अप्रैल के पहले सप्ताह में अपनी फेसबुक वॉल पर स्वीडन के बारे में लिखते हुए मैंने कोविड -19 से निपटने के उसके तरीके की प्रशंसा की थी। जब यूरोप का एक बड़ा हिस्सा लॉक डाउन में जा रहा था, उस समय स्वीडन ने अपने नागरिकों पर इसे थोपने से इंकार कर दिया था। उस समय विश्व स्वास्थ संगठन, इम्पीरियल कॉलेज (लंदन) आदि लॉकडाउन नहीं करने पर ‘संभावित’ मौतों के भयावह आंकड़े भी लगातार जारी कर रहे थे, जो अब भी बदस्तूर जारी है। लेकिन स्वीडन ने लॉक डाउन नहीं किया। आज तीन महीने बाद स्वीडन के संबंध में वे सभी अनुमान अतिश्योक्ति साबित हो चुके हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक स्वीडन में 2700 ऐसे लोगों की मौत हुई है, जिन्हें कोरोना का संक्रमण था। वह भी अधिकांश मामलों में ऐसे बहुत बुर्जुग लोगों की, जो पहले से ही किसी अन्य जानलेवा बीमारी से पीड़ित थे
स्वीडन का कहना है कि लोकतंत्र और नागरिक-स्वतंत्रता में विश्वास करने वाले हमारे समाज को इस प्रकार के थोपे हुए बंधन स्वीकार नहीं हैं। आरंभिक सप्ताहों में स्वीडन के इस कदम की दुनिया के प्राय: सभी बड़े मीडिया-हाउसों ने आलोचना की तथा उसे शंका से देखा। कहा गया कि स्वीडन की सरकार अपने बुजुर्गों का जीवन खतरे में डालने की क्रूरता कर रही है।
लेकिन स्वीडन ने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। उसने अपने नागरिकों के विवेक पर भरोसा किया तथा सिर्फ आवश्यक ‘गाइडलाइन्स’ जारी की, जिनमें हाथ धोना और सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षित दूरी बनाए रखने की हिदायतें शामिल थीं।
हालांकि सिर्फ स्वीडन ही नहीं, बल्कि बेलारूस, निकारागुआ आदि अनेक देशों ने भी लॉकडाउन नहीं किया है। तुर्की और ब्राजील के राष्ट्राध्यक्षों ने भी लॉकडाउन को लेकर अलग नज़रिया रखा है। इन अपेक्षाकृत कमजोर देशों की नीतियों को मूर्खता, तानाशाही आदि कहकर खारिज कर देना अपेक्षाकृत आसान है। आज दुनिया भर के मीडिया संस्थानों में इन देशों के राष्ट्राध्यक्षों की क्रूरता और मूर्खता के बारे में ख़बरें प्रकाशित हो रही हैं।
लेकिन दुनिया के सबसे संपन्न, खुश-हाल और 32 नोबेल पुरस्कार विजेताओं को पैदा कर चुके स्वीडन को मूर्ख और तानाशाह कह पाना कठिन है। इसलिए विश्व स्वास्थ संगठन ने भी स्वीडन के मामले पर लंबे समय तक चुप्पी बनाए रखी।
अंतत: 1 मई, 2020 को शर्मिंदा हुए विश्व स्वास्थ संगठन ने ‘किंतु-परंतु’ के साथ स्वीकार किया कि स्वीडन का मॉडल, कोरोना महामारी के मामले में दुनिया के लिए आदर्श हो सकता है। उसके पास इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं था, क्योंकि लॉकडाउन नहीं करने की स्थिति होने वाली ‘संभावित’ मौतों का आंकड़ा स्वीडन में झूठा साबित हुआ था।
इस संबंध में 2 मई को मैंने अपने फेसबुक मित्रों को पुन: इसकी जानकारी दी तो कुछ लोग उन आंकड़ों को दिखाने लगे, जिसमें कहा गया था कि स्वीडन में प्रति-लाख जनसंख्या के हिसाब से कोरोना से मरने वालों की संख्या उसके पड़ोसी देशों की तुलना में ज्यादा है। जबकि कुछ मित्रों का कहना था कि भारत जैसे विशाल और अनुशासनहीन जनता वाले देश में स्वीडन मॉडल लागू नहीं हो सकता।
उन मित्रों के आंकड़े संबंधी सवालों का उत्तर स्वीडन की सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसी के सलाहकार जोहान गिसेके (Johan Giesecke) ने गत 5 मई, 2020 को विश्व प्रसिद्ध मेडिकल-जर्नल ‘द लान्सेट’ में प्रकाशित अपने छोटे से लेख में दिया है। आगे बढ़ने से पहले हम उस लेख को देखेंगे, जिसका अनुवाद मैंने लेखक की अनुमति से किया है।
70 वर्षीय जोहाना गिसेके गिसेके स्टॉकहोम स्थित प्रतिष्ठित मेडिकल यूनिवर्सिटी ‘करोलिंस्का’ में प्रोफेसर रहे हैं। उनकी पहचान विश्व के एक प्रमुख महामारीविद् के रूप में रही है। वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के संक्रामक ख़तरों के लिए रणनीति और तकनीकी सलाहकार समूह के सदस्य भी हैं।
जोहाना गिसेके और उनके सहयोगी एंडर्स टेगनेल स्वीडन की संभावित कोरोना-विजय के हीरो के रूप में उभरे हैं। दुनिया भर के मीडिया संस्थानों में पिछले तीन महीने से उनके वक्तव्य अलग-अलग तरह से उद्धृत किए जा रहे हैं। प्राय: सभी बड़े टीवी चैनल उनके इंटरव्यू प्रसारित कर रहे हैं। टीवी चैनलों पर जोहाना गिसेके की स्पष्टवादिता, आत्मविश्वास और लोकतांत्रिक जीवन-दर्शन देखते बनता है।
लान्सेट में 5 मई, 2020 को ‘ऑनलाइन फर्स्ट’ खंड में प्रकाशित जोहान गिसेके का यह लेख उन तथ्यों, और महामारी के प्रति वैज्ञानिक सोच को सामने लाता है, जिससे हम भारतीयों को अवश्य परिचित होना चाहिए।
जोहान गिसेके के लेख का शीर्षक है – The invisible pandemic (एक अदृश्य वैश्विक महामारी)। उनके लेख का हिंदी अनुवाद निम्नांकित है :
एक अदृश्य वैश्विक महामारी
“ कोरोना वायरस को लेकर हमारे देश स्वीडन की निश्चिंत भाव की नीति से दुनिया के अनेक देश और उनके मीडिया संस्थानों के सदस्य बहुत आश्चर्यचकित हैं। यहां स्कूल और अधिकांश कार्यस्थल खुले हैं और पुलिस-अधिकारी सड़कों पर यह देखने के लिए खड़े नहीं हैं कि बाहर निकलने वाले लोग किसी आवश्यक कार्य से जा रहे हैं, या यूं ही हवा खाने निकले हैं।
अनेक कटु आलोचकों ने तो यहां तक कहा कि स्वीडन सामूहिक-इम्युनिटी विकसित करने के चक्कर में अपने (बुज़ुर्ग) नागरिकों का बलिदान करने पर आमादा है।
यह सच है कि स्वीडन में इस बीमारी से मरने वालों की संख्या हमारे निकटतम पड़ोसी डेनमार्क, नार्वे और फ़िनलैंड से ज्यादा है। लेकिन मृत्यु दर ब्रिटेन, स्पेन और बेल्जियम की तुलना में कम है। (इन सभी देशों में कड़ा लॉकडाउन है-अनुवादक)
अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सख्त लॉकडाउन केयर-होम में रहने वाले बुजुर्गों और अन्य कमजोर लोगों को नहीं बचा पता है। जबकि इस लॉकडाउन को इस कमजोर तबके को बचाने के लिए डिजाइन किया गया था।
ब्रिटेन के अनुभवों की तुलना अन्य यूरोपीय देशों से करने पर यह स्पष्ट होता है कि लॉकडाउन से कोविड-19 की मृत्यु दर में कमी भी नहीं आती है।
पीसीआर टेस्ट और अन्य पक्के अनुमानों से यह संकेत मिलता है कि स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में 5 लाख से अधिक लोगों को कोविड का संक्रमण हो चुका है, जो कि स्टॉकहोम की कुल आबादी का 20 से 25 फीसदी है (हैनसन डी, स्वीडिश पब्लिक हेल्थ एजेंसी , निजी संचार)।
इन में से 98-99 प्रतिशत या तो इस बात से अनजान हैं या फिर अनिश्चित हैं कि उन्हें कोरोना का संक्रमण हुआ है। इनमें से कुछ ही ऐसे थे, जिनमें कोरोना की बीमारी का कोई मुखर लक्षण था; और जिनमें ऐसा लक्षण था भी वह भी इतना गंभीर नहीं था कि वे अस्पताल जाकर जांच करवाने की जरूरत महसूस करते। कुछ में तो कोई लक्षण ही नहीं था।
अब तो सीरोलॉजी-टेस्ट से भी उपरोक्त तथ्यों की ही पुष्टि हो रही है।
इन तथ्यों ने मुझे निम्नलिखित निष्कर्षों तक पहुँचाया है।
(दुनिया के) सभी लोग कोरोना वायरस के संपर्क में आएंगे और अधिकांश लोग इससे संक्रमित हो जाएंगे।
कोविड -19 दुनिया के सभी देशों में जंगल की आग की तरह फैल रहा है। लेकिन हम यह नहीं देख रहे हैं कि अधिकांश मामलों में इसका संक्रमण नगण्य या शून्य लक्षण वाले कम उम्र के लोगों से अन्य लोगों में होता है। जिन अन्य लोगों को यह संक्रमण होता है, उनमें भी इसके नगण्य लक्षण ही प्रकट होते हैं।
यह एक असली महामारी है, क्योंकि यह हमें दिखाई देने वाली सतह के नीचे-नीचे चल रही है। शायद कई यूरोपीय देशों में अब यह अपने चरम पर है।
ऐसे काम बहुत कम हैं, जो हम इसके प्रसार को रोकने के लिए कर सकते हैं। लॉकडाउन गंभीर मामलों को थोड़ी देर के लिए रोक सकता है, लेकिन जैसे ही एक बार प्रतिबंधों में ढील दी जाएगी, मामले फिर से प्रकट होने लगेंगे।
मुझे उम्मीद है कि आज से एक वर्ष पश्चात् जब हम हर देश में कोविड -19 से होने वाली मौतों की गणना करेंगे तो पाएंगे कि सभी के आंकड़े समान हैं, चाहे उन्होंने लॉकडाउन किया हो, या न किया हो।
कोरोना के संक्रमण के ग्राफ का वक्र समतल (flatten the curve) करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए, लेकिन लॉकडाउन तो मामले की गंभीरता को भविष्य में प्रकट होने के लिए सिर्फ आगे धकेल भर देता है। लॉकडाउन से संक्रमण को रोका नहीं जा सकता।
यह सच है कि देशों ने इसके प्रसार को धीमा किया है, ताकि उनकी स्वास्थ्य प्रणालियों पर अचानक बहुत ज्यादा बोझ न बढ़ जाए, और हां, इसकी प्रभावी दवाएं भी शीघ्र ही विकसित हो सकती हैं, लेकिन यह महामारी तेज है, इसलिए उन दवाओं का विकास, परीक्षण और विपणन शीघ्र करना होगा।
इसके टीके से भी काफी उम्मीदें हैं। लेकिन उनमें अभी लंबा समय लगेगा और इस वायरस के संक्रमण के प्रति लोगों के इम्यूनतंत्र की अस्पष्ट प्रतिक्रिया (unclear protective immunological response to infection) के कारण, यह निश्चित नहीं है कि टीका प्रभावी होगा ही।
सारांश में कहना चाहूंगा कि कोविड : 19 एक ऐसी बीमारी है, जो अत्यधिक संक्रामक है और समाज में तेजी से फैलती है। अधिकांश मामलों में यह संक्रमण लक्षणहीन होता है, जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जाता, लेकिन यह गंभीर बीमारी का कारण भी बनता है, और यहां तक कि मृत्यु का भी।
हमारा सबसे महत्वपूर्ण कार्य इसके प्रसार को रोकने की कोशिश करना नहीं होनी चाहिए। यह एक निरर्थक कार्रवाई होगी। इसकी जगह हमें इस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि इसके शिकार हुए दुर्भाग्यशाली लोगों की अच्छी देखभाल कैसे की जाए। ”(-जोहाना गिसके. द लासेंट, ऑनलाइन फर्स्ट, 5 मई, 2020)
दरअसल, सवाल न जनसंख्या का है, न ही जनता के कथित तौर पर अनुशासनहीन होने का है। सवाल उस राजनीतिक संस्कृति का अवश्य है, जिसके तहत जनता को सरकार का गुलाम समझा जाता है। यह उस जीवन-दर्शन के कारण है, जिसके तहत मनुष्य को विवेकशील, आजाद, स्वाभिमानी और परदुखकातर माना जाता है, जो कि वह मौलिक रूप से है।
अन्यथा, अनेक अन्य छोटे देशों ने लॉकडाउन कर रखा है। यह जनसंख्या और क्षेत्रफल का सवाल है ही नहीं। स्वीडन के छोटे पड़ोसी देशों में भी लॉकडाउन है। अगर, कम जनसंख्या वाले देशों को लॉकडाउन की आवश्यकता नहीं है तो छोटे-छोटे लातिन अमेरिकी देशों में लॉकडाउन को लागू करने के लिए पुलिस अपनी जनता पर आँसू गैस के गोले क्यों छोड़ रही है? कथित सभ्य और अनुशासित जनता वाले यूरोपीय देशों ने भी लॉकडाउन तोड़ने वालों के लिए लंबी अवधि की जेल और भारी-भरकम जुर्माने का प्रावधान क्यों किया है?
यह तकनीकी-टोटकों की बजाय वास्तविक वैज्ञानिक सोच का भी मामला है। साथ ही, विज्ञान पर टेक्नोक्रेटों, व्यापारियों और बिल मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन जैसे पृथ्वी के हर मनुष्य को वैक्सीन दिए बिना चैन से न बैठने का प्रण लेने वाली सनकी परोपकारिक संस्थाओं के कब्ज़े के प्रयास के सफल होते जाने का मामला है। स्वीडन ने अपनी वैज्ञानिक-चेतना को इनसे बचाए रखने में सफलता पाई है। इसके लिए स्वीडन की सरकार, जोहाना गिसेके और एंडर्स टेगनेल जैसे लोग ही नहीं, स्वीडन की महान जनता भी बधाई की पात्र है।
…
(पिछले दो दशक से आलोचना व पत्रकारिता में सक्रिय प्रमोद रंजन की दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन में रही है। रंजन इन दिनों असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में प्राध्यापक हैं। ‘साहित्येतिहास का बहुजन पक्ष’, ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’, ‘महिषासुर : मिथक व परंपराएं’ (संपादित) और ‘शिमला-डायरी’ (संस्मरणात्मक कोलाज) उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं।)
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