भारत की राजनीति में यह उथल-पुथल का दौर है। 2014 में जिस निश्चित राजनीतिक स्थिरता को लेकर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ आत्म-मुग्ध होते चले गये। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आत्म-मुग्धता को 2024 के आम चुनाव के परिणाम ने भीतर से हिला दिया है।
टूटी हुई आत्म-मुग्धता के टुकड़े बहुत धारदार और नुकीले होते हैं। कई बार ये टुकड़े सामान्य तौर पर साफ-साफ खुद को दिखते भी नहीं हैं। 2024 के चुनाव परिणाम का संदेश क्या सचमुच बहुत बड़ा है? बड़ा है तो कैसे और क्यों? इस कैसे और क्यों के जवाब में ही 2024 के चुनाव परिणाम के महत्व को ठीक-ठीक, वह भी एक हद तक ही, समझना संभव हो सकता है।
आजादी के आंदोलन का लक्ष्य ब्रिटिश राज के राजनीतिक वर्चस्व से मुक्त हो जाना था। इस मुक्ति का अर्थ आत्म-निर्णय का अधिकार हासिल करना था। आत्म-निर्णय के अधिकार का अभाव की पीड़ा से भारत को विश्व-युद्ध में भोगना पड़ा था।
न तीन में, न तेरह में लेकिन भारत विश्व-युद्ध में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर घसीट लिया गया था। ब्रिटिश राज के राजनीतिक वर्चस्व से मुक्त होना एक बात थी और ब्रिटिश राज के माध्यम से फैली विश्व दृष्टि को अपनाने से पीछे हट जाना एक बात थी।
उस समय पूरी दुनिया में बन रही नैतिक विश्व दृष्टि के मानक बनने में ‘ज्ञानोदय’ की अपनी जबरदस्त भूमिका थी। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में उस समय शुरू हुए बहुत सारे समाज सुधार के मूल में ‘ज्ञानोदय’ की सक्रिय प्रेरणा थी।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी जैसे बड़े और महान नेता सभ्य समाज के अनुकूल सामाजिक सुधार की जरूरत सब से ज्यादा महसूस कर रहे थे, लेकिन दोनों की दृष्टि में बुनियादी फर्क था। बाबासाहेब जहां ज्ञानोदय की प्रेरणा को महत्वपूर्ण मान रहे थे।
लेकिन महात्मा गांधी शायद ज्ञानोदय की प्रेरणा से हटकर। ज्ञानोदय की प्रेरणा से भिन्न और भारतीय मानदंड को महत्वपूर्ण मान रहे थे। लेकिन कहना जरूरी है कि ‘भारतीय मानदंड’ का आधार बहुत स्पष्ट नहीं था। सभ्य समाज की अनुकूलता की बात करते हुए सभ्यता की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
भारत में सभ्यता का क्रमिक विकास भिन्न तरह से जरूर हुआ है। इस क्रमिक विकास की कोई एक कहानी नहीं है।
वैश्विक दृष्टि के संदर्भ से इस भिन्नता में श्रेष्ठता, उत्कृष्टता और मानवतावाद का तत्व कैसा और कितना था, इस पर अलग से विचार किया जा सकता है, लेकिन उस के भिन्न होने में शायद ही कोई संदेह हो। महात्मा गांधी जिस नैतिक राष्ट्र की बात पर जोर दे रहे थे उस में मन परिवर्तन पर जरूरत से ज्यादा भरोसा लदा हुआ था।
इतना ही नहीं महात्मा गांधी के नैतिक राष्ट्र में नैतिकता का प्राण अध्यात्म में बसता था। यह ‘लौकिक मामलों’ में ‘पारलौकिक मूल्यों’ को लागू करने की कोशिश जैसा मुश्किल से व्यावहारिक, लगभग अव्यावहारिक विचार था।
ज्ञानोदय के पीछे भौतिकवाद और विज्ञान सक्रिय था जबकि भारतीय ज्ञान परंपरा में भौतिकवाद की जगह परा-भौतिकवाद और विज्ञान की जगह अध्यात्म सक्रिय था।
पूरी दुनिया और जाहिर है कि भारत में भी भौतिकवाद और परा-भौतिकवाद का मूल द्वंद्व हमेशा से सक्रिय रहा है। विज्ञान और उपयुक्त प्रयुक्ति के विकास में मनुष्य जीवन की भौतिक जरूरतों, लालसाओं को संतुष्ट करने की अभूतपूर्व क्षमता अंतर्निहित थी।
दिक्कत यह थी कि विज्ञान-प्रयुक्ति जरूरतों और लालसाओं को संतुष्ट करने तक अपने को सीमित नहीं रखती है, बल्कि मनुष्य जीवन की जरूरतों और लालसाओं को लगातार बढ़ाती भी रहती है। जाहिर है कि संतोष की ऊपरी सीमाओं एवं उपलब्धियों की निचली सीमाओं में अंतर लगातार बढ़ता रहता है।
महात्मा गांधी ने लक्षित कर लिया था कि प्रकृति मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम है लेकिन लालचों और लालसाओं को संतुष्ट नहीं कर सकती है। कहना न होगा कि विज्ञान-प्रयुक्ति कहीं-न-कहीं प्रकृति से टकराव मोल लेती रहती है।
यह टकराव पर्यावरण संकट के रूप में अलग से पठनीय है। यहां मूल बात यह है कि आजादी के आंदोलन के समय से ही भारत बोध की दो स्पष्ट विरोधी धारा निकल रही थी। आजादी के आंदोलन के दौर में एक बड़ा और गहरा सवाल भारत के आत्म-बोध का भी था।
महत्वपूर्ण रूप से महात्मा गांधी जानते थे कि आजादी का मामला ‘जॉन’ की जगह ‘गोविंद’ के बैठ जाने भर का नहीं था। आत्म-बोध के बिना आत्म-निर्णय का अधिकार कितना भ्रामक और विध्वंसक हो सकता है, इसे विश्व-युद्ध के फटते हुए गोलों के धुआं और जान-मारा रोशनी में ब्रिटिश हुकूमत पढ़ पा रही थी।
जाहिर है कि ब्रिटिश हुकूमत की नीति ’ज्ञानोदय’ की अनुकूलता में विकसित भारत के आत्म-बोध के हाथ में भारत के आत्म-निर्णय का अधिकार और शक्ति सौंपने के प्रयास में लगी हुई थी।
भारत विविधताओं और बहुस्तरीय बहुलताओं से समृद्ध देश रहा है। जाहिर है कि भारत बोध का एक-स्तरीय और एकार्थी पाठ अनर्थकारी और विनाशकारी ही हो सकता है। स्वाभाविक ही है कि भारत के आत्म-बोध में काफी जटिलताएं रही हैं।
आज भारत की राजनीतिक परिस्थिति को समझने के लिए आगे बढ़ने की कोशिश करने से पहले जरा ठहर कर उन जटिलताओं को याद कर लेना जरूरी है।
ऐसी जीवंत जटिलताएं बहुत संवेदनशील होती हैं। इन जटिलताओं में नृवंशीय तत्व भी कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी कोशिका में छिपा रहता है और अवसर मिलते ही बाघ की तरह झपट पड़ता है।
इसी तरह की संवेदनशीलताओं का ध्यान नहीं रख पाने के चलते बाल्कनीकरण (Balkanisation) की प्रक्रिया ने जोर पकड़ा था। एकार्थी समझ के कारण पाकिस्तान का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष विखंडन हो गया।
हमारे संवैधानिक पुरखों ने इस संवेदनशीलता का पूरा ध्यान रखा और हम तमाम आशंकाओं के बीच पुराने देश और नये राष्ट्र के रूप में लगातार न केवल टिके हुए हैं, बल्कि आगे बढ़ते रहे हैं।
संवैधानिक पुरखों के अनुभवों और संवैधानिक संवेदनशीलता की उपेक्षा के कारण हमारा राजनीतिक संकट गहरा और सामाजिक न्याय एवं आर्थिक परिस्थिति बदतर और बर्दाश्त से बाहर होती जा रही है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और उस की राजनीतिक शाखा के रूप में भारतीय जनता पार्टी का भारत बोध उस भिन्नता को जीने की कोशिश में लगी रही है। इनके आत्म-बोध का ‘आत्म’ भिन्न है।
राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी अपने भिन्न भारत बोध के साथ वर्तमान और निकट भविष्य में सभ्य और बेहतर सामाजिक और नागरिक जीवन की संभावनाओं को सुनिश्चित करने की तरफ बढ़ने की सकारात्मक और सहमिलानी कोशिश करती तो भिन्न बात होती।
भिन्न भारत बोध को बहुत बड़ा ऐतिहासिक मौका मिला था। लेकिन वर्तमान की भरपूर उपेक्षा के साथ-साथ सुदूर अतीत और सुदूर भविष्य की परिकल्पना के तहत तीन-तिकड़म से स्थाई बहुमत के जुगाड़ में राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी ने ऐतिहासिक अवसर का बेहतर उपयोग करने से चूक गई।
किसी भी बोध और किसी भी परिस्थिति में समानता मनुष्य का जन्म-प्राप्त हक है। अपराजेय बहुमत मिल जाने पर ‘पुराने दिन’ की असमानता आधारित समाज व्यवस्था और राजनीतिक ढांचा की अव्यावहारिक वापसी के लिए भारतीय जनता पार्टी मतांध बनी रही।
यह मतांधता निश्चित रूप से फासीवाद का ही रास्ता पकड़ती है। भारत का लोकतंत्र असल में मतभेद और मत-भिन्नता के चलते संकट में नहीं फंसा था, बल्कि भिन्न दृष्टि की ‘चुनावी तानाशाही’ की जकड़न में जा फंसा था।
2014 से 2024 तक की सत्ता-नीति पर गौर करने से भले ही नया कुछ न मिले, लेकिन भयावह स्थिति के कुछ पुराने संकेत जरूर झलक जायेंगे। उन संकेतों पर चर्चा के लिए यहां न जगह है और न इरादा है। उस पर अलग से विचार किया जा सकता है।
संवैधानिक लोकतंत्र एक आधुनिक सांचा है। आधुनिकता का लक्षण है कि इसमें व्यक्ति और समुदाय के बीच रस्साकशी की स्थिति हमेशा बनी रहती थी। हमारी संवैधानिक व्यवस्था व्यक्ति केंद्रित है जबकि जीवन का अधिकांश समुदाय संपोषित है। हम समाज की जितनी भी बात करें वास्तविक स्थिति यह है कि हम अपने-अपने समुदाय में जीते हैं।
रोजगार और जीवनयापन के अन्य प्रयोजन से समुदाय के बाहर समाज या राष्ट्र के परिसर में आवा-जाही लगी रहती है, लेकिन जीवन के किसी भी औपचारिक प्रसंग से बाहर अपनी स्थिति को समुदाय में ही टटोला जाता है।
आदमी निकट भविष्य में किसी बड़े उद्देश्य के लिए समर्पित होना चाहता है। आजादी के आंदोलन के दौर में वह बड़ा उद्देश्य था, ‘आजादी’। आजादी के बाद समाज निर्माण का सारा दायित्व सरकार या राजनीतिक दलों के हाथ में चला गया। ‘सब कुछ’ इतना औपचारिक हो गया कि सामान्य व्यक्ति की सामाजिक भूमिका ही लुप्त हो गई।
समाज में राजनीति का सक्रिय नैतिक तत्व को गांधीवाद से ताकत मिलती थी। महात्मा गांधी की हत्या से गांधीवाद पर कोई असर नहीं पड़ा ऐसा सोचना गलत होगा।
महात्मा गांधी के न रहने पर गांधीवाद के सपनों का आकाश सिकुड़ता चला गया। गांधीवाद के संकेतों की व्याख्या में राजनीतिक कारणों से मनमानेपन का प्रवेश होगा।
प्रभावी नैतिक तत्व की अनुपस्थिति में गांव-शहर के आभिजात्य का चरित्र अपनी आंतरिकता के अधिकांश में बहुत तेजी से और बेरोक-टोक ढंग से आत्म-केंद्रित होता चला गया। फिर, ध्यान में यह भी रखना चाहिए कि गांव-शहर के आभिजात्य के शक्ति स्रोत में फर्क था।
गांव का आभिजात्य पारंपरिक रूप से भेद-भावमूलक समाज व्यवस्था से शक्ति हासिल कर रहा था। शहर का आभिजात्य प्रगतिशीलता की दुहाई देते हुए राजनीतिक और राजकीय वित्तीय संरचना से प्राण पा रहा था। राजनीति और आभिजात्य की मिलीभगत से ‘सब कुछ’ चल रहा था और उनके ‘हिसाब’ से ‘ठीक-ठाक’ ही चल रहा था।
औपचारिक राजनीतिक और संवैधानिक शक्ति का साथ हर मामले में मिलना संभव नहीं था तो ‘संगठित अपराध’ को प्रश्रय मिलने लगा। ताजा अनुभव तो इस तरह के अपराध की प्रशंसात्मक स्वीकृति मिलने की भी है। सिर्फ धन ही ‘काला’ नहीं होता है, सत्ता भी होती है।
‘काला धन’ और ‘काली सत्ता’ काल्पिनक सुख बड़ा-से-बड़ा होता चला गया। आम नागरिकों के जीवन में सुख के वास्तविक ‘कल्याण’ पहुंचाने के प्रति सत्ता शिथिल हो गई। इस शिथिलता की थोड़ी-बहुत भरपाई ‘लाभार्थी योजना’ से करने की कोशिश भी हुई।
लाभार्थी योजना की कृपाश्रिता और कल्याणकारी योजना की आधिकारिकता (Entitlement) में बहुत फर्क होता है। कृपाश्रिता कभी भी आधिकारिकता के अभाव की भरपाई नहीं कर सकती है।
लोकतंत्र का सब से बड़ा हितधारक आम नागरिक चुप-चाप ‘सब कुछ’ को बर्दाश्त करता रहा। साम-दाम-दंड-भेद किसी-न-किसी प्रकार से अपने और अपनों की भलाई की उम्मीद का धागा पाथे रहा। 2024 के आम चुनाव में अवसर मिलते ही उसने गले की रस्सी बन चुकी उम्मीद के धागों को तोड़ने-तुड़ाने की कोशिश की।
तोड़ने-तुड़ाने की इस कोशिश में कुछ कामयाबी मिली भी, कुछ नहीं भी मिली! इसी कुछ मिलने और कुछ नहीं मिलने में 2024 के चुनाव परिणाम का महत्व छिपा हुआ है।
राहुल गांधी और इंडिया अलायंस के घटक दलों के नेतागण गांव-शहर दोनों तरह के आभिजात्य के आत्म-केंद्रित दंभ को तोड़ने के लिए लोकतंत्र में स्वीकार्य चुनावी औजार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
गांव-शहर के पूर्व संस्कारित-आभिजात्यजन और उनके प्रश्रय में पल रहे प्रशंसनीय लोगों के लिए भी यह स्थिति बहुत ही असहज करनेवाली है।
2024 का चुनाव लोकतंत्र में सत्ता के बदले जाने या नहीं बदले जाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं था। यह चुनाव लोकतांत्रिक मूल्यों के संकट से उबार का चुनाव था। लोकतांत्रिक संकट से कुछ तो उबार हुआ है, लेकिन संकट के ढेर सारे कारण अभी भी सक्रिय हैं।
कारण, विश्लेषण व्याख्या सब अपनी-अपनी जगह ठीक लेकिन इतना तो मानना ही होगा कि हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम से लोकसभा के चुनाव परिणाम के असर और संकेत को कमजोर और फीका जरूर हो गया है।
भारत में लोकतंत्र का असली संकट क्या है! लोकतंत्र विरोधी के हाथ में लोकतंत्र की शक्ति का चला जाना लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट है। यह बात साफ-साफ समझी जानी चाहिए। फिर कहें, यह मतभेद या मत-भिन्नता से निकला संकट ही नहीं है यह संरचनात्मक भिन्नता से उत्पन्न समझ का संकट है।
लोकतंत्र के प्रति भिन्न समझ और लगभग विपरीत भारत बोध और मूल्य-बोध से उत्पन्न संकट है। यह इस लोकतंत्र के एक पक्ष के लिए आपदा है तो अन्य पक्ष के लिए अवसर है।
लोकतंत्र का आधार नैतिकता है। लोकतंत्र का संकट असल में संवैधानिक न्याय के परिप्रेक्ष्य की धूर्त विच्छिन्नता से उत्पन्न नैतिक संकट है। अच्छे और शुखद भविष्य की अदृश्यता का संकट उतना नहीं है, जितना भ्रामक दृश्यता से उत्पन्न संकट है।
धर्म, सभ्यता, संस्कृति में ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में आडंबरीकरण की बलवती होती प्रवृत्तियों के द्वारा लोकतांत्रिक विश्वासों और आस्थाओं के भ्रमाच्छादन से उत्पन्न संकट है; रस्सी में सांप दिखने का नहीं, सांप में रस्सी के दिखने का संकट है। दवा में ही जहर के होने का संकट है।
सबकी दिलचस्पी है कि महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभाओं के चुनाव परिणाम क्या होगे। यह स्वाभाविक भी है। चुनाव परिणाम चुनाव परिणाम जो भी हों, उसे संवैधानिक स्वीकृति मिलेगी ही, मिलनी ही चाहिए। ऐसी उम्मीद की जाती है कि 2025 में जनगणना होगी।
उम्मीद यह भी की जाती है कि जातिवार जनगणना होगी। जातिवार जनगणना का सकारात्मक पक्ष यह है कि इस के निष्कर्ष विभिन्न तरह से समकारक उपाय को आजमाने में मददगार हो सकते हैं। जातिवार जनगणना का एक नकारात्मक पक्ष भी है। भावावेग में बहे बिना जातिवार जनगणना के इस नकारात्मक पक्ष से सावधान रहने की भी जरूरत है।
ध्रुवीकरण की नीति और नीयत में पहचान के आधार पर घेरा बनाने की भयानक प्रवृत्ति होती है। इस भयानक प्रवृत्ति को निष्क्रिय बनाने की बहुत बड़ी चुनौती सकारात्मक सोच के नागरिक समाज के सामने भी होगी।
हिंदुत्व की राजनीति के संदर्भ में भी जातिवार जनगणना पर बार-बार विचार किया जाना चाहिए। सावधानी से समझना होगा कि जातिवार जनगणना हिंदुत्व की राजनीति और रणनीति को जरूर कमजोर कर सकती है। लेकिन जातिवार जनगणना का महत्व इतना ही नहीं है कि वह हिंदुत्व की राजनीति को कमजोर कर दे।
जातिवार जनगणना का लक्ष्य इस से कहीं अधिक बड़ा है। जातिवार जनगणना सामाजिक अन्याय को कम करने या न्याय को सुनिश्चित करने के साथ ही भेद-भावमूलक प्रवृत्ति को समाप्त करने में मददगार हो सकती है। कितनी मददगार हो सकती है! यह इस बात पर निर्भर करेगा कि इसे लागू करने के पीछे का इरादा किस तरह से काम करता है।
भेद-भाव से मुकाबला एक कठिन चुनौती है, भारत के लोकतंत्र को इस चुनौती का मुकाबला साफ नीयत से करना होगा। इस मुकाबला के लिए सारा बोझ यदि राजनीतिक दलों पर छोड़कर नागरिक समाज निश्चिंत हो जाये तो फिर उसी गलती का दोहराव हो जायेगा जिस गलती के कारण आज भारत का लोकतंत्र संकट में फंसा है।
क्या गांव-शहर का नागरिक समाज इस चुनौती से मुकाबला के लिए तैयार है? लोकतंत्र कितना सुरक्षित है, इस सवाल का जवाब नागरिक समाज के जवाब पर निर्भर है। पूरा-पूरी नहीं भी तो महत्वपूर्ण ढंग से जरूर निर्भर है।
तय कार्यक्रम के अनुसार चुनाव परिणाम आयेंगे। परिणाम कुछ भी हो चुनौती तो सामने है। जरूरी है कि नागरिक समाज चुनाव परिणाम को परखे और चुनौती स्वीकार करे!
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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