नाटककार गुरशरण सिंह जनवादी रंगमंच के पितामह थे। उन्हें सब प्यार से ‘भा जी’ (भाई साहब) कहते थे। वह दोज़ख के खौफ से इबादत करने वालों में से नहीं थे, नास्तिक थे। उन्हें यकीन नहीं था कि दुआ की ओक से ख़ुदा की मोहब्बत का जाम पिया जा सकता है। अलबत्ता उन्हें पक्का यकीन था कि अगर आज हम दरियाओं का रुख़ मोड़ सकते हैं तो जिंदगी के रुख़ क्यों नहीं मोड़ सकते? समाज के रुख़ क्यों नहीं मोड़ सकते? इसी यकीन से उनके जिस्म का रोम-रोम भरा हुआ था और यह बात उनके आलेखों को पढ़कर या नाटकों को देखकर बड़ी आसानी से समझी जा सकती है।
मैं उन खुशनसीब लोगों में से एक हूँ जिन्हें जिंदगी का एक खूबसूरत हिस्सा गुरशरण सिंह जैसी रौशन ख़्याल शख़्सियत के साथ बिताने का मौका मिला। उन्हें लेखक, संपादक या नाटककार के तौर पर तो सारी दुनिया जानती है लेकिन उनकी शख़्सियत का एक पहलू ऐसा भी है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।
यह 80 के दशक की बात है। तब उन्होंने देश के अनेक सांस्कृतिक संगठनों के साझे मंच के तौर पर गठित हुए जन संस्कृति मंच (जसम) के अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी संभाल ली थी। दिल्ली में हुए जसम के स्थापना समारोह पर उनकी मुलाक़ात कॉमरेड नागभूषण पटनायक से हुई। कॉमरेड नागभूषण को फाँसी की सज़ा सुनाई जा चुकी थी। इलाज के लिए पेरोल पर रिहा होकर उन दिनों वह बाहर आए हुए थे। कॉमरेड नागभूषण के जिंदगी पर आधारित मराठी उपन्यास ‘थैंक यू मिस्टर ग्लाड’ का पंजाबी नाट्य रूपांतर ‘परबतों भरी मौत’ गुरशरण जी के पसंदीदा नाटकों में से एक था। कॉमरेड नागभूषण और गुरशरण जी एक बात पर सहमत थे कि ना सिर्फ जनवादी सांस्कृतिक संगठनों की एकता जरूरी है बल्कि तमाम क्रांतिकारी संगठनों का भी साझे न्यूनतम कार्यक्रम पर एक साझा मोर्चा होना चाहिए।

पंजाब लौटते ही गुरशरण जी ने ‘इन्क़लाबी एकता मंच’ की घोषणा कर दी। उन दिनों इन्क़लाबी बहुत सारे छोटे-छोटे गुटों में बिखरे हुए थे। तब देश भर में ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लास्नोस्त’ पर बहस-मुबाहिसा फ़ैशन में था लेकिन पंजाब में कोई भी कॉमरेड ( चाहे वह पुल्लारेड्डी वाला हो, नागीरेड्डी वाला, सराफ़ वाला या कोई भी और) आपके हाथों से चाय का प्याला पीने को तैयार नहीं था जब तक आप उसे ‘चीन के इन्क़लाब/पूंजीवाद’ या ‘भारतीय बुर्ज़ुआज़ी’ जैसे अनेक प्रश्नों पर अपनी स्थिति स्पष्ट न कर दें। अपने प्यारे ‘भा जी’ गुरशरण जी का सभी इतना सम्मान करते थे और किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनके सामने किन्तु-परन्तु या इस तरह का कोई भी सवाल खड़ा कर दे। लेकिन उन तमाम राजनीतिक दलों के ईमानदार कार्यकर्ताओं के भीतर खुशी की लहर दौड़ गयी।
मुझे उनके इस ‘इन्क़लाबी एकता मंच’ के प्रयोग से कोई ज्यादा उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। खालिस्तानी हिंसा अपने चरम पर थी। स्वर्ण-मंदिर के प्रवेश-द्वार पर भिंडरावाले के खिलाफ़ ‘हिट-लिस्ट’ जैसे नाटक खेल कर वह पहले ही ‘हिट-लिस्ट’ पर थे। जैसा आजकल कोविड-19 का खौफ है उस समय आम लोग एके-47 से खौफ़ज़दा थे, और इन्क़लाबी निशाने पर थे। जब मैंने उन्हें ‘इन्क़लाबी एकता मंच’ की सफलता पर अपना संदेह व्यक्त किया तो उनका शब्दशः यही जवाब था: ‘बेशक मैंने अभिव्यक्ति के लिए कला चुना है लेकिन मैं बुनियादी तौर पर एक राजनीतिक आंदोलन का ही व्यक्ति हूँ। 1944-45 से मैं कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ा हुआ हूँ और अपनी योगिता और सामर्थ्य के मुताबिक मई इस आंदोलन में अपना सहयोग देता रहा हूँ।

सीपीआई में मैं 1977 तक रहा। पर जब मैंने देखा कि सीपीआई अब काँग्रेस के साथ यूनाइटेड फ्रंट और समझौतों में पड़ गयी है और उसका जो इन्क़लाबी मिशन है उसमें धुंधलापन आ गया है तो उससे मैं अलग हो गया। उस समय मैं नक्सलबाड़ी के किसान बगावत के साथ भी जज़्बाती तौर पर जुड़ चुका था। यह भी सच है कि एक सरकारी मुलाजिम होने के नाते मैं खुले तौर पर राजनीतिक काम नहीं कर सकता था। इसलिए मैं नाटकों के जरिये अपना काम करता था।
जब 1975 में एमेर्जेंसी लगी और अपने नाटकों के कारण मैं नौकरी से बरख़ास्त कर दिया गया और गिरफ़्तार कर लिया गया। उस समय ही स्पष्ट हो गया था और मैंने तय कर लिया था कि मुझे राजनीति में ही आगे बढ़ना है। फिर मैंने कई राजनीतिक दलों के सांस्कृतिक संगठनों के साथ मिलकर पंजाब लोक सभ्याचारक मंच (पलस मंच) का गठन किया। जो सबका साझा मंच था। … पलस मंच ने मुझे यह आत्मविश्वास है कि राजनीतिक क्षेत्र में भी ऐसे केंद्र बनाए जा सकते हैं।’

कार्यकर्ता सब तैयार थे लेकिन इन्क़लाबी नेता तैयार नहीं थे। कई नेता मारे जा रहे थे। सांप्रदायिक हिंसा और राजकीय हिंसा के विरोध के सवाल ने इन्क़लाबी और तोड़े। कोई इन्क़लाबी संगठन निजी हथियार खरीदने चल पड़ा। कोई इन्क़लाबी ‘सिक्ख राष्ट्रवाद’ के नाम पर खलिस्तानियों से जा मिला। ‘भा जी’ गुरशरण सिंह अमृतसर से चंडीगढ़ आ गए। अपने नाटकों के जरिये उन्होंने अंतिम सांस तक जन-चेतना की मशाल जलाए रखी।
उनकी बेटी नवशरन उन्हें इन शब्दों में याद करती हैं: ’16 सितंबर, 2011 की बात है। चंडीगढ़ में सुचेतक रंगमंच के सालाना गुरशरन सिंह नाट्य उत्सव का पहला दिन था। उस दिन कार्यक्रम समापन होने के बाद हॉल तालियों से गूंज रहा था। इस दौरान माइक ‘भा जी’ के हाथ में पकड़ा दिया गया। हॉल में पूरी तरह से खामोशी हो गयी। दर्शक शायद साँसे भी आहिस्ता-आहिस्ता ले रहे थे कि कहीं ‘भा जी’ की आवाज़ सुनने में ख़लल ना पड़े। वह अपनी व्हील चेयर पर थे, बहुत कमजोर, यह अलविदा कहने से 10 दिन पहले की बात है। और फिर हॉल की ख़ामोशी को तोड़ती हुई उनकी आवाज़ गूंजी- “असीं ज़िंदा हाँ” (हम ज़िंदा हैं)। तीन शब्द और उन्होंने माइक रख दिया। वह शब्द आज भी दिमाग में गूँजते हैं’।
मुझे लगता है ‘इन्क़लाबी एकता मंच’ का गठन करके उन्होंने जो शहीद भगत सिंह के सपनों वाले भारत का सपना देखा था वह तभी पूरा होगा और फ़ासीवाद को तभी मात मिलेगी जब सब जनवादी शक्तियाँ एक साथ मिलकर उनकी इस आखिरी घोषणा को दोहराएंगी – ‘हम ज़िंदा हैं’।
(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल लुधियाना में रहते हैं।)