सार्क देशों के साथ बैठक में तमाम देशों के नेता।

कोरोना से निपटने में भारत पड़ोसी देशों से क्यों रह गया पीछे?

पिछले महीने, 17 जुलाई को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने ट्वीट में यह दावा किया कि कोरोना वायरस के मामले में उनके खुशकिस्मत मुल्क पाकिस्तान ने बेहतर लड़ाई लड़ी है, उनके यहां नए मामलों, गंभीर मामलों और मौतों की संख्या काफी कम हो गई है, जबकि उनके बदकिस्मत पड़ोसी भारत की हालत काफी खराब है। इमरान खान ने यह भी कहा कि पाकिस्तान में कोरोना पीड़ितों का ज्यादा बेहतर ख्याल रखा गया और स्मार्ट लॉकडाउन (केवल हॉटस्पॉट क्षेत्रों में) लगाने के कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दुष्प्रभावित होने से बची रही।

जैसा कि अपेक्षित था, इमरान के उक्त ट्वीट की प्रतिक्रिया में भारत में सत्ता समर्थित मीडिया और सोशल मीडिया में बौखलाहट मच गई। तथ्यों और आंकड़ों को पुष्ट किए बिना ही पाकिस्तान और इमरान खान की ऐसी-तैसी करने में लोग लग गए। इन लोगों के लिए किसी मामले में पाकिस्तान से हेठी बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है भले ही तथ्य साफ-साफ ऐसा ही दिखा रहे हों। समस्या यह है कि इन लोगों को दुनिया में और किसी की सफलता या विफलता को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं है, बस कोई पाकिस्तान की सफलता और भारत की विफलता की चर्चा मत करे।

काफी समय तक तो कोविड को नियंत्रित करने में भारत की विफलता को ढकने के लिए सत्ता-समर्थित मीडिया इस तर्क का सहारा लेता रहा कि इस वैश्विक महामारी में जब अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश तक असहाय हो गए हैं तो भारत की समस्या तो फिर भी उन देशों से काफी कम है। लेकिन धीरे-धीरे एक-एक करके तमाम पश्चिमी देशों में बीमारी के फैलाव पर नियंत्रण कायम किया जाने लगा।

एक पैटर्न साफ-साफ दिख रहा था कि जिन देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा जितना ही मजबूत था, वहां बीमारी पर काबू भी उतनी ही जल्दी पाया गया। साथ ही यह भी देखा गया कि जिन देशों में सत्ता नवउदारवादी नीतियों के प्रबल पैरोकार, लोकलुभावनवादी सनकों वाले नेताओं के हाथों में थी वहां इस महामारी पर काबू पाना उतना ही कठिन साबित हुआ। इन शर्तों पर हमारा नेतृत्व शायद सब पर भारी पड़ा इसीलिए हम काफी तेजी से अन्य सभी को पछाड़ते हुए नंबर 1 की ओर अग्रसर हैं।

5 जुलाई को भारत ने रूस को पीछे छोड़ते हुए अमेरिका और ब्राजील के बाद का नंबर 3 का स्थान ग्रहण कर लिया और तबसे इस स्थान पर विराजमान है। अमेरिका 24 जुलाई को सर्वाधिक दैनिक नए मामलों के शिखर(78586 मामले) को छूकर तबसे ढलान पर है। ब्राजील 29 जुलाई को अपने शिखर(70869 मामले) को छूकर नीचे उतर आया है।

आज इन दोनों ही देशों में दैनिक नए मामले 50 हजार से नीचे दर्ज हो रहे हैं। जबकि भारत 5 अगस्त से ही दुनिया में सर्वाधिक दैनिक नए मामलों वाला देश बना हुआ है। भारत में यह तेजी अभी भी कायम है जबकि यह अमेरिका के सर्वाधिक दैनिक नए मामलों के आंकड़े को भी पार कर चुका है। आज की दर से भारत में हर चार दिन में 3 लाख से भी ज्यादा नए मामले और जुड़ जा रहे हैं। अगर भारत की हालत ऐसी ही बनी रही तो अगले दो हफ्तों में हम ब्राजील से नंबर 2 वाली गद्दी हथिया लेंगे।

यह सब देखते हुए सरकार समर्थित मीडिया ने अब पश्चिमी देशों से तुलना करना ही बंद कर दिया है। लेकिन तुलना करने का दूसरा मोर्चा तो उनके लिए और भी मुश्किल साबित हो रहा है। यों भी तुलना करना पड़ोसियों से ही ठीक रहता है जिनसे जलवायु, भूगोल, जेनेटिक बनावट, जनसंख्या के बीच उम्रवार स्थिति, बीसीजी टीकाकरण आदि की स्थिति लगभग एक समान हो, क्योंकि अक्सर चर्चा की जाती रही है कि इस तरह के मामले कोविड संक्रमण की दर को प्रभावित कर रहे हैं।

भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में कोविड के पहले कन्फर्म मामले नेपाल में 23 जनवरी, श्रीलंका में 27 जनवरी, भारत में 30 जनवरी, पाकिस्तान में 26 फरवरी, बांग्लादेश में 8 मार्च और अफगानिस्तान में 23 मार्च 2020 को मिले। गरीबी, संसाधनों का अभाव, बड़ा अनौपचारिक क्षेत्र तो इन सभी देशों की समस्याएं हैं, फिर भी कोविड से निपटने में दक्षिण एशिया के इन छह बड़े देशों में भारत की स्थिति सबसे खराब रही है। पॉजिटिव मामलों की संख्या तथा मौतों की संख्या और जनसंख्या के अनुपात, दोनों ही रूपों में भारत का प्रदर्शन सबसे बदतर है। 

अगस्त माह में भारत में मामलों और मृत्यु, दोनों की दरें बहुत तेज हो गईं जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश ने जुलाई के अंत तक अपनी तेजी पर काबू पा लिया। श्रीलंका ने जुलाई के अंत तक अपने यहां प्रसार को लगभग बिल्कुल ही रोक लिया। इन सभी देशों में श्रीलंका का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा है। श्रीलंका में 10 जुलाई को सर्वाधिक मामले 300 आए थे लेकिन तबसे न केवल वह अपने यहां कोविड के कुल मामलों को अब तक मात्र 2889 तक सीमित रखने में सफल रहा है, बल्कि वहां 28 अगस्त को नए मामले मात्र 3 आए हैं तथा अब तक कोविड से कुल मौतें मात्र 12 हुई हैं।

अफगानिस्तान में सर्वाधिक नए मामले 5 जून को 915 आए थे, फिर भी वहां कुल संक्रमण 38140 तक ही सीमित रहा है और 28 अगस्त को वहां मात्र 11 नए मामले मिले हैं। वहां कुल मौतें भी मात्र 1402 हुई हैं।

बांगलादेश में कुल संक्रमितों की संख्या 306794 रही है और 2 जुलाई को सर्वाधिक 4019 नए मामलों के बाद घटते हुए 28 अगस्त को 2219 ही नए मामले आए हैं। मौतें भी वहां कुल 4174 ही हुई हैं।

पाकिस्तान में भी कुल संक्रमण अब तक 295372 रहा है। पाकिस्तान ने नए दैनिक मामलों का शिखर 14 जून को ही छू लिया था, जो कि 6825 था, तबसे लगातार घटते हुए नए मामले 28 अगस्त को मात्र 415 रह गए हैं। वहां अब तक कुल मौतें 6284 ही हुई हैं।

नेपाल में नए मामलों की तेजी का दूसरा दौर शुरू हो गया है। वहां कुल संक्रमितों की संख्या तो 36456 और कुल मौतें मात्र 195 ही हैं, फिर भी एक नई तेजी के बाद 27 अगस्त को वहां 1111 नए मामले आए हैं जो अब तक का सर्वाधिक आंकड़ा है।

लेकिन इन सभी देशों के आंकड़े भारत के सामने कहीं नहीं ठहरते। भारत का दैनिक शिखर अभी पता ही नहीं चल रहा कि किस ऊंचाई पर जाकर विराम लेगा जबकि यह अमेरिका के सर्वोच्च शिखर को भी पार कर चुका है। नेपाल को छोड़कर हमारे सभी पड़ोसियों के यहां ग्राफ अपनी ढलान पर है और वहां सामाजिक-आर्थिक गतिविधियां बदस्तूर जारी हैं।

आखिर आर्थिक और राजनीतिक रूप से अपने अन्य पड़ोसियों से बेहतर स्थिति के बावजूद भारत की ऐसी बदतर हालत क्यों हुई? जबकि इन देशों में से केवल श्रीलंका की प्रति व्यक्ति आय भारत से काफी ज्यादा है। दरअसल महामारियों और आपदाओं से निबटने में किसी देश की अर्थव्यवस्था के आकार तथा जीडीपी की विकास दर से भी ज्यादा महत्वपूर्ण कारक वह खर्च होता है जो वह देश अपने यहां स्वास्थ्य, शिक्षा आदि सामाजिक सेवाओं के दीर्घकालिक ढांचों के विकास पर करता है। वैसे तो जीडीपी के प्रतिशत के रूप में स्वास्थ्य सेवाओं पर दुनिया के तमाम देशों की तुलना में भारत में काफी कम खर्च किया जाता है।

दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी के प्रतिशत के रूप में क्यूबा(11.74%) से ज्यादा केवल अमेरिका(17.06%) में खर्च होता है। लेकिन चूंकि अमेरिका ने स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से निजीकरण का रास्ता अपनाया है इस वजह से बीमा कंपनियों तथा अस्पतालों की मिलीभगत के कारण आम आदमी को इसका फायदा नहीं मिल पाता है, इस रास्ते का दुष्परिणाम इस महामारी के दौरान भी दिख रहा है। क्यूबा के बाद फ्रांस (11.31%), जर्मनी(11.25%) और यूनाइटेड किंगडम (9.63%) खर्च करते हैं। इनकी तुलना में भारत का खर्च नगण्य सा (लगभग 1%) लगता है।

इस खर्च के मामले में भारत अपने पड़ोसियों श्रीलंका, नेपाल और भूटान से भी नीचे है। भारत बांग्लादेश से थोड़ा ज्यादा खर्च करता है, परंतु बांग्लादेश ने सरकारी नीति के तौर पर अपने यहां दवाओं की कीमतें काफी नीचे रखी हैं जिसके कारण वहां चिकित्सा खर्च सहनीय हो जाता है जबकि भारत में हम जानते हैं कि दवा कंपनियां कई सौ प्रतिशत मुनाफा कमाने के लिए स्वतंत्र हैं।

महामारी से निपटने के मामले में भारत की इस विफलता और बेचारगी को हम नेतृत्व की विफलता और गलत प्राथमिकताओं से अलग करके नहीं समझ सकते। दुनिया में सबसे कठोर लॉकडाउन लगा कर हमने देश पर बेहिसाब सामाजिक और आर्थिक तबाही थोप दिया। जुलाई 2019 में पाकिस्तान के चालू खाते का घाटा 613 मिलियन डॉलर था। जुलाई 2020 में वहां के चालू खाते में घाटे की जगह 424 मिलियन डॉलर का सरप्लस तैयार हो चुका है। लॉकडाउन लगाने के सवाल पर वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान ने विनम्रता पूर्वक स्वीकार किया था कि हमारे यहां कई जगहों पर एक-एक कमरे में आठ-आठ लोग रहते हैं, अगर हमने लॉकडाउन लगा दिया तो लाखों लोग भूखों मर जाएंगे।

उन्होंने अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता दिया। आज इमरान खान ने खुद को सही साबित कर दिया। वहां कोविड से मौतें भी अब तक मात्र 6284 ही हुई हैं जबकि बीमारी का प्रसार नियंत्रित हो चुका है। दूसरी ओर भारत में अब तक 62713 मौतें हो चुकी हैं और अर्थव्यवस्था का भी बंटाधार हो गया है। कुछ अर्थशास्त्री तो यह तक कह रहे हैं कि पिछले सौ सालों की यह सबसे खराब आर्थिक स्थिति है। 27 अगस्त को वित्तमंत्री ने कम जीएसटी संग्रह के कारण राज्यों को रिजर्व बैंक से कर्ज लेने को कह दिया है। वित्तमंत्री इस आपदा को “ऐक्ट ऑफ गॉड” बता रही थीं।

क्या टैक्स के पुराने ढांचे को तोड़कर जीएसटी का नया, कमजोर और असंगत ढांचा भी “ऐक्ट ऑफ गॉड” था? क्या नोटबंदी की सनक भी “ऐक्ट ऑफ गॉड” थी? नोटबंदी और जीएसटी ने महामारी से पहले ही हमारी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दिया था, जबकि अगर ये सनकें कदाचित सफल हो गई होतीं तो गॉड की जगह खुद की पीठ थपथपाई जाती। अगर कुछ ठीक हो तो इस नेतृत्व की करामात, और बिगड़ गया तो “ऐक्ट ऑफ गॉड”!

किसी भी व्यक्ति में अहंकार और सनक जैसी बीमारियां अपनी कमियों को स्वीकार करने की विनम्रता को खत्म कर देती हैं और बहानेबाजी की प्रवृत्ति पैदा करती हैं। अगर ये बीमारियां किसी समाज के नेतृत्व में आ जाएं तो उसका खामियाजा पूरे समाज को भुगतना पड़ता है। हालत यह है कि जिन पड़ोसियों के साथ तुलना करने में हम अपनी हेठी समझते हैं वही हमारे सामने अपना सीना तान कर चल रहे हैं और हमारे अहंकार का मखौल उड़ा रहे हैं और हम हैं कि अपनी विफलताओं को ताज की तरह सिर पर सजा कर इतरा रहे हैं।

(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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