यूपी में बीएसपी को सिरे से खारिज़ करना बड़ी भूल होगी

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यह हकीकत है कि उप्र की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी जीतने की स्थिति में नहीं है, ना ही कोई बड़ा उलटफेर करने में सक्षम दिखती है लेकिन उसे एकदम से खारिज़ कर देना एक बड़ा फैसला होगा। मायावती अपनी तमाम कमियों और गलतियों के साथ इस मृतप्राय होती पार्टी का एकमात्र चेहरा हैं। दलितों में उनके उपेक्षापूर्ण और उदासीन रवैए ने एक निराशा जरूर पैदा की है लेकिन आज भी एक बड़ा वर्ग है जो दलित राजनीति को सिर्फ माया और कांशीराम के चेहरे के रूप में जानता है। वह तमाम अंतर्विरोधों, असहमतियों के बावजूद उनके साथ खड़ा रहता है और रहेगा भी। हालांकि यह सच्चाई है कि बीते सालों में बसपा का एक बड़ा खेमा भाजपा की आक्रामक हिंदू राजनीति के खेल से प्रभावित होकर उसकी तरफ शिफ्ट हुआ है लेकिन उस वर्ग का भी भाजपा से अब मोह भंग हो रहा है। और जैसे जैसे भाजपा की राजनैतिक कलई खुलती जाएगी, यह और स्पष्ट रूप से सामने आएगा।

दूसरी बात यह है कि भाजपा में गया हुआ यह वोटर यदि भाजपा से हटता है तो किस दिशा में जाएगा? जो उप्र की राजनीति से परिचित हैं वह यह बखूबी जानते हैं कि यह वर्ग यदि भाजपा से टूटता भी है तो बहुत कम प्रतिशत है जो सपा के साथ जाएगा। यह दलित और ओबीसी का उप्र का गणित है। यहाँ दोनों का एक साथ आना एक चमत्कार होगा। इसकी एक बानगी सपा -बसपा गठबंधन में दिख भी चुकी है। इससे एक बात और साबित हुई कि नेतृत्व के एक हो जाने से कैडर एक नहीं होता। वहाँ कई छुपे हुए कारक होते हैं जो अपनी भूमिका निभाते हैं। तो यह लगभग स्पष्ट है कि यह भाजपा में गया हुआ दलित वोट यदि वापस भी लौटता है तो सपा उसका विकल्प नहीं होगी।
दूसरा विकल्प कांग्रेस है लेकिन उसकी सांगठनिक कमजोरी एक बड़ा मसला है। यह एक बनी हुई धारणा है कि कांग्रेस  उप्र में जिताऊ विकल्प नहीं है।

इन परिस्थितियों में यदि दलित वोटर भाजपा से टूटता भी है तो बेमन से ही सही, बसपा ही एकमात्र विकल्प बचता है उसके लिए। ऐसे में माया की पार्टी चुनाव भले न जीते, लेकिन समीकरणों पर एक बड़ा  प्रभाव जरूर डालेगी। 

भाजपा ने दलित ही नहीं बल्कि बड़े ओबीसी वर्ग को भी अपनी हिंदू राजनीति से आकर्षित किया है। इसका खामियाजा सपा ने भुगता और उसका जनाधार काफी हद तक सिकुड़ गया। लेकिन सपा की एक ताकत जो बाकी पार्टियों से उसे अलग करती है और लगभग हर जाति और धर्म में एक सॉफ्ट कॉर्नर का काम कर रही है तो वह अखिलेश यादव की सौम्य और विकासवादी नेता की छवि है। हालांकि मैं निजी तौर पर मानता हूँ कि अखिलेश एक समाजवादी आंदोलन के उत्तराधिकारी के तौर पर असफल हो चुके हैं लेकिन वर्तमान राजनीति के अनुसार खुद को ढालते हुए वह रेस में काफी मजबूत हैं।

एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा या तो उप्र में सरकार बनाएगी अथवा वह तीसरे नंबर पर खिसक जाएगी। किसी भी हालत में वह दूसरे नंबर (रनर अप) पर नहीं रहेगी। इस का सबसे बड़ा कारण जातीय और सामाजिक समीकरण हैं जो या तो भाजपा को एकतरफा जीत की ओर धकेलते हैं या फिर रसातल की ओर। बीच का रास्ता उनके लिए संभव नहीं होगा।

सार यह है कि बसपा निष्क्रिय होने के बावजूद बहुत बड़ी भूमिका में होगी। मायावती को वोट अपनी राजनीति के अनुसार नहीं, बल्कि बहुजन आंदोलन के इतिहास और वर्तमान सामाजिक राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार स्वतः हासिल होगा। उसे सिरे से खारिज़ करने का मतलब है उप्र के सामाजिक समीकरणों को खारिज़ कर देना। 

(सत्यपाल सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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