भारत की चीन नीतिः आखिर इस उलझन की जड़ें कहां हैं?

उन्नीस जून 2020 को हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस बयान को सुन कर सारा देश सन्न रह गया था कि लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर ‘ना तो कोई भारत के अंदर घुसा है, ना कोई घुसा हुआ है और ना ही कोई हमारी किसी चौकी को कब्जा करके बैठा हुआ है।’ चार दिन ही पहले गलवान घाटी में चीनी फौजियों के साथ लड़ाई में 20 भारतीय सैनिकों की जान चली जाने की खबर से तब देश आहत था। उसके लगभग डेढ़ महीने पहले से लगातार यह खबर आ रही थी कि लद्दाख क्षेत्र में कई स्थलों पर चीनी फौजी एलएसी पार करके भारतीय क्षेत्र में आ घुसे हैं। गलवान घाटी के अलावा पैंगोंग सो, घोगरा, देप्सांग आदि जैसे क्षेत्रों में घुसपैठ की चर्चा थी। उन खबरों की भारत सरकार ने ना तो पुष्टि की थी, ना ही उनका खंडन किया था। लेकिन गलवान घाटी की घटना के बाद प्रधानमंत्री के बयान से संकेत मिला कि भारत सरकार ने सिरे से घुसपैठ की बात नकार दी है। 

उसके डेढ़ साल बाद अब तक भारत सरकार का जो रुख सामने आया है, उससे यह संकेत मिलता है कि चीन के साथ एलएसी के अस्तित्व को ही भारत सरकार अब नकार रही है। अगर यह बात सच है, तो फिर एलएसी के आधार पर अतीत में- खास कर 1988 के बाद से हुए तमाम समझौतों का अस्तित्व अपने आप खत्म हो जाता है। उसके बाद बात सीमा विवाद पर जा ठहरती है, जिसकी कहानी एक सदी से अभी अधिक पुरानी हो चुकी है। 

जाहिर है, अगर एलएसी के अस्तित्व को ठुकराने की बात में थोड़ी भी सच्चाई है, तो फिर भारत-चीन सीमा विवाद के जुड़े लगभग सारे धागे खुल जाएंगे। उस हाल में बात घूम फिर कर मैकमोहन लाइन और उसकी वैधता पर जा टिकेगी। चीन इस लाइन को नहीं मानता। तो उसकी निगाह में बात उस जगह पर पहुंच जाएगी, जहां वह 1962 के युद्ध के पहले- दरअसल 1959 में थी। गौरतलब है कि 1959 में चीन ने सीमा विवाद पर अपना दावा पेश किया था। 

भारत-चीन सीमा विवाद पर भारत सरकार के रुख में बुनियादी बदलाव आ गया है, यह शक पिछले डेढ़ साल में चीनी घुसपैठ पर भाजपा सरकार की तरफ से जारी बयानों से पैदा हुआ है। जो रुख इन बयानों में जाहिर हुआ है, उसे ही सरकार समर्थक प्रचार तंत्र और भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी आगे बढ़ाया है। इस बात को बारीकी से समझने की जरूरत है। 

इस साल के पहले दिन गलवान घाटी में चीनी फौजियों की तरफ से चीन का झंडा फहराने और “अपनी जमीन” के एक-एक इंच की रक्षा करने का प्रण लेते हुए चीनी सैनिकों का एक वीडियो सर्कुलेट हुआ। उसके तुरंत बाद खबर आई कि चीन पैंगोंग सो झील के पास एक ऐसा पुल बना रहा है, जिससे वहां चीनी फौज के पहुंचने की दूरी लगभग 180 किलोमीटर कम हो जाएगी। भारत सरकार समर्थक प्रचार तंत्र ने गलवान घाटी वाली खबर को चीनी दुष्प्रचार का हिस्सा बताया। यह भी कहा गया कि चीनी फौजियों ने अपना झंडा अपनी सीमा के अंदर फहराया है। उसके बाद नए पुल निर्माण के बारे में भारत सरकार का आधिकारिक बयान आया। उसका लब्बोलुआब यह रहा कि चीन यह निर्माण उस क्षेत्र में कर रहा है, जिस पर साठ साल पहले (यानी 1962 के युद्ध में) उसने कब्जा कर लिया था। 

स्पष्टतः भारत सरकार ने यह कहा कि हाल में- यानी अप्रैल 2020 के बाद उस क्षेत्र में कोई चीनी कब्जा नहीं हुआ है। गुजरे महीनों में ऐसी खबरें भारतीय मीडिया में आईं, जिनके मुताबिक चीन ने अरुणाचल प्रदेश के हिस्से में नई बस्तियां बसाई हैं। उन बस्तियों की सैटेलाइट तस्वीरें भी मीडिया में छपी हैं। लेकिन उन सभी मौकों पर भारत सरकार ने कहीं नहीं कहा है कि वे बस्तियां उन गांवों में बसाई गई हैं, जहां चीन ने साठ साल पहले कब्जा कर लिया था। इस तरह नरेंद्र मोदी सरकार लद्दाख या अरुणाचल प्रदेश में हाल में किसी प्रकार की चीनी घुसपैठ की बात का खंडन करती रही है। लेकिन सामान्य स्थितियों में इन खंडनों से निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलतेः 

  • अगर कोई घुसपैठ नहीं हुई है, तो फिर गलवान घाटी में आखिर भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प किसलिए हुई थी, जिसमें 20 भारतीय और (चीन के आधिकारिक बयान के मुताबिक) चार चीनी फौजी मारे गए थे? 
  • अगर 2020 से लेकर कोई चीनी घुसपैठ नहीं हुई, तो दोनों देशों की सेना के बीच एलएसी पर तनाव घटाने के लिए 13 दौर की वार्ता किसलिए हुई है? (14वें दौर की बातचीत अगले 12 जनवरी को होने वाली है।)
  • अगर चीन ने भारतीय क्षेत्र पर कोई कब्जा नहीं जमाया है, तो जून 2020 में दर्जनों चीनी मोबाइल ऐप्स पर भारत में प्रतिबंध किसलिए लगाया गया था?
  • फिर अगस्त 2020 में भारतीय सैनिकों ने कैलाश रेंज की चोटी पर कब्जा क्यों किया था? इस कब्जे को भारतीय सेना की महत्त्वपूर्ण सफलता माना गया। 2021 में तनाव घटाने की प्रक्रिया के तहत जब चीनी फौज कुछ बिंदुओं से पीछे गई, तो भारतीय सेना ने भी कैलाश रेंज खाली कर दिया। लेकिन प्रश्न है कि अगर कोई चीनी घुसपैठ नहीं हुई, तो ये सारा घटनाक्रम क्यों हुआ?

इन प्रश्नों से पहले हमने यह कहा कि सामान्य स्थिति में ये प्रश्न अनुत्तरित हैं। सामान्य स्थिति से मतलब इस बात को स्वीकार करना है कि 1962 के युद्ध की समाप्ति के समय जिस हद तक इलाके दोनों देशों के वास्तविक नियंत्रण में थे, उसे अस्थायी सीमा समझा गया। उसे ही एलएसी कहा गया। लेकिन अगर एलएसी की बात ना की जाए, तो फिर सारी सूरत बदल जाती है। भारत सरकार ने एलएसी के अस्तित्व को ना मानने का मन बना लिया है, उसे ठोस रूप से कहने का अभी कोई आधार नहीं है। लेकिन भारत सरकार के कई बयानों ने ऐसे संकेत जरूर दिए हैँ। उनमें पहला वही प्रधानमंत्री का वक्तव्य था, जिसमें उन्होंने किसी के भारतीय सीमा के अंदर ‘घुसने या घुसे होने’ का सिरे से खंडन कर दिया था।

उसके बाद उनकी बात को आगे बढ़ाता दिखने वाला एक और महत्त्वपूर्ण बयान आया। ये बयान पूर्व सेनाध्यक्ष और नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री जनरल वीके सिंह ने दिया। फरवरी 2021 में सिंह ने यह कह कर सबको चौंका दिया कि भारत ने चीन से भी अधिक बार एलएसी का उल्लंघन किया है। उन्होंने अपने इस बयान में यह भी जोड़ा (हालांकि यह भारत सरकार के पुराने रुख को दोहराना ही था) कि चीन के साथ भारत की सीमा का कभी निर्धारण नहीं हुआ। अब अगर प्रधानमंत्री और जनरल वीके के बयानों की रोशनी में 15 जून 2020 की घटना को देखें, तो सवाल उठेगा कि क्या फिर भारतीय सैनिक एलएसी को पार कर चीनी इलाके में चले गए थे, जिसकी वजह से वहां वो दुर्भाग्यपूर्ण झड़प हुई? बहरहाल, जनरल सिंह के बयान के साथ इतनी गनीमत जरूर रही कि उन्होंने एलएसी का जिक्र किया। 

लेकिन 2021 में सितंबर आते-आते भारत सरकार की तरफ से इस शब्द का इस्तेमाल ही छोड़ दिया गया। तब मॉस्को में शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक के दौरान विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच बातचीत हुई। उसके बाद दोनों ने एक साझा बयान जारी किया। उस बयान में सीधे तौर पर सीमा शब्द का इस्तेमाल किया गया। कहा गया- ‘दोनों विदेश मंत्री इस बात पर सहमत हुए कि सीमा क्षेत्र में मौजूदा स्थिति दोनों पक्षों में से किसी के भी हित में नहीं है। इसलिए वे इस बात पर सहमत हुए कि सीमा के दोनों तरफ तैनात बल वार्ता जारी रखें, तेजी से आमने-सामने तैनात रहने की स्थिति को खत्म करें, एक उचित दूरी का पालन करें, और तनाव घटाएं।’ 

इस बयान में जहां भी जरूरत हुई, ‘सीमाई क्षेत्र’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। अनेक विशेषज्ञों ने इसे एक महत्त्वपूर्ण नीतिगत बदलाव माना। उन्होंने इसे इस बात संकेत समझा कि भारत ने सीमा के बारे में कम से कम पश्चिमी क्षेत्र यानी लद्दाख में चीन के 1959 के दावे को स्वीकार करने की तरफ बढ़ रहा है। क्योंकि ऐसा मान लेने के बाद ही यह कहा जा सकता है कि कोई चीनी घुसपैठ नहीं हुई है। 

बहरहाल, नवंबर 2019 तक इस बात के कोई संकेत नहीं थे कि भारत इस मामले में अपना रुख नरम करने के लिए किसी रूप में तैयार है। बल्कि तब भारत ने अपना नया राजनीतिक नक्शा जारी किया था, जिसमें पूरे लद्दाख को भारत के हिस्से के रूप में दिखाया गया था। तभी गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में पूरे ओज के साथ यह घोषणा की थी कि भारत अक्साई चिन इलाके को वापस लेकर रहेगा। इस इलाके पर 1962 के युद्ध के दौरान चीन ने कब्जा कर लिया था। 

नरेंद्र मोदी जब 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, तब उन्होंने चीन के प्रति अपनी सख्त छवि पेश की थी। तब वे चीन को लाल आंख दिखाने की जरूरत बताते थे। इसलिए उनकी सरकार ने जब नया नक्शा जारी किया या गृह मंत्री शाह ने अक्साई चिन को वापस लाने का उद्घोष किया, तो उसे मोदी और भाजपा के जाने-पहचाने रुख के अनुरूप ही समझा गया। तो फिर आखिर ऐसा क्या हो गया 2020 के मध्य से नरेंद्र मोदी सरकार के रुख में एक अजीब किस्म की उलझन नजर आने लगी? 

इस उलझन में वर्तमान भारत सरकार की पूरी विदेश नीति ही उलझती नजर आ रही है। जबकि 2019 तक इस बात के स्पष्ट संकेत थे कि मोदी सरकार भारत को अमेरिका के करीब ले जा रही है और उसी के अनुरूप पास-पड़ोस के शक्ति समीकरणों को देख रही है। इसी नीति का परिणाम अमेरिका के नेतृत्व वाले चतुर्गुटीय सुरक्षा वार्ता (क्वैड) का हिस्सा बनना था। क्वैड ने 2021 में अधिक स्पष्ट रूप ग्रहण किया। भारत उसमें शामिल भी है। लेकिन बाकी कुछ घटनाएं ऐसी हैं, जिनसे उलझन गहराती नजर आई है। गौरतलब है कि इन घटनाओं के केंद्र में चीन है। 

यह विचारणीय है कि चीन से रिश्ते में बात क्यों बिगड़ी? आखिर प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच कई औपचारिक और अनौपचारिक शिखर वार्ताएं हुईं। उनमें वुहान और मल्लपुरम की वार्ताओं के साथ भारत-चीन संबंधों में एक नए दौर की शुरुआत के दावे किए गए थे। दोकलाम में दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने आई थीं, लेकिन उसके बावजूद वुहान और मल्लपुरम में वार्ता प्रक्रिया आगे बढ़ी। संबंध के उस दौर को नरेंद्र मोदी की खास शैली की कूटनीति की सफलता के रूप में पेश किया गया था। गौरतलब है कि वुहान और मल्लपुरम की वार्ताएं इस बात के बावजूद हुईं कि भारत क्वैड का हिस्सा बनने की तरफ बढ़ रहा था। तो यह मुख्य प्रश्न है कि फिर क्यों चीन का रुख “आक्रामक” हो गया? 

भारत सरकार के समर्थक तबकों की नजर से देखें, तो जिम्मेदार चीन की बढ़ती साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाएं हैं। लेकिन आलोचकों की निगाह से देखें, तो न सिर्फ चीन, बल्कि बहुआयामी कूटनीति में भारत का पक्ष कमजोर करने के पीछे खुद भारत सरकार के बिना परिमाणों को सोचे उठाए गए कुछ कदमों की भूमिका है। इस सिलसिले में 2019 की दो घटनाओं का खास जिक्र किया जा सकता है। ये घटनाएं हैं:

  • फरवरी 2019 में बालाकोट पर हवाई हमला। उस हमले से क्या हासिल हुआ, यह अलग आकलन का विषय है। लेकिन उससे दुनिया- खास कर पास-पड़ोस को यह संदेश जरूर गया कि भारत ने hot pursuit की नीति अपना ली है। इसके तहत वह अंतरराष्ट्रीय सीमा का बिना ख्याल किए अपने रणनीतिक मकसदों को पूरा करने के लिए सैन्य कार्रवाई कर सकता है।
  • दूसरी बड़ी घटना 5 अगस्त 2019 को हुई, जब भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया। उसके साथ ही इस राज्य को विभाजित करते हुए लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया। चीन की निगाह में हमेशा से जम्मू-कश्मीर एक विवादित प्रदेश रहा है। लद्दाख के साथ खुद उसके अपने रणनीतिक दावे जुड़े हैं। दरअसल, उसने कश्मीर के पाकिस्तान के कब्जे वाले हिस्से (PoK) में अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव प्रोजेक्ट के तहत अरबों डॉलर का निवेश कर वहां भी अपने दीर्घकालिक हित बना लिए हैं। ऐसे में जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में हुए बदलाव को चीन और पाकिस्तान जैसे देशों में भारत की hot pursuit नीति का ही विस्तार समझा गया। यह माना गया कि भारत का “विवादित” क्षेत्रों को लेकर जो दावा है, उसने अब सैन्य ताकत के इस्तेमाल से उसे हासिल करने की नीति अपना ली है।

इसी के बाद गृह मंत्री अमित शाह का अक्साई चिन को वापस लाने का उद्घोष हुआ। इन घटनाओं के साथ ही भारत सरकार के अमेरिकी नेतृत्व वाले क्वैड में शामिल को जोड़ कर देखा गया। इसमें दुनिया में किसी को शक नहीं है कि अमेरिका ने क्वैड की योजना चीन को घेरने के मकसद से बनाई थी।

अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि इन घटनाओं के बाद चीन ने pre-emptive आक्रामकता की नीति अपना ली। इसी का परिणाम लद्दाख क्षेत्र में चीन की (जैसा कि लगातार भारतीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से में बताया गया है) उन इलाकों में फौजी घुसपैठ है, जहां अप्रैल 2020 के पहले तक भारतीय सेना गश्त लगाती थी। विश्लेषण के इस दृष्टिकोण के मुताबिक 15 जून 2020 को गलवान घाटी में हुई लड़ाई उसी चीनी घुसपैठ का नतीजा थी। और उसी घुसपैठ को वापस कराने के लिए दोनों देशों के सेनाओं के बीच 13 दौर की वार्ता हो चुकी है। 

इस बीच भारत सरकार ने आर्थिक संबंधों के क्षेत्र में चीन के खिलाफ जो कदम उठाए, उसका कोई नतीजा नहीं निकला है। बल्कि मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक 2021 में भारत और चीन का द्विपक्षीय व्यापार 114 बिलियन डॉलर से अधिक हो गया। इसमें लगभग 87 बिलियन डॉलर का भारत ने आयात किया। इस रूप में भारत को 60 बिलियन डॉलर से ज्यादा व्यापार घाटा हुआ है। स्पष्टतः भारत चीन के लिए मुनाफे का बाजार बना हुआ है। 

बहरहाल, भारत सरकार ने आरंभ से ही चीनी घुसपैठ की बात का खंडन किया है। इसके पीछे क्या सोच या रणनीति है, यह समझ से बाहर है। इस बीच अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में निकटता बनने का क्रम भी कहीं ठहर-सा गया दिखता है। बीते दिसंबर में रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन की यात्रा के समय भारत ने जैसी गर्मजोशी दिखाई और हथियारों की खरीद के समझौते किए, जाहिर है, वह अमेरिका को पसंद नहीं आया होगा। इस बीच भारतीय मीडिया में ऐसी चर्चा भी है कि पुतिन चीन के साथ भारत के संबंधों में तनाव घटाने के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं। भारत यात्रा के दो हफ्तों के बाद ही उन्होंने फिर से फोन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की। इसके ठीक पहले उनकी चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से वीडियो शिखर वार्ता हुई थी। गौरतलब है कि जब मास्को में एस जयशंकर और वांग यी के बीच द्विपक्षीय मुलाकात हुई थी, तब भी मीडिया में ये चर्चा थी कि रूस की मध्यस्थता से वह संभव हो सका। 

मौजूद वैश्विक शक्ति संतुलन और समीकरणों के बीच चीन और रूस एक धुरी पर हैं। वे आर्थिक और तकनीकी क्षेत्रों के अलावा रक्षा के मामले में भी अपने संबंध लगातार मजबूत कर रहे हैं। उनके बीच कॉमन फैक्टर दोनों की अमेरिका से बढ़ रही प्रतिद्वंद्विता है। इसके बीच रूस और यहां तक कि चीन के भी हित में यही है कि भारत को अमेरिकी धुरी से जितना संभव है, उतना दूर रखा जाए। आखिर भारत एक बड़ी सैनिक ताकत है। खास कर अमेरिका और चीन के टकराव में (अगर ऐसा हुआ तो) नौ सेनाओं की बड़ी भूमिका होगी और भारत के पास एक मजबूत नौ सेना है। 

इसीलिए पुतिन और उनकी सरकार के भारत के मामले में हालिया पहल (या रुख) ने सबका ध्यान खींचा है। इस बीच चीन के मीडिया में नरेंद्र मोदी सरकार की “संयम भरी” नीति की तारीफ और चीन के खिलाफ “उग्र नीति” अपनाने के लिए भारतीय विपक्ष की आलोचना भी देखने को मिली है। अनेक जानकार मानते हैं कि यह सब रूस की मध्यस्थता में भारत और चीन के बीच किसी प्रकार की सहमति बनने का संकेत है। लेकिन अगर ऐसा है, तो फिर सबसे अहम सवाल यही होगा कि आखिर सहमति किस आधार पर बनेगी? क्या भारत एलएसी की बात छोड़ देगा? ऐसा करने का मतलब यह होगा कि सीधे सीमा विवाद पर बात की जाए और ये बात अनिश्चित काल तक चलेगी? इस बीच जब एलएसी की बात ही नहीं होगी, तो घुसपैठ का सवाल अपने-आप पृष्ठभूमि में चला जाएगा।

अगर इस आधार पर सहमति बनती है, तो उससे फौरी तनाव घट सकता है, लेकिन भविष्य में भारत के लिए नई चुनौतियां पैदा होंगी। जाहिर है, सहमति बनाने के लिए फिलहाल चीन भी कुछ रियायत देता दिखेगा, लेकिन वह सीमा विवाद पर अपना पुराना दावा छोड़ेगा, इसकी संभावना न्यूनतम है। फिलहाल चीन का भी अभी मुख्य टकराव अमेरिका से है। ऐसे में भारत के साथ मोर्चे पर तनाव घट जाए, यह उसके फायदे में होगा। वैसे भी चीन की मुख्य ताकत आर्थिक है और भारत उसके लिए बड़े मुनाफे का बाजार बना हुआ है। इसमें कोई खलल ना पड़े, इसे सुनिश्चित करना उसकी प्राथमिकता रही है। 

लेकिन हमारे लिए असल सवाल है कि भारत की रणनीतिक और दीर्घकालिक सोच क्या बनती दिख रही है? 2019 में जिस hot pursuit नीति की चर्चा थी-  और जिसकी तब के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी सरकार को दोबारा जनादेश दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही- आज वह कहां पहुंची है? कुछ विश्लेषणों में यह कहा गया है कि उस नीति से भाजपा को भले देश के अंदर सियासी फायदा हुआ हो, लेकिन उससे भारत की भू-राजनीतिक चुनौतियां बढ़ गई हैं। ऐसी खबरें हैं कि चीन और पाकिस्तान की सेनाओं ने भारत की कथित hot pursuit नीति से सबक लेते हुए अपना सामंजस्य मजबूत कर लिया है। बल्कि कुछ विश्लेषणों में तो यह भी बताया गया है कि दोनों देशों की सेनाएं साझा युद्ध नीति की तैयारी कर रही हैं।

बहरहाल, भारत सरकार की इस बारे में ताजा सोच क्या है, यह प्रश्न अनुत्तरित है। क्या इस नीति में निहित लाभ-हानि का आकलन करने के बाद भारत सरकार ने फिलहाल उस पर विराम लगा दिया है? क्या अब उसने उससे अलग नीति अपना ली है? इसी से जुड़ा प्रश्न है कि अमेरिका से निकट धुरी बनाने की नीति अब कहां है? क्या उस पर पुनर्विचार किया गया और यह निष्कर्ष निकला की रूस जैसा पुराना दोस्त आज भी अहम है, भले उस दोस्ती को कायम रखने के लिए उसके नए रणनीतिक सहयोगी यानी चीन के प्रति कुछ रियायत भी देनी पड़े?

ये तमाम प्रश्न अनुत्तरित हैं। इन तमाम मुद्दों को लेकर भ्रम कायम है। स्पष्टता का अभाव है। तो सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर इस उलझन की जड़ें कहां हैं? 

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेष जानकार हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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