वित्त सचिव सुभाष गर्ग को केंद्र में रख कर शुरू हुए विवादों का जो चारों ओर से भारी शोर सुनाई दे रहा है, वह इतना बताने के लिये काफी है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था और वित्त-प्रबंधन के केंद्रों पर अब पूरी तरह से ऐसी राष्ट्र-विरोधी ताक़तों का क़ब्ज़ा हो चुका है, जो इस अर्थ-व्यवस्था के पूरे ताने-बाने के परखचे उड़ा देने के लिये आमादा हैं। सुभाष गर्ग ने अपने जाने के दो दिन पहले ही क्रिप्टो करेंसी अर्थात् डिजिटलाइजेशन के ज़रिये आभासित मुद्रा के चलन के बारे में सरकार की ओर जो रिपोर्ट पेश की थी, उसमें भारतीय अर्थ-व्यवस्था की समूची गति-प्रकृति के बारे में बिल्कुल रियल टाइम में साम्राज्यवादियों को सारी सूचनाएं उपलब्ध कराने की पक्की-पुख़्ता व्यवस्था की पुष्टि की गई थी । अर्थात् कहा जा सकता है कि पूरी की पूरी भारतीय अर्थ-व्यवस्था को एक झटके में डाइनामाइट से उड़ा देने के लिये हर कोने में तारों का संजाल बिछा देने की बात को स्वीकृति दे दी गई थी।
सरकार के साथ मिल कर रिजर्व बैंक के सरकार के पिट्ठू गवर्नर शक्तिकांत दास यह काम कुछ पर्दादारी के साथ करना चाहते थे। इसीलिये वे यह झूठ कह रहे थे कि डिजिटल करेंसी का यह ताना-बाना ऐसा होगा जिसमें भारतीय अर्थ-व्यवस्था में लेन-देन के सारे डाटा यहीं से शुरू होकर यहीं पर ख़त्म हो जायेंगे, अर्थात् उन आंकड़ों के सूत्र किसी विदेशी शक्ति के हाथ नहीं लगेंगे। सुभाष गर्ग ने अपनी रिपोर्ट में इस प्रकार की स्थानीय स्तर तक ही सीमित रह जाने वाली ब्लाक चेन प्रणाली को एक असंभव साध्य बता कर उस पर से पर्दा उठा दिया और कहा कि आज की दुनिया में डाटा रखने की कोई भी ब्लाक चेन अनिवार्य तौर पर वैश्विक होगी। इसे स्थानीय स्तर पर सीमित रखने की बात एक कोरा भ्रम, बल्कि धोखा है ।
सुभाष गर्ग का कहना था कि इस प्रकार के डिजिटलीइजेशन की सच्चाई को समझ लेना चाहिए और इसी के आधार पर इस पर अमल किया जाना चाहिए। सुभाष गर्ग के इस साफ़ कथन से सरकार के सभी हलकों के कान खड़े हो गये । सबको अब इस प्रणाली के भयानक ख़तरे की सूरत साफ़ दिखाई देने लगी । यद्यपि सुभाष गर्ग इसे जान कर भी इस पर अमल के लिये, अर्थात् आभासी मुद्रा को अपनाने के लिये बल दे रहे थे । लेकिन अन्य अनेक लोगों के लिये यह साफ़ था कि यह तो समझ-बूझ कर ज़हर पीने की तरह होगा । इसी से मची अफ़रा-तफ़री में सबसे पहले सुभाष गर्ग को ही भाग जाना पड़ा। आगे अब इस डिजिटलाइजेशन प्रकल्प का क्या स्वरूप होगा, जो हमारे प्रधानमंत्री का सबसे प्रिय सपना माना जाता है, इसके बारे में किसी के पास कोई साफ़ समझ नहीं है । सरकार के अर्थ विभागों में एक दमघोंटू सन्नाटा पसर गया है ।
इसका सीधा असर अर्थ-व्यवस्था में भारी मुर्दानगी के रूप में भी दिखाई देने लगा है । सोवरन बांड की स्कीम को जो संजीवनी बूटी की तरह प्रयोग में लाने की कल्पना कर रहे थे, वे भी अभी इसका प्रयोग करें या न करें की दुविधा में फंस गये हैं । इसके बिना उन्हें जीने का रास्ता नहीं दिख रहा है और इसके साथ भी डूबने की स्थिति साफ़ है । नोटबंदी और जीएसटी के ज़रिये हमारी अर्थ-व्यवस्था को जिस प्रकार पंगु बना दिया गया है, उसमें मोदी जी का डिजिटलाइजेशन जले पर नमक रगड़ने का काम कर रहा है । इसमें सोवरन बांड का कोरामीन कितना और कब तक असरदार रहेगा, इसके बारे में भी संशय ही संशय है । यह महासंशय की स्थिति अर्थ-व्यवस्था के पतन की गति को तेज़ से तेज़ से तेजतर करती जा रही है। पता नहीं यह पतन कहां जाकर थमेगा।
(अरुण माहेश्वरी वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं और आजकल कोलकाता में रहते हैं।)
+ There are no comments
Add yours