1970 में अपनी पहली छपी किताब ‘लोह कथा’ की पहली कविता ‘भारत’ में पाश ने लिखा था:
भारत-
मेरे सत्कार का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी इस्तेमाल किया जाए
बाकी सब शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के भाव
खेतों के उन पुत्रों से हैं
जो आज भी दरख्तों के सायों से
वक़्त नापते हैं।
उनके पास पेट के बिना, कोई समस्या नहीं।
वह भूख लगने पर,
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए ज़िंदगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति।
आज जब कोरोना वायरस का हम सब पर कहर ढह रहा है और इतिहास के सबसे लंबे लॉक डाउन को तोड़ते हुए लाखों अप्रवासी मज़दूर घरों की ओर चल पड़े हैं तो विशेष और मध्यवर्गीय जमात के बाशिंदे हैरान हैं की उन लोगों की इतनी बड़ी गिनती है; यह किधर को चल पड़े हैं; इन्हें अक्ल नहीं; यह सरकार का हुक्म नहीं मान रहे। पाश ने लिखा है, ‘यह वो लोग हैं जिनके पास पेट के बिना, कोई समस्या नहीं/ वह भूख लगने पर, अपने अंग भी चबा सकते हैं।’ वह अपने अंगों को चबाते हुए अपने घरों को चल पड़े हैं।
यह बेहद कम मेहनताने पर काम करने वाले लोग हैं जिन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं दी गयी।किसी सरकार ने या राजनीतिक पार्टी ने कभी भी इनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया। राजनीतिक पार्टियां सत्ता की दौड़ में इतनी व्यस्त रही हैं कि अधिकांश ने विचारधारा या आदर्शों को तलांजलि दे दी या सत्ता को आदर्श बना लिया। देश के सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने लोगों के बीच फूट डालने और नफ़रत बढ़ाने का ज़िम्मा अपने सिर ले लिया है। हुज़ूमी-हिंसा करके देश के बड़े अल्पसंख्यक संप्रदाय के लोगों और दलितों को निशाना बनाने वालों का सार्वजनिक तौर पर सम्मान किया गया। नफ़रत भरे नारे लगाने वाले नेता, नायक बन गए और लोगों ने उन्हें उत्साहित करते हुए तालियाँ बजाईं और उन्हें चुनावों में जिताया। लोग बाँटे गए।
उनके लिए अपने धर्म की पहचान यही रह गयी कि वो दूसरे धर्म के लोगों से नफ़रत करें। यह राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने अल्पसंख्यक संप्रदाय के विरुद्ध इतना जहरीला प्रचार किया कि बहुसंख्यक संप्रदाय के लोगों के पास नफ़रत करने के बिना कोई और विकल्प नहीं बचा। खोखले नारों और झूठे वादों के सहारे चुनाव जीते गए। जब लोगों ने चुनावों में किए गए वादों की बाबत पूछा तो इस पार्टी के चोटी के नेता ने कहा कि वो तो चुनावी जुमले थे। इससे ज्यादा सियासी अनैतिकता क्या हो सकती है? यही नहीं, इस पार्टी ने अपने राज में बड़ी गिनती में धर्म की ‘रक्षा’ करने वालों को उत्साहित किया। आज कोरोना वायरस के संकट-काल में यह लोग कहीं नज़र नहीं आ रहे।
देश की मुख्य विरोधी पार्टी ने हार को अपनी होनी समझ लिया है। उसका अध्यक्ष इस्तीफ़ा दे गया और इसके नेताओं के पास टीवी चैनलों और अखबारों के सामने बयान देने के अलावा कुछ नहीं बचा। लोगों को सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध लामबंद करने की जगह इसके नेता सरकारी एजेंसियों से डरके केंद्र की सत्ताधारी पार्टी में जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गए और कइयों ने पार्टी को अलविदा कहते हुए अत्यंत शर्मनाक व्यवहार किया। हाँ, इस पार्टी की मौजूदा सत्ताधारी पार्टी से यह समानता जरूर है कि दोनों ही कॉर्पोरेट घरानों को फ़ायदा पहुँचने की नीति में विश्वास रखती हैं।
देश की वामपंथी पार्टियों ने बिना लड़े ही हार मान ली है।अपने आपको भगत सिंह का वारिस बताने वाली यह पार्टियां अब 23 मार्च को शहीदी दिवस मनाने और बयानबाज़ी के स्तर तक दूसरी पार्टियों को फ़ासीवादी घोषित करने के अलावा और कुछ नहीं करतीं। इन पार्टियों की ट्रेड-यूनियनें सिर्फ़ सरकारी और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों और मज़दूरों तक सीमित हैं। निःसन्देह इन संगठनों का अपना महत्व है पर असंगठित क्षेत्र में काम करते श्रमिकों की बाँह कौन पकड़ेगा? पार्टियों के नेता बताते हैं कि खेत-मज़दूरों के संगठन बनाने में उन्हें काफी दिक्कतें आती हैं क्योंकि यह प्रभाव अभी भी आम है कि किसानों और खेत-मज़दूरों के हित अलग-अलग हैं। समाज में जातिवाद की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
यह पार्टियां अब लोगों से टूट चुकी हैं और इनके नेता अब अपने दफ़्तरों और अखबार की शोभा बढ़ाते हैं। गदर पार्टी, तेलंगाना-विद्रोह, पंजाब का मुज़ारा आंदोलन और अन्य कई शानदार जन-संघर्षों की विरासत संभालने का दावा करने वाली पार्टियों और गुटों के नेता आज कहीं भी अप्रवासी मज़दूरों के साथ बड़े स्तर पर खड़े नज़र नहीं आ रहे। इन पार्टियों और गुटों के कार्यकर्ता स्थानीय स्तर पर जरूरतमंदों की सहायता जरूर कर रहे हैं पर कहीं भी सांगठनिक स्तर पर बड़ी सरगर्मी नज़र नहीं आती। पुराने वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं की ओर से 40 के दशक में बंगाल के अकाल के दौरान निभाई गई बड़ी भूमिका बस याद बनकर रह गयी है।
सिख संप्रदाय में गुरुद्वारों में लंगर की परम्परा ने लोगों को रोटी खिलाने के बड़े स्तर पर प्रबंध किए हैं। सेवा की परम्परा ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। कई और धार्मिक संस्थाओं के पास अथाह पैसा तो है लेकिन उनके पास लंगर की परम्परा ना होने के कारण आवश्यक अनुभव नहीं है। यह वाकया इस सोच को दृढ़ करता है कि सामाजिक भाईचारे की परम्पराएं सामाजिक एकता, तारतम्य और मनुष्यता की भावना को मजबूत करती हैं।
चुनाव के दौरान सियासी पार्टियां और चुनाव जीतने के बाद बनती सरकारें हमेशा अपने देश के लोगों से वायदे करती हैं।70 के दशक में गरीबी मिटाने के दावे किए गए थे और 21वीं सदी के शुरू में सबको रोजगार देने के, लेकिन पिछले छह साल के दौरान किए गए वायदों ने सबको मात दे दी है। देश के महान नेता ने वायदा किया था 2022 तक किसानों की आमदनी दुगनी कर दी जाएगी। अगर 2014 को भी आधार वर्ष मान लिया जाए और 2022 को किसानों की आमदनी दुगनी होने का वर्ष तो निश्चय ही 2019 तक उनकी आमदनी डेढ़ गुना बढ़ जानी चाहिए थी।
अगर इस वायदे और इसे निभाने के भीतर कोई सच्चाई थी तो सरकार ने 2019 तक चुनाव से पहले हर किसान परिवार को 500 रुपये प्रति माह देना क्यों शुरू किया? स्पष्ट है सरकार अप्रत्यक्ष तौर पर यह मान गई है कि किसान की आमदनी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है और वह 500 रुपये प्रति माह की तुच्छ रकम देकर किसानों के वोट हासिल करना चाहती थी। उन किसानों से, कर्ज़ के बोझ के कारण जो लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं।
हर किसान के पास थोड़ी बहुत ज़मीन है और उनके मज़बूत संगठन उनके हक़ में लगातार आवाज़ उठाते हैं। पर भूमिहीन किसान, खेत मज़दूर और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की बाँह पकड़ने वाला कोई नहीं। पाश ऐसे लोगों के बारे में लिखता है:
थके-टूटे जिस्मों को
चिपचिपे दिल के सहारे जोड़ लेते हैं।
परेशानी में ज़ख़्मी शाम का
तपता हुआ मुख चूम लेते हैं
….
जुगनुओं की तरह दरख्तों में फँसकर भटक जाते हैं
हम पर भभक नहीं सकते
कभी सी-सी नहीं करते
बेचैनी का हम आक रोज चबाते हैं
हम भी होते हैं, हम भी होते हैं
पाश ने अधिकांश पंजाब के किसानों और खेत मज़दूरों के बारे में लिखा है। उसकी शायरी में पंजाब के खेतों के बारे में ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ जैसा कोई रोमांचक दृश्य नहीं था बल्कि गावों की ग़रीबी और उससे पैदा हुई ज़लालत और बेग़ानगी का ज़िक्र था। यह ज़लालत और बेग़ानगी महानगरों और बड़े शहरों में असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे मज़दूरों को कहीं ज़्यादा भोगनी पड़ती है। विभिन्न औद्योगिक और व्यापारिक इकाइयों में घरों, होटलों और दुकानों में और कई अन्य जगहों पर काम करते इन लोगों के पास ना तो रहने के लिए घर होता है और ना ही अपने निजी संसार का मान-सम्मान बनाए रखने वाली कोई नई जगह।
अपने घरों से सैंकड़ों मील दूर रह रहे यह मजदूर ज़िंदगी जीने की जगह रोज़मर्रा के बहाव से बच निकलने को ही जीवन समझते हैं। यह वही लोग हैं जो औद्योगिक और व्यापारिक इकाइयों में वक़्त पर पहुँच कर वहाँ का काम शुरू करते हैं और फ़िर अपनी ड्यूटी निभा कर गायब हो जाते हैं। अधिकांश के मालिक यह नहीं जानते की वह कितना बेरौनक़ और मजबूरी भरा जीवन जी रहे हैं। वो लोग और उनकी मजबूरियां कोरोना वायरस के इस दौर में विभिन्न राज्यों में धक्के खा रहे हैं और रोक लिए गए लोग समूहों के रूप में हमारे सामने हैं। इन लोगों और उनके परिवारों के बारे में कुछ तथ्य इस प्रकार हैं:
* इस समय देश के लगभग 4 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषण के कारण अर्ध-विकसित (Stunted) हैं। उनकी कद-काठी, पुट्ठे और समूचा शरीर पूरी तरह विकसित नहीं होगा। लगभग 2.5 करोड़ बच्चों के शरीर बेहद दुर्बल -क्षीण (Wasted) हैं। यह बच्चे बड़े होकर सारी उम्र दुर्बल रहेंगे।
* हर साल लगभग 9 लाख बच्चे पाँच साल की उम्र से पहले ही मर जाते हैं। इनमें से लगभग 1.5 लाख से ज़्यादा बच्चे दस्त लगने से मरते हैं।
* भारत में तपेदिक के कारण लगभग हर साल 2.20 लाख मौतें होती हैं। दुनिया में तपेदिक के मरीजों में से 25 फ़ीसदी भारत में रहते हैं। इनकी गिनती 16 से 20 लाख के बीच है।
* लगभग 19 करोड़ लोगों को रोजाना भर-पेट खाना नहीं मिलता।
यह हैं हमारे लोग, यह है हमारा देश भारत, यह है हमारी असलियत। देश ‘राष्ट्र’ या ‘महानता’ जैसे संकल्पों में नहीं बसता। खानों, कारखानों, खेतों और अन्य काम करने वाली जगहों पर ख़ून-पसीना एक करके रिक्शे, तांगे, ऑटो-रिक्शा, बस-ट्रक चलाते, दफ़्तरों, स्कूलों, कॉलेजों, और अन्य शैक्षणिक, व्यापारिक और औद्योगिक विभागों में काम करते हाड़-माँस के लोग देश हैं। कविता ‘भारत’ में पाश ने कहा था:
…भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबन्धित नहीं
बल्कि खेतों में दायर हैं।
जहां अन्न उगता है
जहाँ सेंधें लगती हैं….
(लेखक स्वराजबीर, कवि, नाटककार, संपादक ‘पंजाबी ट्रिब्यून’। गुरुमुखी से हिंदी का यह अनुवाद देवेंद्र पाल ने किया है।)
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