी जाती थी। कई-कई शताब्दियों से चली आ रही इस प्रतिगामी, बर्बर और मानवविरोधी संरचना को उन्होंने ईश्वर प्रदत्त बताकर हर वर्ण और हर समूह पर लाद रखा था। उन्नीसवीं सदी के समाज सुधार आंदोलन इसी संरचना को चुनौती दे रहे थे और इसी को रोकने के लिए ब्राह्मणों के नेतृत्व में आरएसएस का गठन हुआ था।

ठीक इसी समय राजस्थान के वणिक जाति के बड़े-बड़े व्यापारी जो कलकत्ता और दूसरे बड़े शहरों में जाकर बस गये थे, उन्हें भी यह चिंता सताने लगी कि आधुनिकता की जो बयार बह रही है वह उनके घरों की सुरक्षित दुनिया को छिन्न-भिन्न कर देगी। एक बहुत ही पिछड़े हुए पारिवारिक ढांचे से आये हुए ये व्यापारी नहीं चाहते थे कि उनके पारिवारिक और सामाजिक दुनिया में किसी तरह का बदलाव आये। अपने रूढ़िवादी जीवन पद्धति और धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं को वे शाश्वत सत्य की तरह मानते थे।

यही वजह है कि वे उसे सनातन धर्म से जोड़कर देखते थे। अपने पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक विश्वासों और मान्यताओं में मामूली-सा बदलाव भी धर्म और परंपरा पर कुठाराघात लगता था। इसलिए आधुनिकता की बाहरी हवा को घर के दरवाजे पर ही रोकना उनके लिए जरूरी था और इसी अभियान को क्रियान्वित करने के लिए उठाया गया कदम था, गीता प्रेस की स्थापना। गीता प्रेस पिछले सौ साल से उन मूल्यों का प्रचार कर रहा है जो हमारे संविधान में व्यक्त मूल्यों से न केवल भिन्न हैं बल्कि विरोधी भी हैं।

गीता प्रेस वर्णव्यवस्था और छुआछूत का समर्थन करता है। दलितों के मंदिर प्रवेश का विरोध करता है। लड़कियों के स्कूल भेजने का विरोध करता है। सहशिक्षा का विरोध करता है। बाल विवाह का समर्थन करता है, विधवा विवाह का विरोध करता है और सती प्रथा को महिमामंडित करता है। यही नहीं गीता प्रेस स्त्रियों के नौकरी करने का विरोधी है, उनके सार्वजनिक जीवन में कदम रखने का विरोधी है। वह पर्दा प्रथा का समर्थक है। वह किसी भी स्थिति में तलाक का समर्थन नहीं करता। गीता प्रेस स्त्रियों की स्वतंत्रता का विरोधी है। वहस्त्र्मनु स्मृति की इस बात में यकीन करता है कि स्त्री को बचपन में अपने पिता के अधीन रहना चाहिए। युवावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए (9/3)।

कहने का तात्पर्य यह है कि पिछले दो शताब्दियों में जो समाज सुधार के आंदोलन चले थे और जिसके कारण हिंदू समाज में कुछ प्रगतिशील बदलाव आये थे और स्त्रियों को उत्पीड़न से बचाने के लिए कुछ कानून बने थे और जिसकी अभिव्यक्ति संविधान में भी दिखायी देती है, गीता प्रेस उन सबका विरोध करता है। यहां तक कि संविधान की बहुत सी ऐसी बातें जिनका विरोध करना अपराध है और जिस पर सजा हो सकती है, गीता प्रेस को उनका प्रचार-प्रसार करने की भी छूट मिली हुई है।

गीता प्रेस की स्थापना सौ साल पहले 1923 में की गयी थी और तब से लगातार वह हिंदुओं के बीच सनातन धर्म के नाम पर इन प्रतिगामी विचारों का प्रचार करता रहा है। गीता प्रेस की पुस्तकों से जिस तरह का हिंदू मानस निर्मित हो रहा था और आज भी हो रहा है वह सांप्रदायिक होने से बच नहीं सकता। गीता प्रेस और आरएसएस की नजदीकी कोई छुपी हुई बात नहीं है। दोनों संगठनों ने बहुत से अवसरों पर मिलजुल कर काम किया है।

जिस समय संविधान सभा द्वारा संविधान तैयार किया जा रहा था, ये गीता प्रेस और आरएसएस ही थे जो उन सभी प्रगतिशील प्रावधानों का विरोध कर रहे थे, जिसे संविधान में शामिल किया जा रहा था। हिंदू कोड बिल का विरोध करने वालों में, अंबेडकर का इस्तीफा मांगने वालों में भी ये दोनों आगे थे। क्योंकि इन दोनों की आस्था सनातन धर्म के उन मूल्यों में थी जहां दलित को पशुवत और गाय को देवतुल्य माना जाता था।

यह संयोग नहीं है कि पिछले नौ सालों में गाय के नाम पर कितने ही मुसलमानों और दलितों की हत्या की गयी, उन्हें प्रताड़ित किया गया। हिंदू समाज आज भी इतना आधुनिक नहीं हुआ है कि वह यह स्वीकार कर सके कि गाय एक पशु है, बिल्कुल वैसे ही जैसे भैंस एक पशु है। गोरक्षा के लिए होने वाले हर आंदोलन में गीता प्रेस हमेशा सक्रिय रहा है और यह उन्हीं का साहित्य है जो गाय को देवी और दलित को अछूत मानने के विचार का आज भी प्रचार करता है।

इसी गीता प्रेस को नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2021 का गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा की है। गीता प्रेस को महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित शांति पुरस्कार दिये जाने से गीत प्रेस का गांधी के जीवन मूल्यों में विश्वास प्रकट नहीं होता। सच्चाई इसके बिल्कुल उलट है। दोनों द्वारा संविधान का विरोध करना, दोनों द्वारा हिंदू कोड बिल का विरोध करना और गोहत्या के विरुद्ध आंदोलन में दोनों की समान सहभागिता यह बताने के लिए पर्याप्त है कि मौजूदा सरकार पर यह यकीन नहीं किया जा सकता कि वह समान नागरिक संहिता के बहाने उन रीति-रिवाजों और मान्यताओं को लागू नहीं करेगी, जिन पर वे यकीन करते रहे हैं और जिनका प्रचार और महिमामंडन आज भी कर रहे हैं।

आरएसएस का गठन राजनीतिक उद्देश्य के लिए किया गया था। वह हिंदुओं को संगठित कर एक ऐसी शासन व्यवस्था की स्थापना करना चाहता है, जो हिंदुओं के लिए हो, हिंदुओं द्वारा हो और जो हिंदू की परिभाषा में न आते हों, उन्हें नागरिकता के उन अधिकारों से वंचित रखना जो हिंदुओं को प्राप्त हों। लेकिन हिंदू राष्ट्र् की यह संकल्पना हिंदुओं के बीच बराबरी और न्याय पर आधारित नहीं है। आरएसएस वर्णव्यवथा में वैसा ही विश्वास करता है जैस विश्वास गीता प्रेस के साहित्य में व्यक्त हुआ है।

यहां इस बात को याद रखने की जरूरत है कि आरएसएस हमेशा से आरक्षण का विरोधी रहा है और वे लोग जो दलितों और पिछड़ों के शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण के विरोधी हैं वे ही भाजपा के परंपरागत समर्थक हैं और भाजपा उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती हैं। 2014 में सवर्णों के बीच परस्पर वार्तालाप में इस बात का बहुत जोर-शोर से प्रचार किया गया था कि मुसलमानों और दलितों को अपनी औकात बतानी है, तो नरेंद्र मोदी को सत्ता में लाना जरूरी है। इस बात को भी यहां ध्यान रखना आवश्यक है कि 2014 में नरेंद्र मोदी को व्यापक समर्थन इसलिए मिला क्योंकि 2002 में उन्होंने मुसलमानों को ‘सबक’ सिखाया था। ‘सबक’ से क्या मतलब था, उसे यहां दोहराने की जरूरत नहीं है।

2014 में सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार लगातार ऐसे कदम उठाती रही है जिसका मकसद धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग-थलग करना रहा है। चाहे मसला, गोमांस या गो-तस्करी का हो या लव ज़िहाद का या जय श्रीराम बोलने का, मकसद यही है कि मुसलमानों में ऐसा भय पैदा किया जाए जिससे कि वे अपने को मुख्यधारा से अलग-थलग कर ले। हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति गहरी नफरत और घृणा भर दे। मुसलमानों के विरुद्ध किया जाने वाला कोई अपराध अपराध की श्रेणी में नहीं आता।

प्रधानमंत्री ही नहीं भाजपा और संघ का कोई नेता मुसलमानों के विरुद्ध हिंसक अपराधों की न तो कभी निंदा करता है और न ही इन अपराधों की रोकथाम के लिए भाजपा सरकार कोई कदम उठाती है। उनकी कोशिश यह भी है कि एक समुदाय के रूप में मुसलमानों की देशभक्ति को हिंदुओं की नज़रों में संदिग्ध बना दिया जाए। उन्हें देश का दुश्मन और आतंकवादी बताया जाए और अगर सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं है तो भी सब मुसलमान आतंकवाद के समर्थक अवश्य है, यह हिंदू अपने दिमागों में बैठा ले।

मुस्लिम समुदाय पर हर समय तलवार लटकाये रखने के अपने अभियान के तहत ही उन्होंने 2019 में नागरिकता कानून में संशोधन किया और भारत के पड़ोसी देशों के नागरिकों को भारत की नागरिकता देने के प्रावधान में परिवर्तन किया गया। इस संशोधन के अनुसार अब पड़ोसी राज्यों के मुस्लिम नागरिकों को छोड़कर शेष सभी नागरिकों को भारत की नागरिकता मिल सकती है। इस तरह पहली बार भारत की नागरिकता में धर्म को शामिल किया गया। इसके साथ पूरे देश के लिए नागरिकता पंजीकरण का प्रावधान किया गया। नागरिकता पंजीकरण द्वारा वे सभी मुसलमान जिनके पास भारत की नागरिकता का कोई प्रमाण नहीं हैं, उन्हें घुसपैठिए और देश के लिए खतरनाक बताकर बाहर निकालना और जब तक वे भारत से बाहर नहीं जाते तब तक के लिए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित करके नज़रबंदी शिविरों में रखने का प्रावधान किया गया है।

गृहमंत्री अमित शाह कह चुके हैं नागरिकता पंजीकरण का यह अभियान पूरे देश में चलाया जाएगा और सभी जिलों को कह दिया गया है कि वे अपने यहां ऐसे लोगों को जो अपनी नागरिकता साबित न कर पाते हैं उन्हें नज़रबंदी शिविर में रखा जाना चाहिए। नागरिकता संशोधन कानून के अनुसार मुसलमानों के अलावा शेष सभी समुदायों को शरणार्थी मानकर नागरिकता प्रदान करने का कानूनी प्रावधान भी कर दिया गया है लेकिन कोई मुसलमान अगर यह साबित नहीं कर सका कि वह भारत का नागरिक है और कई पीढ़ियों से भारत में रह रहा है तो उसे नजरबंदी कैंपों में रहना होगा। फिलहाल यह अभियान रुका हुआ है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि 2024 में जीत के बाद वे नागरिकता पंजीकरण कानून लागू नहीं करेंगे।

मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध प्रत्यक्ष हमलों की अपनी रणनीति में संघ ने इधर कुछ बदलाव किया है। नरेंद्र मोदी अपने को मुस्लिम महिलाओं और पसमांदा मुसलमानों का हितैषी बताने लगे हैं। तीन तलाक कानून पर रोक लगाते हुए नरेंद्र मोदी द्वारा यह दावा किया गया कि इससे मुस्लिम महिलाओं को सुरक्षा मिलेगी और अब किसी मुस्लिम पुरुष के लिए एक साथ तीन तलाक बोलकर अपनी पत्नी को छोड़ना संभव नहीं होगा क्योंकि ऐसा करने पर उस पुरुष को तीन साल की कैद भुगतनी पड़ेगी। लेकिन एक दिवानी मामले को फौजदारी मामला बनाना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि उन्हें मुस्लिम महिलाओं से कोई सहानुभूति हो या न हो, लेकिन इस कानून ने उन्हें यह अवसर जरूर दिया है कि मुस्लिम पुरुषों को एक ऐसे मामले में जेल भिजवाने की व्यवस्था कर दी है जिसका सीधा परिणाम उन मुस्लिम परिवारों को भुगतना पड़ेगा जो उन पुरुषों की आय पर निर्भर हैं।

यहां यह गौरतलब है कि तीन तलाक को संसद द्वारा कानून बनाये जाने से पहले सुप्रीम कोर्ट इसे अवैध करार देकर खारिज कर चुका था। नरेंद्र मोदी और भाजपा को यदि मुसलमान महिलाओं की इतनी चिंता होती तो इस कानून के तहत उनके गुजारे भत्ते की व्यवस्था करते। जिस समय वे मुस्लिम महिलाओं के हितैषी बनकर सामने आ रहे थे, उस समय उन हिंदू महिलाओं के बारे में भी सोचना चाहिए था, जिनके पतियों ने बिना तलाक दिये ही त्याग दिया है और उन हिंदू महिलाओं के बारे में भी जिनके पतियों ने पहली पत्नी के रहते और उसको तलाक दिये बिना दूसरा विवाह कर लिया है या दूसरी महिला के साथ घर बसा लिया है। क्या ये मामले तीन तलाक से कम उत्पीड़नकारी और स्त्री विरोधी नहीं है?

मुसलमानों के प्रति इसी गहरी नफरत के कारण उनके राजनीतिक एजेंडे पर तीन बातें सर्वोपरि रही हैं। अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनवाना। जम्मू एवं कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संवैधानिक प्रावधान यानी धारा 370 को हटाना और पूरे देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करना। राम मंदिर अगले साल जनवरी में बनकर तैयार हो जायेगा। धारा 370 को 2019 में ही हटा दिया गया था और अब 2024 के चुनाव से पहले स्वयं प्रधानमंत्री यूसीसी की जरूरत की घोषणा कर चुके हैं।

समान नागरिक संहिता के बारे में भारतीय जनता पार्टी के वास्तविक इरादों को समझने के लिए उपर्युक्त पृष्ठभूमि को सामने रखना आवश्यक है। अमरीका से लौटने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्य प्रदेश में एक सार्वजनिक भाषण देते हुए समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए इसके लिए जो रूपक बांधा, वह परिवार का था। उन्होंने कहा कि एक ही परिवार में दो लोगों के लिए अलग-अलग नियम नहीं हो सकते। ऐसी दोहरी व्यवस्था से क्या घर चल सकता है? अगर घर नहीं चल सकता तो राष्ट्र कैसे चलेगा?

उन्होंने संविधान का हवाला देते हुए कहा कि संविधान के निदेशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुरक्षित रखने का प्रयास करेगा’। यह सही है कि निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत भारत के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की कोशिश करने की बात कही है। लेकिन निदेशक सिद्धांत केवल समान नागरिक संहिता के बारे में ही नहीं है, उसमें ऐसी बहुत से अनुच्छेद हैं जिन पर ईमानदारी से काम किया जाये तो देश की तस्वीर बिल्कुल बदल सकती है।

समान नागरिक संहिता पर ही अगर हम विचार करें तो इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ‘नागरिक संहिता’ नहीं है बल्कि ‘समान’ है, जिसके लिए अंग्रेजी में ‘यूनीफॉर्म’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यूनीफॉर्म का अर्थ है एक समान। यानी कि नागरिक संहिता भारत के प्रत्येक क्षेत्र में रहने वाला कोई भी व्यक्ति चाहे उसका धर्म कुछ भी हो, जाति कुछ भी हो, स्त्री हो या पुरुष हो, आदिवासी हो या दलित हो, सभी पर एक ही जैसी नागरिक संहिताएं लागू होंगी। स्पष्ट है कि अभी संविधान में कई तरह की नागरिक संहिताएं हैं, हिंदुओं के लिए अलग हैं, मुसलमानों के लिए अलग हैं। विभिन्न आदिवासी समूहों के लिए अलग हैं।

गोवा जैसे राज्य भी है जहां की नागरिक संहिता बिल्कुल अलग हैं और वह गोवा के हर नागरिक पर लागू होती है। आदिवासियों के अलग-अलग समूहों के लिए नागरिक संहिताएं अलग-अलग हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी नागरिक संहिताओं में एकरूपता नहीं है। इसी तरह सिख समुदाय की अपनी परंपराएं हैं। स्पष्ट है कि इनमें से किसे समान नागरिक संहिता कहा जा सकता है। निदेशक सिद्धांत के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता की बात तो कही गयी है, लेकिन उसकी कोई भी रूपरेखा नहीं दी गयी है। इसका अर्थ यह है कि संविधान निर्माता यह चाहते भी नहीं थे कि समान नागरिक संहिता की कोई रूपरेखा प्रस्तुत की जाये बल्कि इसे उन्होंने भविष्य के लिए छोड़ दिया था कि धीरे-धीरे समान नागरिक संहिता का कोई रूप विकसित होगा।

तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि नरेंद्र मोदी किस समान नागरिक संहिता की बात कर रहे हैं। इस बात को समझना कोई बहुत कठिन नहीं है कि इस बहस को शुरू करते हुए उनके दिमाग में केवल और केवल मुसलमान थे क्योंकि आरएसएस के लिए समान नागरिक संहिता का अर्थ यही है कि मुसलमानों के लिए अलग नागरिक संहिता न हो। शरीयत के आधार पर 1937 मे जो मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू किया गया था, वही आज भी लागू है। मुस्लिम समुदाय इसी पर्सनल लॉ से संचालित होते हैं। अब तक का संघ का इतिहास यही बताता है कि वे मुस्लिम पर्सनल लॉ को हटाकर उन प्रावधानों को उन पर थोपना चाहते हैं जो 1955-56 में चार विधेयकों द्वारा संसद द्वारा स्वीकृत किये गये थे और जो सिर्फ हिंदुओं पर लागू होते हैं।

इस संदर्भ में दो बातें महत्त्वपूर्ण है जिसे ध्यान में रखना जरूरी है। आज जिन नागरिक कानूनों को जो हिंदुओं पर लागू होते हैं, क्या संविधान उनके बारे में यह कहता है कि इन्हें ही समान नागरिक संहिता के रूप में स्वीकार किया जाये। केवल मुस्लिम समुदाय द्वारा स्वीकार करना ही नहीं बल्कि वे सभी समुदाय जो अभी इनके बाहर है, या जिन पर ये लागू नहीं होते, उनके द्वारा भी इसे स्वीकार करना। यानी उन आदिवासियों पर भी लागू करना जिनकी परंपराओं को संविधान ने धारा 371 और दूसरी कई धाराओं द्वारा सुरक्षा प्रदान की गयी है उन्हें हटाकर हिंदू अधिनियम थोपना। कई आदिवासी समूह मातृसत्तात्मक है, कई में ज़मीन निजी संपत्ति नहीं होती, समुदाय की सामूहिक संपत्ति होती है। अगर इन परंपराओं के मानने वाले समुदायों पर हिंदू अधिनियम लागू किये जायेंगे, तो उन्हें आगे बढ़ाने की बजाय पीछे की ओर धकेल दिया जायेगा।

दरअसल आदिवासी ही नहीं हिंदू और मुसलमानों के बहुत से समुदाय परंपरागत रूप से ऐसे रीति-रिवाजों से संचालित होते हैं जो हिंदू अधिनियम के प्रावधानों से ज्यादा स्त्रियों के पक्षधर हैं। मसलन, परंपरागत रूप से हिंदुओं की कई गैर सवर्ण जातियों में विधवा विवाह का प्रचलन सैकड़ों सालों से रहा है। यही नहीं अगर पति से किसी कारण पत्नी की नहीं बनती तो वह उसे छोड़कर अपने माता-पिता के यहां जा सकती हैं, स्वतंत्र रह सकती है या किसी और पुरुष को अपना पति मानकर उसके साथ रहना शुरू कर सकती है। इसी तरह कई पंसमादा मुस्लिम जातियों में भी इस तरह की परंपरा रही हैं और उन्हें अपने फैसले के लिए किसी मौलवी की जरूरत नहीं होती। ये परंपराएं इसलिए हैं क्योंकि इन मुस्लिम और हिंदू समुदाय की स्त्रियां आमतौर पर मेहनत-मजदूरी करती हैं और वे किसी पर निर्भर नहीं होती, अपने पति पर भी नहीं।

मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार ही नहीं बल्कि इससे पहले भी संघ और भाजपा ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वे समान नागरिक संहिता के नाम पर कौन से अधिनियम लागू करना चाहते हैं। क्या भाजपा और आरएसएस हिंदू कोड बिल के रूप में जो कानून 1955-56 में संसद द्वारा स्वीकृत किये गये थे, उन्हें मुसलमानों पर भी लागू करना चाहते हैं? यह सवाल इसलिए उठता है कि भाजपा आरएसएस का ही राजनीतिक संगठन है और आज भी भाजपा आरएसएस की हिंदुत्व विचारधारा को ही अपना आदर्श मानती है और उसी पर चलने में गर्व महसूस करती है। और अभी कुछ ही अर्सा पहले स्वयं नरेंद्र मोदी गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार की घोषणा करके एक बार फिर से यह बता चुके हैं कि उनकी विचारधारा में बिल्कुल बदलाव नहीं आया है।

भाजपा संविधान के इन कानूनों को जो हिंदुओं पर लागू होते हैं, उन्हें समान नागरिक संहिता के रूप में मान्यता देगा यह बात विश्वास योग्य नहीं है। यह कैसे भूला जा सकता है कि जब हिंदू कोड बिल के रूप में इन पर बहस चल रही थी, तब संसद के अंदर और बाहर आरएसएस इनके विरोध में मुखर था। यही नहीं इस विरोध में गीताप्रेस की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी और आरएसएस के साथ मिलकर इनको कानून बनने से रुकवाने के लिए हर संभव प्रयास किये थे।

हिंदू कोड बिल का पहला प्रारूप जवाहरलाल नेहरू के कहने पर डॉ. बी आर अंबेडकर ने बनाया था और अंबेडकर और नेहरू जानते थे कि इनका कानून बनना कितना जरूरी है। लेकिन सभी दक्षिणपंथी ताकतें जिनमें कांग्रेस के भी बहुत से नेता शामिल थे, इसको रुकवाने के अभियान में लगे थे। गीता प्रेस जैसे संगठन अंबेडकर के इस्तीफे की मांग कर रहे थे। इतने व्यापक और उग्र विरोध को देखते हुए अंबेडकर को लगने लगा था कि हिंदू कोड बिल को पारित कराना नामुमकिन है और निराश होकर उन्होंने विधि मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उग्र विरोध के बावजूद जवाहरलाल नेहरू हिंदू कोड बिल पास कराने के अपने संकल्प पर अड़े रहे लेकिन उन्हें कई तरह के समझौते करने पड़े। अंबेडकर द्वारा तैयार किये गये हिंदू कोड बिल को उन्हें चार अलग-अलग विधेयकों के रूप में संसद से पारित करवाना पड़ा। लेकिन इस प्रक्रिया में हिंदू कोड बिल की मूल आत्मा का काफी हद तक हनन हो चुका था।

विडंबना यह भी है कि कमजोर किये जा चुके इन विधेयकों का भी आरएसएस, गीता प्रेस और दूसरे हिंदुत्वपरस्त दक्षिणपंथी संगठन पहले की तरह विरोध कर रहे थे। तब प्रश्न यह उठता है कि क्या आरएसएस और भाजपा के विचार इन सात दशकों में बदल चुके हैं? क्या पिछले सत्तर सालो में उन्होंने स्वीकार किया कि हिंदू कोड बिल का विरोध करके गलती की? तब उनका मुख्य तर्क यह था कि किसी को यह अधिकार नहीं है कि वे हिंदुओं के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करे। जिन रीतिरिवाजों और परंपराओं को प्रतिगामी बताकर संविधान द्वारा उन पर रोक लगायी जा रही है और स्वतंत्रता के नाम पर जिन्हें हिंदुओं पर थोपा जा रहा है, वह हिंदू समाज को स्वीकार्य नहीं है। दूसरा तर्क यह था कि ये कानून केवल हिंदुओं के लिए क्यों हैं और मुसलमानों को इनसे बाहर क्यों रखा गया है। इन्हें मुसलमानों पर भी लागू किया जाना चाहिए और मुसलमानों के लिए जो मुस्लिम पर्सनल लॉ की व्यवस्था है, उसे समाप्त किया जाना चाहिए।

इस बात को समझने के लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि 1955-56 में संसद ने हिंदुओं के किन व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया और ऐसा करते हुए वे कौन से अधिकार हिंदू समाज को मिले या वे कौन से अधिकार जो प्रतिबंधित किये गये। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि पहले आम चुनाव से पहले ही व्यक्तिगत कानूनों में सुधार कर दिया जाये। लेकिन दक्षिणपंथी ताकतें जिन्हें हिंदुओं के व्यक्तिगत कानूनों में किसी तरह की दखलंदाजी मंजूर नहीं थी, उनका तर्क यह था कि अभी जिन लोगों के हाथ में कानून बनाना है, वे जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं है, इसलिए उन्हें किसी तरह के कानून बनाने का अधिकार नहीं है। नतीजा यह हुआ कि यह काम कुछ सालों के लिए स्थगित हो गया।

1952 के चुनाव के समय यह एक बड़ा मुद्दा बना। दक्षिणपंथी ताकतों को भरोसा था कि हिंदू ये कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे कि उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करे और उन पर वे कानून थोप दिये जाय जिन पर उनको यकीन ही न हो।लेकिन चुनाव के नतीजे उनकी आशा के विपरीत निकले और जवाहरलाल नेहरू को लोकसभा में जबर्दस्त बहुमत मिला। यही नहीं दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक ताकतों को कोई विशेष समर्थ नहीं मिला।

1952 का चुनाव कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में लड़ा था, इसलिए चुनाव में कांग्रेस की जीत दरअसल व्यक्तिगत रूप में नेहरू की भी जीत थी। यही वजह है कि नेहरू उन चार कानूनों को संसद द्वारा पारित कराने में कामयाब हुए जिनका वे पहले जबर्दस्त विरोध झेल रहे थे। ये चार कानून थे, हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम और हिंदू गोद लेने और रखरखाव अधिनियम। दरअसल इन कानूनों के द्वारा विवाह नामक संस्था को जिसे हिंदू परंपरा के अनुसार एक धार्मिक कृत्य माना जाता था, उसे लौकिक विधि के दायरे में ला दिया गया था। इससे पहले तक हिंदू परंपरा के अनुसार हिंदू पुरुष एक से अधिक शादियां कर सकता था। हिंदू पति और पत्नी को संबंध विच्छेद (तलाक) का अधिकार नहीं था। हिंदू स्त्री को अपने पिता की संपत्ति में किसी तरह का अधिकार नहीं था। हिंदू परंपरा के अनुसार यह माना जाता था कि विवाह के बाद कन्या का अपने पिता के परिवार से न कोई संबंध रहता है और न ही अधिकार। इसलिए संपत्ति में भी उनका अधिकार नहीं होता। पहली बार कानून द्वारा यह अधिकार पुत्रियों को भी दिया गया।

इन प्रगतिशील बदलावों में सबसे अधिक विरोध हिंदू विवाह अधिनियम में तलाक को शामिल करना था। तलाक का विरोध कितना ज्यादा था, इसे उन हिंदी फ़िल्मों द्वारा जाना जा सकता है जो 1955 के आसपास बनी थी। विडंबना यह है कि गुरुदत्त जैसे फ़िल्मकार ने भी ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ नाम की फ़िल्म तलाक के विरोध में बनायी थी। दूसरा विरोध पिता की संपत्ति में पुत्री को भी हिस्सा दिया जाना था। पति और पत्नी में तलाक होने पर या किसी वैध कारण से अलग रहने पर पति से पत्नी और बच्चों को भरण-पोषण पाने का पूरा अधिकार मिल गया था। अब स्त्री और पुरुष दोनों विवाह संबंध से मुक्त होने के लिए स्वतंत्र हैं। तलाक के बाद वे दूसरी शादी करने के लिए स्वतंत्र है। विधवा होने पर विवाह का अधिकार तो 1856 में ही हिंदू स्त्रियों को पहले ही मिल चुका था।अब उसका जीवन इसलिए ज्यादा सुरक्षित था क्योंकि पिता की संपत्ति में भी उसका अधिकार संविधान ने स्वीकार कर लिया था।

हिंदुओं के लिए जो चार अधिनियम संसद द्वारा पारित हुए वे केवल हिंदुओं के लिए थे। यह अवश्य है कि संविधान में हिंदू की परिभाषा में हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख को शामिल किया गया है।जबकि मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि धार्मिक समुदायों पर ये कानून लागू नहीं किये गये थे। मुस्लिम समुदाय अपने शरीयत पर आधारित निजी कानून से संचालित होते हैं। लेकिन यह कानून गोवा राज्य के मुस्लिम नागरिकों पर लागू नहीं होता। वहां के सभी नागरिकों के लिए अलग से गोवा नागरिक संहिता है। इसी तरह कोई भी मुसलमान जो 1954 के स्पेशल मैरिज एक्ट के अनुसार विवाह करता है तो उस पर भी मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू नहीं होता। इसी तरह यदि कोई मुसलमान जिस पर मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू होता है, वह यदि सरकारी नौकरी पर है और उसने एक पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी कर रखी है, तो उसको नौकरी से निकाला जा सकता है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ में मुस्लिम पुरुष को चार शादियां करने का जो अधिकार दिया गया है, वही संघ और भाजपा के आक्रमण का सबसे उग्र निशाना रहा है। 2002 में नरेंद्र मोदी ने ‘हम पांच हमारे पच्चीस’ कहकर मुसलमानों पर आक्रमण किया था हालांकि जो अपवाद रूप में भी मुमकिन नहीं है। कानूनी प्रावधान कुछ भी हो, सच्चाई यह है कि मुसलमान जिनकी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा बहुत ही गरीब है, उनके लिए दो या चार शादी करना तो बहुत दूर की बात है, एक शादी करके अपने परिवार का पालन-पोषण करना भी दिन ब दिन मुश्किल होता जा रहा है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में काफी सुधार की आवश्यकता है, लेकिन वह सुधार एक ऐसी पार्टी के सत्ता में रहते नहीं हो सकता जिसकी पूरी राजनीति मुसलमानों के प्रति गहरी नफ़रत पर टिकी हो।

दरअसल समान नागरिक संहिता का पूरा प्रश्न समानता (यूनिफॉर्मिटी) का नहीं है बल्कि समतावादी(इगलिटेरियन) और न्यायपूर्ण होने का है और इन दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न समुदायों की उन परंपराओं पर विचार करना होगा जो उस समाज की महिलाओं और लड़कियों को आर्थिक और सामाजिक रूप से सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करते हैं। लेकिन विभिन्न समुदायों में ऐसे भी रीति-रिवाज और परंपराएं हैं जो पुरुष वर्चस्व को सुनिश्चित करते हैं और जिसके कारण महिलाओं की स्थिति अपने ही समाज में दोयम दर्जे की बनी रहती है।

भारत विविधताओं वाला देश है। यहां विभिन्न धर्मों, जातियों, समुदायों के लोग रहते हैं और इन सबकी इतनी विविधपूर्ण परंपराएं हैं जिन्हें एक झटके में नहीं बदला जा सकता। इसके लिए उन समाजों में ही बहसों और बदलावों की कोशिशें की जानी जरूरी है। उन समाजों की स्त्री-आवाज़ों को, उनके उन हिस्सों की आवाज़ों को जो बदलाव की कोशिशों में पीछे छूट गये हैं, सबसे आगे लाना होगा। समान नागरिक संहिता से भी जरूरी यह है कि अभी भी गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, अशिक्षा और साधनहीनता में जीने वाले करोड़ों-करोड़ों लोगों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए सरकारें प्रयास करे। लेकिन जिस सरकार की प्राथमिकता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो, जिसके लिए मनुष्य से ज्यादा मूल्यवान गाय हो और जिसके लिए विकास का अर्थ मुट्ठीभर उद्योगपति की संपदा में दिन-दूनी रात चौगुनी वृद्धि करना हो, उससे किसी मूलगामी, समतावादी और न्यायपूर्ण बदलाव की आशा नहीं की जा सकती।

(जवरीमल्ल पारख स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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