Friday, April 19, 2024

किसान आंदोलन: क्या 29 दिसंबर की वार्ता से बनेगा कोई रास्ता?

30 दिन के शांतिपूर्ण धरने और लगभग 35 किसानों की अकाल मृत्यु के बाद, सरकार ने किसानों से बातचीत शुरू करने के लिये किसानों को ही बातचीत का एजेंडा सुझाने के लिये एक पत्र लिखा इसके पहले सरकार के संयुक्त सचिव विवेक अग्रवाल द्वारा सरकार की तरफ से किसान संगठनों से नियमित पत्राचार किया जा रहा था। यह पत्र अब तक का अंतिम पत्राचार है । इस पत्र में सरकार ने बातचीत के मुद्दे किसानों से ही मांगे हैं कि वे किन विषयों पर सरकार से बात करना चाहते हैं। किसान संगठनों ने 26 दिसंबर को सायंकाल एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के यह बताया कि, सरकार के पत्र का उन्होंने उत्तर दे दिया है और सरकार को अपना एजेंडा भी स्पष्ट कर दिया है। किसान नेताओं ने सरकार के साथ बातचीत के लिए 29 दिसंबर को सुबह 11 बजे का वक्त तय किया है, और जगह के रूप में दिल्ली के विज्ञान भवन को चुना गया है। 

आंदोनकारी 40 किसान संगठनों के मुख्य संगठन संयुक्त किसान मोर्चा की एक बैठक में यह फैसला किया गया और किसान नेताओं की तरफ से प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसकी घोषणा की गयी। सरकार ने किसानों से बातचीत की अपील करते हुए उन्हें अपनी पसंद की जगह और भी तय करने के लिये उक्त पत्र में कहा था। कृषि कानूनों के खिलाफ पिछले एक महीने से दिल्ली की अलग-अलग सीमा पर हजारों किसान आंदोलन कर रहे हैं और धरने पर बैठे हैं। किसान नेताओं की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्वराज अभियान के योगेंद्र योदव ने बताया कि, ‘हम केंद्र सरकार के साथ 29 दिसंबर को सुबह 11 बजे एक और दौर की बातचीत का प्रस्ताव रखते हैं।’ योगेंद्र यादव के ट्वीट कर के चार बिन्दुओं का एक एजेंडा भी दिया है। एजेंडे के बिंदु इस प्रकार हैं-

● तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए अपनाए जाने वाली क्रियाविधि 

● एमएसपी की कानूनी गारंटी की प्रक्रिया 

● पराली जुर्माना से किसानों को मुक्ति 

● बिजली कानून के मसौदे में बदलाव। 

यह पहली बातचीत नहीं है। बल्कि यह रुकी हुयी बातचीत का अगला कदम है। छह दौर की बातचीत सरकार और किसानों के बीच हो चुकी है, जिसमें सरकार की ओर से कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और रेल मंत्री पीयूष गोयल भाग ले चुके हैं। एक दौर की बातचीत में अमित शाह गृहमंत्री भी शामिल हो चुके हैं। सरकार कुछ संशोधनों के लिये राजी होने की बात कह रही है पर किसान संगठन हर हालत में इन कानूनों को रद्द करने और एक राष्ट्रीय किसान आयोग बना कर कृषि से जुड़ी समस्याओं पर बिंन्दुवार विचार चाहते हैं। अब आगे होता क्या है यह तो 29 दिसंबर को ही पता चल सकेगा। 

किसानों का प्रदर्शन।

किसानों ने कृषि बिल को समझा है या नहीं, या कितना समझा है यह तो मैं नहीं बता पाऊंगा, पर एक बात तय है कि किसानों ने कृषि कानून बनाने वालों के इरादे और नीयत को ज़रूर समझ लिया है। कृषि कानून बनाने वालों का इरादा 2014 से ही एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था बनाने का है जिसमें सब कुछ, सारी सम्पदा कुछ चुनिंदा लोगों के ही हांथों में केंद्रित हो और पूरा समाज बस दो ही खेमे में बंट जाय। एक के पास सब कुछ हो और दूसरे के पास बस उतना ही बचे, जितना की सांस लेने की रवायत निभाई जा सके। जनता जब सत्ता के इरादे को समझ लेती है तो लड़ाई दिलचस्प हो जाती है। 

बात बहुत सीधी है। 

किसान को उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए या नहीं। इस सवाल के उत्तर पर सब राजी होंगे, कि किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए। 

अब उचित मूल्य क्या होगा ? 

उचित मूल्य को ही तय करने के लिये सरकार ने एपीएमसी कानून बनाया है और एक फॉर्मूले के अनुसार, फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार तय और घोषित करती है और फिर उसी मूल्य पर सरकार फसल खरीदती है। क्या सभी किसानों को सरकार द्वारा घोषित एमएसपी की कीमत मिल रही है? 

नहीं। केवल 6% को मिल रही है। यह कहना है शांता कुमार कमेटी का। 

सभी किसानों को उनके फसल की उचित कीमत क्यों नहीं मिल रही है ? क्योंकि मंडी का विस्तार हर जगह नहीं है और किसान निजी व्यापारियों को अपनी उपज बेचने के लिये मजबूर हैं क्योंकि सरकार सब खरीद नहीं पा रही है। 

अब यह कहा जा रहा है कि, सरकार अपने सिस्टम की कमी के कारण किसानों की पूरी उपज खरीद नहीं पा रही है तो सरकार ने यह तय किया कि, किसी भी पैन कार्ड धारक को यह अधिकार दे दिया गया कि, वह किसानों की उपज, एक समानांतर मंडी बना कर खरीद सकता है। लेकिन निजी क्षेत्र की यह समानांतर मंडियां, टैक्स फ्री रहेंगी, जबकि सरकार अपनी मंडी पर टैक्स लेती रहेगी। 

जब निजी मंडियों को यह अधिकार सरकार दे रही है कि, वह अपनी मंडी बना कर फसल खरीद सकती है तो, यह बाध्यता उन निजी मंडी वालों पर क्यों नहीं डाल देती कि फसल की खरीद सरकार द्वारा तय किये गए एमएसपी से कम कीमत पर नहीं होगी ?

इससे कम से कम, किसान इस बात पर तो निश्चिंत हो जाएंगे कि उन्हें कम से कम फसल का न्यूनतम मूल्य तो मिल ही जाएगा, चाहे फसल सरकार खरीदे या निजी कॉरपोरेट। आखिर सरकार, खुद तो न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उपज खरीदती ही है। फिर मनमाना दाम तय करने की कृपा, अधिकार और विकल्प सरकार निजी क्षेत्र को क्यों उपलब्ध करा रही है ? इससे किसानों को क्या लाभ होगा ? क्या निजी क्षेत्र, किसानों के हित मे फसल की कीमतें तय करेंगे या अपने व्यापारिक लाभ के हित में ? इसका सीधा उत्तर होगा कि पूंजीपति पहले अपना लाभ देखेगा। लोक कल्याणकारी राज्य के लिये सरकार प्रतिबद्ध है न कि पूंजीपति। 

आखिर जब सरकार खुद ही एमएसपी पर खरीद कर रही है तो निजी क्षेत्र को भी एमएसपी पर खरीद करने से सरकार क्यों नहीं कानूनन बाध्य कर सकती है? 

इस मुद्दे पर सरकार किसानों के पक्ष में क्यों नहीं खड़ी दिख रही है और क्यों सरकार पूरी निर्लज्जता के साथ चहेते पूंजीपतियों के पक्ष में दिख रही है? क्या यह सवाल आप के दिमाग मे नहीं उठता है ? 

अब सवाल उठता है कि क्या तय किया गया न्यूनतम मूल्य पर्याप्त है या नहीं। इस पर किसान संगठन और कृषि अर्थविशेषज्ञों से सरकार बात कर सकती है। बातचीत स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट और उसके फॉर्मूले पर हो सकती है । पर फिलहाल किसानों को उतना मूल्य तो मिले ही, जितना सरकार ने खुद ही एमएसपी के रूप में तय किया है। 

मेरा मानना है कि 

● एमएसपी और सरकारी खरीद, व्यापक तौर पर हो रहे निजीकरण की ओर बढ़ता हुआ एक कदम है। 

● अधिक नहीं बस तीन चार साल में ही कृषि उत्पादों की खरीद सरकार कम करते करते बंद कर देगी। 

● एमएसपी ज़रूर धूम धड़ाके से हर साल घोषित होगी, पर वह किसानों को मिलेगी या नहीं, इसकी कोई गारंटी सरकार नहीं देने जा रही है। वह इस मामले में कोई भी दबाव या कानून बना कर कॉरपोरेट को बांधने नहीं जा रही है। 

● हालांकि यह बात सरकार बार बार कह रही है कि वह एमएसपी मिले यह सुनिश्चित करेगी। पर सरकार यह सुनिश्चित कैसे कर पायेगी, यह सरकार को भी पता नहीं है।

● किसी एमएसपी जैसे बाध्यकारी प्रावधान के अभाव में, सरकारी मंडी के समानांतर खड़ी कॉरपोरेट मंडी व्यवस्था,  फसलों की कीमत खुद ही बाजार के सिद्धांत से तय करेगा। बाजार में जिसका वर्चस्व होगा वह कीमत तय करेगा और कीमतों को नियंत्रित भी करेगा। किसान यहां न तो एकजुट हो पायेगा और न ही वह अपने पक्ष में कोई सौदेबाजी कर पायेगा। सरकार तो साथ छोड़ ही चुकी है। अब बस जो उसे कॉरपोरेट या निजी क्षेत्र दाम थमा देंगे, उसे लेकर वह घर लौट जाएगा और इसे अपनी नियति समझ कर स्वीकार कर लेगा। 

● एमएसपी पर फसल खरीदने की कोई कानूनन बाध्यता निजी क्षेत्र पर नहीं होगी। अतः निजी क्षेत्र पर कोई कानूनी दबाव भी नहीं रहेगा। रहा सवाल नैतिक दबाव का तो, दुनिया में फ्री लंच नहीं होता जैसे मुहावरे कहने वाले कॉरपोरेट, इन सब नैतिक झंझटों से मुक्त रहते हैं, यह सब टोटके आम जन के लिये हैं। 

● जब कभी किसानों का दबाव पड़े या चुनाव का समय नज़दीक आये तो, हो सकता है तब, सरकार, निजी क्षेत्र से एमएसपी पर खरीद करने के लिये कोई अपील भी जारी कर दे। पर यह सब महज औपचारिकता ही होगी। निजी क्षेत्र का दबाव ग्रुप सदैव सरकार और संसद पर मज़बूत रहता है और इसका कारण इलेक्टोरल बांड और चुनावी चंदे हैं। 

● अब नये कृषि कानून में जमाखोरी को वैधानिक स्वरूप मिल गया है तो, जो जितना बड़ा पूंजीपति होगा, वह उतनी ही अधिक जमाखोरी करेगा और बाजार को अपनी उंगली पर नचायेगा। 

● खेती किसानी करने वाला किसान अपने घर परिवार के लिये तो ज़रूरी अनाज और खाद्यान्न रख लेंगे पर सबसे अधिक नुकसान उनका होगा जो बाजार से अनाज खरीद कर खाते हैं। क्योंकि अनाज की कीमतों पर कोई नियंत्रण सरकार का नहीं रहेगा क्योंकि वे अब आवश्यक वस्तु नहीं रह गयी हैं।

यह खतरा यहीं नहीं थमेगा बल्कि इसका असर देश की कृषि आर्थिकी और कृषि से जुड़ी ग्रामीण संस्कृति पर पड़ेगा। सरकार को फिलहाल तीनों कृषि कानून रद्द करके एक किसान आयोग जिसमें किसान संगठन और कृषि विशेषज्ञों की एक टीम हो, गठित कर के एक व्यापक कृषि सुधार कार्यक्रम के लिये आगे बढ़ना चाहिए। 

प्रधानमंत्री कहते हैं कि किसान कानूनों पर बात फैक्ट्स और लोजिक्स पर बात होनी चाहिये। बात सही है। पर नोटबन्दी से लेकर, आज तक जितने भी कानून बने वे अफरातफरी में ही पारित किए गए और उन्हें सेलेक्ट कमेटी को भी नहीं भेजा गया जहां कि कानूनों की फैक्ट्स और लोजिक्स पर ही बात होती है और मीनमेख देखा जाता है। जो कुछ कमियां होती हैं उन्हें दूर किया जाता है। 

पंजाब में किसानों का प्रदर्शन।

यह तीनों कानून भी संसद से पारित कराने के पहले सेलेक्ट कमेटी को भेजे जाने चाहिए थे, पर उससे हरिवंश जी ने सत्यनारायण बाबा की कथा की तरह पढ़ते हुए ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया। जैसे लगता था कि यही बयाना लेकर वह उस दिन सदन में आये थे। बात तो उस दिन ही फैक्ट्स और लोजिक्स पर होनी चाहिए थी। यह कहा जा सकता है कि सदन में हंगामा हो गया। तब दूसरे दिन सदन इसे बहस के लिये रख सकता था। लेकिन जब रविवार को सदन बैठे और यह संकल्प कर के उप सभापति बैठे कि 1 बजे तक यह काम निपटा ही देना है तो बहस की गुंजाइश तो स्वतः खत्म हो जाती है। इस जल्दीबाजी से तो यही लगता है कि आज ही कानून पारित कराने का किसी से वादा किया गया था, और उसे पूरा कर दिया गया। 

इस जन आंदोलन को लेकर सरकार समर्थक मित्रों और भाजपा का दृष्टिकोण बेहद अलोकतांत्रिक रहा। जन आंदोलन कोई भी हो, किसी भी मुद्दे पर हो, यदि वह शांतिपूर्ण तरह से हो रहा है तो उस आंदोलन का संज्ञान लेना चाहिए, उसकी तह में जाना चाहिए न कि आंदोलन में शामिल जनता को विभाजनकारी आरोपों से लांछित करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह देश का पहला या आखिरी जन आंदोलन है, बल्कि दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में आंदोलन होते रहे हैं और भारत में भी यह अनजाना दृश्य नहीं है । पर किसी भी जनांदोलन के विरुद्ध इस प्रकार का शत्रुतापूर्ण आलोचना का भाव लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं और मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है। 

सरकार ने खुद भी इस आंदोलन को हतोत्साहित करने का प्रयास किया। पहले पुलिस के बल पर रोकने की कोशिश की फिर अपने आईटी सेल के बल पर दुष्प्रचार की फिर विपक्ष पर किसानों को भड़काने और बरगलाने का इल्जाम लगा कर, फिर विदेशी फंडिंग से प्रायोजित आंदोलन बता कर, फिर चहेती मीडिया के बल पर मिथ्या खबरों को प्रसारित कर के। पर आंदोलनकारियों के मनोबल, उत्साह, रणनीति, जनता के सहयोग, सोशल मीडिया द्वारा मिल रही सच्ची खबरों के कारण सरकार अपने मिशन में सफल नहीं हो पायी। हालांकि सरकार इसी बीच बातचीत का सिलसिला बनाये भी रही, पर सजग, सचेत और जागरूक किसान संगठन भी सरकार के झांसे में नहीं आये और वे यह बात समझ गए कि यह तीनों कृषि कानून, किसानमार कानून हैं। 

सरकार का कहना है कि यह कृषि कानून किसानों के हित में हैं। किसान कह रहे हैं कि इससे वे बर्बाद हो जाएंगे। अब सरकार उन कानूनों को रद्द करे और फैक्ट्स और लॉजिक्स पर किसानों को समझाये और यह सब पारदर्शी तरीके से हो न कि गुपचुप तऱीके से इसे लैटरल इंट्री वाले फर्जी आईएएस ड्राफ्ट कर के रख दें और सरकार यह ढिंढोरा पीट दे कि यह कृषि सुधार का एक क्रांतिकारी कदम है। 

यह खुशी की बात है कि प्रधानमंत्री जी को कम से कम यह एहसास तो हो गया कि कानूनों पर फैक्ट्स और लोजिक्स के अनुसार बहस होनी चाहिए। लेकिन यह बहस कानून पारित होने के पहले होनी चाहिए न कि कानून बन जाने के बाद, जब पूंजीपति बोरा, ट्रक, साइलो आदि का जुगाड़ कर लें और जब दिल्ली घिर जाय, 40 किसान ठंड से धरनास्थल पर दिवंगत हो जांय, तो सरकार कहे कि, आओ अब बात करें, फैक्ट्स और लोजिक्स पर !

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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