यह बात अब पूरी तरह साफ हो चुकी है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भारतीय जनता पार्टी किसी भी चुनाव में न तो सम्मान से जीत सकती है और न सम्मान से हार सकती है। वह जीतने में तो अपनी थू-थू कराती ही है, लेकिन हारने में भी अपनी थू-थू कराने में कोई कसर बाकी नहीं रखती है।
वह चुनाव जीतने के लिए या चुनाव परिणामों में हारने के बाद भी सत्ता पर काबिज होने के लिए किस हद तक गिर सकती है, इसका प्रदर्शन वह कई बार कर चुकी है। लेकिन इस बार तो उसने गिरने के अपने ही रिकॉर्ड को तोड़ दिए।
जम्मू-कश्मीर और हरियाणा विधानसभा के चुनाव में उसने संदिग्ध आतंकवादी और सजायाफ्ता हत्यारे व बलात्कारी का सहारा लेने से भी गुरेज नहीं किया। इन मामलों में चुनाव आयोग और न्यायपालिका ने भी भाजपा की मदद करने में कोई संकोच नहीं दिखाया।
जम्मू-कश्मीर में पिछले छह साल से राष्ट्रपति शासन है, जो कि भाजपा का ही शासन है। अब वहां सुप्रीम कोर्ट के आदेश से विधानसभा चुनाव कराना पड़े हैं, जिसमें भाजपा ने पूरी कोशिश की है कि किसी तरह चुनी हुई सरकार भी उसकी ही बने।
इस सिलसिले में उसने अपने पारंपरिक प्रभाव वाले जम्मू इलाके में तो पूरी ताकत से चुनाव लड़ा है लेकिन कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन को रोकने के लिए उसने परोक्ष रूप से उन ताकतों का सहारा लिया है, जिन्हें वह आतंकवादी और पाकिस्तान परस्त अलगाववादी मानती रही है।
कश्मीर घाटी में भाजपा ने 47 में से महज 19 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतारे हैं। घाटी में कई सीटों पर सांसद इंजीनियर राशिद की पार्टी आवामी इत्तेहाद के उम्मीदवारों ने और कई सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने नेशनल कांफ्रेन्स और कांग्रेस के गठबंधन को कड़ी टक्कर दी है।
ज्यादातर निर्दलीय उम्मीदवार प्रतिबंधित जमात ए इस्लामी से जुड़े बताए जाते हैं। कश्मीर घाटी में कार्यरत कई पत्रकारों का दावा है कि इंजीनियर राशिद की पार्टी और जमात ए इस्लामी से जुड़े निर्दलीय उम्मीदवारों को भाजपा का परोक्ष समर्थन रहा है। भाजपा की ओर से उन्हें चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक संसाधन भी मुहैया कराए गए।
इंजीनियर राशिद आतंकवादियों की आर्थिक मदद के आरोप में गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून यानी यूएपीए के तहत 2019 से जेल में बंद हैं। जेल में रहते हुए ही उन्होंने पिछले दिनों लोकसभा का चुनाव लड़ा था, जिसमें उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हराया था।
लोकसभा की सदस्यता की शपथ लेने के लिए उन्हें बड़ी मुश्किल से थोड़ी देर के लिए जेल से छोड़ा गया था और संसद की कार्यवाही में शामिल होने के लिए दायर की गई उनकी जमानत याचिका खारिज कर दी गई थी। लेकिन अचानक पता नहीं क्या हुआ कि विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों का प्रचार करने के लिए उन्हें जमानत मिल गई।
निचली अदालत ने पहले राशिद को दो अक्टूबर तक की जमानत दी थी क्योंकि एक अक्टूबर को मतदान खत्म हो रहा था। उसके बाद राशिद को जेल जाना था। लेकिन बाद में अदालत ने राशिद की अंतरिम जमानत की अवधि 10 दिन के लिए बढ़ा दी।
अब वे 12 अक्टूबर तक जेल से बाहर रहेंगे। गौरतलब है कि आठ अक्टूबर को हरियाणा के साथ ही जम्मू-कश्मीर के भी चुनाव नतीजे आने वाले हैं। इसीलिए राशिद की जमानत की अवधि बढ़ाई गई है।
दिलचस्प बात यह है कि धन शोधन के मामले में निचली अदालतों से जमानत होते ही केंद्रीय एजेंसियां दौड़ कर ऊपरी अदालतों में पहुंच जाती हैं और जमानत रद्द करवा लेती है। अरविंद केजरीवाल के मामले में ऐसा ही हुआ। लेकिन राशिद को निचली अदालत ने जमानत दी तो एजेंसियां जमानत के खिलाफ ऊपरी अदालत में जाना भूल गईं।
अब इसके बरअक्स हेमंत सोरेन को रख कर देखें। उनकी पार्टी लोकसभा की पांच सीटों पर चुनाव लड़ रही थी और उन्होंने केजरीवाल को प्रचार के लिए मिली जमानत का आधार बना कर प्रचार के लिए जमानत मांगी थी लेकिन उन्हें जमानत नहीं मिली।
केजरीवाल को भी सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दी थी। लेकिन इंजीनियर राशिद को तो निचली अदालत ने ही प्रचार के लिए जमानत दे दी।
सवाल यह भी है कि 20 दिन पहले जब दो अक्टूबर तक के लिए ही जमानत दी गई थी तो अब ऐसा क्या हो गया कि उसे 10 दिन बढ़ा दिया गया? जाहिर है कि चुनाव में अपनी ‘ऐतिहासिक भूमिका’ निभाने के बाद राशिद की जरूरत नतीजों के बाद हो सकने वाली जोड़-तोड़ में भी पड़ सकती है।
माना जा रहा है कि कश्मीर घाटी में चुनाव उलझा हुआ है। राशिद की पार्टी के कई उम्मीदवार और कुछ निर्दलीय भी चुनाव जीत सकते हैं। इससे जम्मू कश्मीर में त्रिशंकु विधानसभा की संभावना बन गई है।
ऐसे में भाजपा को लग रहा है कि वह सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है और जोड़-तोड़ करके सरकार बना सकती है। चुनाव बाद की जोड़-तोड़ में उसे राशिद की जरूरत पड़ सकती है।
इसीलिए आतंकवाद पर जीरो टालरेंस की बात करने वाली भाजपा राशिद की जमानत को लेकर चुप्पी साधे हुए है। अगर राशिद की जरुरत नहीं होती तो केंद्रीय एजेंसियां खासतौर पर एनआईए और ईडी उसकी जमानत रद्द कराने के लिए आकाश पाताल एक कर देतीं, जैसा कि वे दूसरे मामलों में अक्सर करती हैं।
यही बात हरियाणा में बलात्कार और हत्या के अपराध में सजायाफ्ता डेरा सच्चा सौदा के गुरमीत राम रहीम को पैरोल पर मिली रिहाई में भी दिखी।
जिस दिन राशिद की जमानत 10 दिन बढ़ाई गई, उससे एक दिन पहले राम रहीम को पैरोल पर रिहा किया गया। हरियाणा की भाजपा सरकार ने मतदान से चार दिन पहले उसे पैरोल रिहा इसलिए किया ताकि वह अपने सेवादारों के जरिए अपने डेरे से जुड़े लोगों तक राजनीतिक मैसेज पहुंचा सके।
गौरतलब है कि राम रहीम को छह बार पैरोल देने वाले रोहतक की सुनरिया जेल के पूर्व अधीक्षक सुनील सांगवान हरियाणा की चरखी दादरी सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। उन्होंने जिस दिन अपने पद से इस्तीफा दिया उसके तीसरे ही दिन वे भाजपा में शामिल हुए और उन्हें पार्टी ने उम्मीदवार भी घोषित कर दिया।
इसे राम रहीम का जलवा ही कहा सकता है। वैसे भी हरियाणा के भाजपा नेताओं, खास कर पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से राम रहीम की घनिष्ठता किसी से छिपी नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह राम रहीम से मिलने उसके आश्रम में जा चुके हैं।
भाजपा नेताओं से अपने करीबी संबंधों के चलते ही पिछले चार साल में हरियाणा और पंजाब में हर चुनाव के मौके पर राम रहीम पैरोल पर जेल से बाहर आया है।
इस बार राम रहीम को पैरोल पर छोड़ने में सिर्फ हरियाणा की सरकार या रोहतक की सुनरिया जेल का प्रशासन ही शामिल नहीं रहा है, बल्कि अदालत और चुनाव आयोग भी शामिल है।
बताया गया है कि राम रहीम से पूछा गया था कि वह पैरोल क्यों चाहता है, तो उसने पांच कारण बताए, जिन पर अदालत ने चुनाव आयोग को विचार करने के लिए कहा और चुनाव आयोग ने विचार करके पैरोल की मंजूरी दे दी। सोचने वाली बात है कि हमारे देश की अदालतें कितनी भोली हैं और कितना भोला है चुनाव आयोग?
इसी भोले चुनाव आयोग ने बलात्कार और हत्या के दोषी राम रहीम को पैरोल देते हुए तीन शर्तें लगाईं। उसने कहा कि वह राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं होगा, सोशल मीडिया में चुनाव प्रचार नहीं करेगा और हरियाणा में नहीं रहेगा?
क्या यह माना जा सकता है कि राम रहीम ने इन शर्तों को मानते हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया होगा? देश के चुनाव आयोग को छोड़ कर इस धरती पर तो कोई इस बात को नहीं मान सकता।
राम रहीम के आश्रम हरियाणा की सीमा के चारों तरफ हैं। उसे चुनाव को प्रभावित करने के लिए हरियाणा में रहने की जरूरत नहीं है और न सोशल मीडिया मे कोई भाषण देना है। डेरा से जुड़े लोगों तक राम रहीम का संदेश पहुंचाने का अपना तरीका है।
वह प्रवचन के लिए इकट्ठा भीड़ को तो प्रत्यक्ष मैसेज दे ही सकता है लेकिन उसके सेवादार अलग-अलग तरीकों से भक्तों तक संदेश पहुंचाते हैं। इसलिए यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि राम रहीम को जेल से रिहा क्यों किया गया है। यह अलग बात है कि चुनाव आयोग को यह बात समझ में नहीं आई।
लेकिन सवाल है कि क्या राम रहीम हरियाणा के चुनाव को प्रभावित कर पाया होगा? क्या इससे पहले जब भाजपा की सरकार ने उसको छोड़ा तो उसने चुनाव में भाजपा की जीत सुनिश्चित की? अगर ऐसा होता तो इस बार लोकसभा चुनाव से ठीक पहले लगातार दो महीने बाहर रह कर वह भाजपा को बड़ी मदद कर सकता था।
उसे 19 जनवरी 2024 को 60 दिन की पैरोल मिली थी। लेकिन उसके असर वाले इलाकों जैसे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में भाजपा की बुरी दशा होनी थी, तो हो गई। सो, इस बार भी अगर हरियाणा में भाजपा की दुर्गति होनी है तो होगी ही।
लेकिन चुनाव जीतने के लिए बुरी तरह से बेचैन भाजपा के बदन और गले लगे नैतिकता के कपड़े पूरी तरह तार-तार हो गए। चुनाव आयोग के चेहरे पर से तो निष्पक्षता का नकाब बहुत पहले हट गया है, इसलिए वह भी बिना किसी शर्म और संकोच के भाजपा के पक्ष में काम करता है।
बहरहाल, इस बार के चुनाव ने यह साबित किया है कि आतंकवाद का आरोपी हो या बलात्कार और हत्या का दोषी, चुनाव में जरुरत पड़ने पर भाजपा को किसी से भी मदद लेने में कोई शर्म नहीं आती, कोई संकोच नहीं होता।
(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
भाजपा चुनाव जीतने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकती है।