पत्रकारिता और सत्ता का संबंध: सवाल नहीं, तो पत्रकारिता कहां?

भारत में लोकतंत्र की सफलता इस बात पर भी निर्भर करती है कि पत्रकारिता कितनी स्वतंत्र, निर्भीक और उत्तरदायी है। जब पत्रकार सवाल करते हैं, तो जनता की आवाज़ बनते हैं। जब वे सवाल छोड़कर सत्ता के समीप बैठते हैं, तो पत्रकारिता की आत्मा ही खो जाती है। मोदी सरकार के 11 वर्षों के पूर्ण होने के अवसर पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कुछ चुनिंदा पत्रकारों से निजी भेंट की, जिसमें कोई सवाल नहीं पूछा गया, कोई प्रेस बयान जारी नहीं हुआ और न ही कोई सार्वजनिक संवाद हुआ। यह घटना न केवल पत्रकारिता की गरिमा, बल्कि लोकतंत्र की पारदर्शिता पर भी गंभीर प्रश्न खड़े करती है।

पत्रकार और सत्ता के बीच की नैतिक रेखा

लोकतंत्र में पत्रकार का कार्य महज़ सूचना देना नहीं, बल्कि सत्ता से सवाल करना और जवाबदारी तय करना होता है। यह संबंध सूचनात्मक हो सकता है, मगर निजी नहीं। पत्रकारिता में एक बुनियादी सिद्धांत है- “सत्ता से इतनी नजदीकी न रखा जाए कि वह आपको अपने जैसा बना ले।”

जब पत्रकार सत्ता के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाते हैं, तब उनके सवालों की धार कुंद हो जाती है। ऐसे में पत्रकार सवाल पूछने वाले नहीं, तस्वीर खिंचवाने वाले बन जाते हैं। सत्ता के पास संसाधन, मंच और प्रचार के साधन पहले से ही होते हैं। सवाल है कि पत्रकार यदि उसका हिस्सा बन जाए, तो जनता के पक्ष की आवाज़ कौन बनेगा ?

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: पत्रकारिता और सत्ता का जटिल रिश्ता

भारतीय इतिहास में सत्ता और पत्रकारिता का संबंध हमेशा सरल नहीं रहा है। इसके कुछ उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। 

नेहरू काल: आलोचना की गुंजाइश 

पंडित नेहरू ने पत्रकारिता की स्वतंत्रता का सम्मान किया, हालांकि वे कभी-कभी आलोचना से असहज ज़रूर हो जाते थे। लेकिन, उन्होंने संवाद का रास्ता कभी बंद नहीं किया। चेलापति राव, फ्रैंक मोरेस जैसे संपादकों ने नेहरू की नीतियों की आलोचना की, और उन्हें कभी सत्ता का दमन नहीं झेलना पड़ा।

इंदिरा गांधी का आपातकाल: स्वतंत्रता का दमन

1975 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने मीडिया की स्वतंत्रता पर खुला हमला किया। सेंसरशिप लागू हुई, संपादकों को हटाया गया, और केवल ‘राजकीय सत्य’ को प्रकाशित करने की अनुमति मिली। कई पत्रकार चुप हो गए, लेकिन रघुवीर सहाय या कुलदीप नैयर जैसे कुछ पत्रकारों ने विरोध करते हुए पत्रकारिता की गरिमा बचाई।

1990 का दशक: खोजी पत्रकारिता का पुनर्जन्म

बाबरी विध्वंस, मंडल आयोग, बोफोर्स घोटाले जैसे विषयों पर पत्रकारों ने गहरी रिपोर्टिंग की। यह वह दौर था, जब पत्रकारिता ने जनहित को प्राथमिकता दी। प्रभाष जोशी, एनराम, शेखर गुप्ता जैसे नामों ने सत्ता को बार-बार कठघरे में खड़ा किया।

2014 के बाद का दौर: समीपता का युग

मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद पत्रकारिता में ‘Access Journalism’ का चलन बढ़ा। यह वह स्थिति होती है, जिसमें पत्रकार सत्ता के नज़दीक तो होते हैं, लेकिन सवाल करने में हिचकते हैं, क्योंकि ‘एक्सेस खो जाने का डर’ बना रहता है। टीवी चैनलों पर ‘पक्षीय बहस’, ‘गोदी मीडिया’ जैसे शब्द आम हो गए।

अमित शाह की ‘बिना सवालों’ वाली मुलाक़ात: लोकतंत्र या जनसंपर्क ?

इस वर्ष मोदी सरकार के 11 वर्ष पूरे होने पर अमित शाह ने एक निजी स्थान पर चुनिंदा पत्रकारों को आमंत्रित किया। यह बैठक किसी प्रेस कांफ्रेंस की तरह सार्वजनिक नहीं थी। न तो वहां कैमरे थे, न ही लाइव रिपोर्टिंग, और सबसे महत्वपूर्ण कि कोई सवाल-जवाब नहीं हुआ।

यह मौन मुलाकात कई इशारे करती है 

• चयनित पत्रकारों की मौजूदगी: यह संकेत है कि सत्ता अब संवाद नहीं, सहमति चाहती है।

• प्रश्नों का बहिष्कार: जब किसी राजनीतिक कार्यक्रम में पत्रकार केवल ‘उपस्थित’ हों, प्रश्नवाचक न हों, तो वह पत्रकारिता नहीं, एक औपचारिकता बन जाती है।

• जनता का निष्कासन: लोकतंत्र में संवाद तभी होता है, जब पत्रकार जनता की ओर से सवाल पूछते हैं। जब सवाल नहीं होते, तब जनता की अनुपस्थिति स्वतः सिद्ध होती है।

क्या यह ‘सॉफ्ट सेंसरशिप’ का उदाहरण है?

आज की सत्ता प्रत्यक्ष रूप से पत्रकारों को जेल नहीं भेजती, पर एक नया तरीका अपनाया गया है, उसे ‘सॉफ्ट सेंसरशिप’ के रूप में देखा जाता है, जिसमें:

• विज्ञापन के ज़रिए मीडिया पर दबाव बनाया जाता है,

• चुनिंदा पत्रकारों को एक्सेस और विशेष साक्षात्कार दिए जाते हैं,

• आलोचकों को ‘देशद्रोही’ या ‘एंटी-नेशनल’ कहा जाता है।

इस प्रणाली में सत्ता ‘दबाती नहीं’, ‘लुभाती है’, और पत्रकार सहयोग में चुप हो जाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य: क्या दुनिया में भी ऐसा होता है ?

अमेरिका में राष्ट्रपति नियमित प्रेस कांफ्रेंस करते हैं, जहाँ CNN से लेकर Fox News तक सभी पत्रकार खुले सवाल पूछते हैं। ब्रिटेन में BBC पत्रकार प्रधानमंत्री तक से तीखे सवाल पूछते हैं।

यहां तक कि रूस या चीन जैसे अधिनायकवादी देश भी कभी-कभी मंचीय संवाद का प्रदर्शन करते हैं, ताकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना कम हो। भारत जैसे लोकतंत्र में अगर पत्रकार ‘बिना सवालों’ के मिलते हैं, तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य और पत्रकारिता की आत्मा, दोनों के लिए एक खतरनाक संकेत है।

पत्रकारिता का भविष्य: क्या बचा है सवाल पूछने का साहस?

कई पत्रकार, स्वतंत्र लेखक, या कुछ स्वतंत्र डिजिटल मंच आज भी सत्ता से सवाल कर रहे हैं। परंतु मुख्यधारा की बड़ी मीडिया संस्थाएं अक्सर या तो प्रचार माध्यम बन चुकी हैं या मौन दर्शक बन गयी हैं।

यदि यही प्रवृत्ति रही, तो भविष्य में पत्रकारिता केवल सत्ता की वाहक बनेगी, न कि प्रहरी।

 सत्ता के साथ मौन बैठकों से नहीं, सवालों से बनता है लोकतंत्र 

अमित शाह की पत्रकारों से यह ‘मौन मुलाक़ात’ उस बदलाव का एक प्रतीक है, जिसमें पत्रकारिता सत्ता के करीब तो पहुँच रही है, पर सवालों से दूर होती जा रही है। लोकतंत्र की आत्मा सिर्फ चुनाव से नहीं चलती, वह प्रश्न और उत्तरदायित्व की संस्कृति से जीवित रहती है।

यदि पत्रकारिता सत्ता से नजदीकी बढ़ाकर सवालों का त्याग करती है, तो वह न केवल अपना धर्म भूल जाती है, बल्कि लोकतंत्र की पहली रक्षा पंक्ति भी टूट जाती है।

इसलिए जरूरी है कि पत्रकार यह बार-बार कहें- “हम सत्ता से मिलेंगे नहीं, बल्कि सवाल पूछेंगे।”

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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