मुलायम के निधन पर राजनीतिक शिष्टाचार भी भूल गयी उत्तराखंड सरकार 

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उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के निधन पर ना तो उत्तराखण्ड सरकार की ओर से कोई आधिकारिक विज्ञप्ति जारी कर शोक जाहिर किया गया और ना ही शासक दल ने कोई दुख या शोक प्रकट किया है। जबकि पिछले साल पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के निधन पर उत्तराखण्ड में 22 अगस्त को राजकीय शोक की घोषणा की गयी थी।

अविभाजित उत्तर प्रदेश/उत्तराखण्ड सहित सूबे के 3 बार मुख्यमंत्री और एक बार देश के रक्षामंत्री रह मुलायम सिंह यादव के सोमवार को दिल्ली में हुये निधन पर भाजपा के अलावा लगभग सभी प्रमुख दलों ने शोक प्रकट किया है। लेकिन उत्तराखण्ड सरकार की ओर से देर सायं तक कोई शोक संवेदना संदेश जारी नहीं हुआ था। चूंकि मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व में उत्तराखण्ड भी उत्तर प्रदेश का हिस्सा था इसलिये राजकीय शिष्टाचार के नाते मुलायम के नाम पर दो शब्द संवेदना के तो बनते ही थे। जबकि पिछले साल 21 अगस्त को जब पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का निधन हुआ था तो उत्तराखण्ड में 22 अगस्त को राजकीय शोक घोषित हुआ था।

मुलायम सिंह यादव को राजनीतिक कारणों से भले ही उत्तराखण्ड में खलनायक के तौर पर प्रोजेक्ट किया गया हो लेकिन वास्तव में वह इस पहाड़ी भूभाग के असली शुभ चिन्तक थे। यह सही है कि शुरू में वह पृथक उत्तराखण्ड राज्य के विरोधी थे और कहते थे कि उत्तराखण्ड उत्तर प्रदेश का सिर है इसलिए उसे कटने नहीं देंगे। वास्तव में वह देवभूमि को सिर की तरह सम्मान देते थे। जहां तक सवाल पृथक राज्य के गठन का है तो कामरेड पीसी जोशी के अलावा उत्तराखण्ड का राष्ट्रीय स्तर का कोई भी नेता अलग उत्तराखण्ड राज्य का समर्थक नहीं था। उन नेताओं में गोविन्द बल्लभ पन्त, हेमवती नन्दन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी और के.सी. पन्त आदि सभी बड़े नेता थे जिनका नाम उत्तराखण्ड में बहुत आदर से लिया जाता है। तिवारी जी तो राज्य की पहली निर्वाचित सरकार के मुख्यमंत्री तक बने।

मुलायम सिंह यादव को उत्तराखण्ड विरोधी बताया गया, जबकि वह मुलायम सिंह ही थे जिन्होंने सबसे पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा में पृथक उत्तराखण्ड के लिये एक विस्तृत प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को भेजा था। उस प्रस्ताव के बाद पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग को बल मिला। एक सकारात्मक माहौल बना। प्रस्ताव भी बाद की सरकारों की तरह महज औपचारिक न हो कर एक दस्तावेज के तौर पर तैयार किया गया, जिसे लोग आज भी गाहे ब गाहे संदर्भित करते हैं। जबकि बाद में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने केन्द्र से आये प्रस्ताव में उत्तराखण्ड विरोधी 26 संशोधन पारित कराये थे।
मुलायम सिंह राज्य के लिये कितने गंभीर थे इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि उन्होंने प्रस्ताव के लिये दो कमेटियां गठित की थीं। एक कमेटी कैबिनेट मंत्री रमाशंकर कौशिक की अध्यक्षता में बनी थी जिसके सचिव रघुनन्दन सिंह टोलिया थे। टोलिया जी उत्तराखण्ड के मामलों में उद्भट विद्वान माने जाते थे। वह राज्य के मुख्य सचिव भी बने। टोलिया जी का बनाया हुआ मजमून वास्तव में एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। नये राज्य के प्रस्ताव के लिये मुलायम सिंह ने विनोद बड़थ्वाल की अध्यक्षता में दूसरी कमेटी भी गठित की ताकि प्रस्ताव में जनभावनाओं का समावेश हो जाय।
मुलायम सिंह यादव द्वारा गठित कौशिक समिति ने जनभावनाओं को ध्यान में रखते हुये राजधानी के लिये गैरसैंण पर जोर दिया था। उस कमेटी ने गढ़वाल और कुमाऊं के बीच एक बफर डिवीजन के गठन का सुझाव भी दिया था। मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में ही पहली बार उत्तराखण्ड विकास विभाग के लिये अपर मुख्य सचिव की नियुक्ति हुयी थी। इस नियुक्ति से उत्तराखण्ड के प्रति उनकी गंभीरता को आंका जा सकता है। उसके बाद काफी समय तक अतिरिक्त मुख्य सचिव का पद भारत सरकार ने समाप्त कर दिया था।

उत्तराखण्ड के लिये पहला कैबिनेट मंत्री नियुक्त करने वाले भी मुलायम सिंह यादव ही थे। उन्होंने 1989 में उत्तर प्रदेश की कमान संभालने पर उत्तरकाशी के बर्फिया लाल ज्वांठा को उत्तराखण्ड मंत्रालय का कैबिनेट मंत्री बनाया था। जबकि उससे पहले इस मंत्रालय को राज्यमंत्री संभालते थे।

उत्तराखण्ड के प्रति उनके भावनात्मक लगाव का ही नतीजा था कि उन्होंने अपने दोनों पुत्रों की बहुएं गढ़वाल से चुनीं और इस भूभाग से अपने पारिवारिक रिश्ते जोड़े। मुजफ्फरनगर कांड को लेकर उन्होंने सार्वजनिक माफी मांगी थी जबकि आज के नेताओं से इस तरह की माफी की अपेक्षा नहीं की जाती। यह बात दीगर है कि उस काण्ड के असली खलनायक का चेहरा आज तक सामने नहीं आ पाया। उस कांड में शामिल लोगों को न केवल माफ कर दिया गया अपितु उन्हें पदोन्नत और पुनर्नियुक्ति दे कर सम्मानित किया गया। इसलिये उत्तराखण्ड के असली शुभ चिन्तक इस राजनेता की याद उत्तराखण्डवासियों को ज़रूर आती रहेगी।

देहरादून का प्रेस क्लब भी मुलायम की ही देन है। वह पत्रकारों के सबसे बड़े मित्र और शुभ चिन्तक हुआ करते थे। मुझे याद है एक बार हमारी यूनियन के झांसी में आयोजित सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि मित्रता किसी की जाति, धर्म या राजनीतिक सम्बद्धता को देखकर नहीं होती। उन्होंने पत्रकार धुरन्धरों से पूछा कि आप हमारे पुराने मित्र हैं जबकि आपकी आरएसएस से करीबी जगजाहिर है। वास्तव में वह एक जमीनी नेता थे, इसलिये उन्हें जमीनी हकीकतों की जानकारी रहती थी।

(जयसिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल देहरादून में रहते हैं।)

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