झारखंड: माॅनसून की बेवफाई से धान की उपज पर ग्रहण, मोटे अनाजों की ओर लौट रहे किसान

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चाईबासा, झारखंड। पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन का शिकार हो रहा है। वर्षा कम हो रही है और जल संकट बढ़ता जा रहा है। झारखंड में भी इसका असर दिख रहा है। कम वर्षा के चलते झारखंड में खरीफ में धान की उपज कम होने की आशंका बढ़ती नजर आ रही है। ऐसे में राज्य के किसानों को अपनी वर्षों पुरानी खेती, मड़ुआ, बाजरा, गोंदली, कोदवा जैसे मोटे अनाजों की ओर लौटना पड़ रहा है, जिसे बीज की दुकानों पर हो रही खरीदारी में देखा जा रहा है।

बताते चलें कि पश्चिमी सिंहभूम जिले के चाईबासा में मानसून की रुखाई से खरीफ की खेती सुस्त पड़ी है। जहां क्षेत्र के 1,06,488 हेक्टेयर खेतों में धान के बीज की छिंटायी का काम पूरा कर लिया जाना था, वहीं अब तक 1,645 हेक्टेयर में ही धान का बीज छींटा जा सका है। जबकि पिछले सालों में जून माह के दूसरे सप्ताह में ही खेतों में धान की छिंटायी लगभग पूरी कर ली जाती थी। पिछले साल यहां मई में ही 85.1 मिली मीटर बारिश हुई थी, जो औसत से 23.6 मिमी ज्यादा थी, जबकि इस वर्ष अब तक मात्र 33 मिमी ही बारिश हो पायी है, जो औसत से 28.5 मिमी कम है। इसे लेकर किसानों की चिंता बढ़ गयी है। यही हाल लगभग पूरे राज्य का है।

ऐसे में इस खरीफ मौसम में कृषि विभाग का भी मुख्य फोकस मोटे अनाजों की खेती कराने की ओर है। बताते चलें कि गुमला जिला में कम बारिश को देखते हुए खरीफ फसल के मोटे अनाजों में मड़ुआ, ज्वार, बाजरा और गोंदली की खेती को प्रोत्सहित करने हेतु जिला प्रशासन द्वारा मड़ुआ की खेती 10 हजार हेक्टेयर भूमि पर कराने की तैयारी की गई है। वहीं अन्य मोटे अनाज ज्वार, बाजरा और गोंदली की भी खेती कराने पर भी विशेष रूप से कार्य किया जा रहा है।

बुवाई के लिए खेत तैयार करता किसान

जिला कृषि विभाग की मानें तो इस वर्ष गुमला जिला समेत पूरे झारखंड राज्य में कम वर्षा होने की संभावना है। जिससे खरीफ फसलों की खेती पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। जिसे ध्यान में रखते हुए मोटे अनाजों की खेती को बढ़ावा देने पर कार्य किया जा रहा है। क्योंकि मोटे अनाजों की खेती कम पानी में भी की जा सकती है।

बीज-खाद दुकानों से जहां पहले किसानों द्वारा धान के बीज की खरीदी अधिक होती थी, अब धान के बीज सहित मक्का, ज्वार, बाजरा, अरहर, उरद, मूंग, मूंगफली, तिल समेत अन्य खरीफ फसलों के बीजों की खरीदारी कर रहे हैं।

जिला कृषि पदाधिकारी (डीएओ) अशोक कुमार सिन्हा ने मौसम के पूर्वानुमान के आधार पर अधिक से अधिक किसानों को मड़ुआ, ज्वार, बाजरा और गोंदली की खेती करने की अपील की है। उन्होंने कहा कि कम बारिश की स्थिति में धान के आच्छादन की संभावना कम है। मॉनसूनी बारिश की कमी के कारण धान की खेती प्रभावित होगी। इससे बेहतर है कि किसान मोटे अनाजों की खेती पर फोकस करें। ताकि धान में होने वाले नुकसान की भरपाई मोटे अनाजों से की जा सके। बता दें कि मोटे अनाजों की उपज के लिए कम पानी और पठार का क्षेत्र भी उपयुक्त है।

बीज की दुकान पर किसान

जल संकट एवं कम बारिश की वजह पर आईआईटी (आईएसएम) धनबाद के पर्यावरण विज्ञान से पीएचडी के छात्र और शोधार्थी स्वयं विद कहते हैं- जलवायु परिवर्तन के कारण कम वर्षा होने से जल संकट बढ़ा है। औद्योगिकीकरण ने भी साफ-सुथरे जल स्रोतों को प्रदूषित किया है। साथ ही कंक्रीट का फर्श होने के कारण जल पृथ्वी के अंदर नहीं पहुंच पाता और वर्षा का पानी बह जाता है, जिसके कारण भूमिगत जल स्तर नहीं बढ़ रहा है। वहीं दूसरी तरफ पहले जहां लंबे समय तक जो बारिश हुआ करती थी, अब जलवायु परिवर्तन की वजह से उसका समय कम हो गया है और उसकी गति तेज हो गई है। ऐसे में जहां लंबे समय तक होने वाली बारिश से जमीन में पानी धीरे धीरे समाता चला जाता था, वह तेज बारिश की वजह से बह जाता है।

वे आगे कहते हैं – प्रकृति अब तक हमें निरंतर आवश्यकतानुसार जल उपलब्ध कराती रही है किंतु उसके अंधाधुंध दोहन के कारण स्वच्छ जल की उपलब्धता कम से कमतर होती जा रही है। पानी की कमी के चलते वातावरण एवं जलवायु चक्र निरंतर प्रभावित हो रहा है। वे कहते हैं कि जल एवं जलवायु का अन्यतम संबंध है। दोनों एक दूसरे के सहयोगी एवं पूरक हैं। आज पूरा विश्व “वाटर इज क्लाइमेट एंड क्लाइमेट इज वाटर” की बात पूरी तरह से स्वीकार कर रहा है। इनमें से किसी में भी परिवर्तन होने से दूसरे का प्रभावित होना अवश्यंभावी है।

बताना जरूरी हो जाता है कि झारखंड की भूमि पठारी है। यहां के निवासियों को पूर्व से ही पता था कि पठारी क्षेत्र होने के कारण यहां जल-जमाव संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने धान-गेहूं के अतिरिक्त अन्य कई फसलों को उपजाना आरंभ किया था। धान-गेहूं पूर्णत: पानी आधारित फसलें हैं और इस क्षेत्र में पानी दुर्लभ है। ऐसे में यहां के किसानों ने धान-गेहूं की निर्भरता को कम करने के लिए मड़ुआ, बाजरा, गोंदली, कोदवा जैसे अनाजों को उपजाना शुरू किया था। ये अनाज टांड़ (मैदानी क्षेत्र) में उगाये जाते हैं और कम वर्षा में ही हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये अनाज पौष्टिक तत्वों से भरपूर होते हैं। आज इन्हीं अनाजों को उपभोक्तावादी संस्कृति में मिलेट्स के नाम से बेचा जाता है।

खेत में रोपाई करते किसान

इन अनाजों के अतिरिक्त और कई प्रकार के दलहन-तिलहन इन क्षेत्रों में उगाये जाते थे। धान की खेती के समय ही खेतों के मेढ़ों में उरद और मूंग बो दिया जाता था। धान की फसल तैयार होते-होते दलहन भी तैयार हो जाते थे। इसी प्रकार टांड़ों में अरहर, तिल, सरसों, सरगुंजा की खेती प्रचुर मात्रा में होती थी। किसान कुछ खेतों में गन्ने की भी खेती करते थे। इस प्रकार अनाज के कई विकल्प के साथ-साथ दलहन और तिलहन का भी विकल्प मौजूद था।

सामाजिक चिंतक, खोरठा के कवि एवं व्याख्याता अंबुज कुमार बताते हैं कि नकदी फसल के रूप में महुआ भी इस क्षेत्र की आर्थिक समृद्धि में सहायक था। महुआ का उपयोग खाने एवं दवा बनाने में होता था। लोग पकवान बनाने में भी इसी तेल का उपयोग करते थे। इस तेल में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा काफी कम पायी जाती है।

वे आगे कहते हैं कि लेकिन दुर्भाग्य है कि आज कोदंवा, बाजरा, महुआ, गोंदली आदि अनाज लुप्त प्राय: हो गए है। सरकार की उदासीनता और छद्म औद्योगीकरण इन फसलों का अस्तित्व मिटा रहे हैं। जल-छाजन का काम सरकार ने अपने हाथों में ले लिया है, जिसमें भ्रष्टाचार हावी है और योजना कमीशनखोरी की बलिवेदी पर खड़ी है। ऐसे में गुणवत्ता का कोई मानदंड नहीं रह गया है। नतीजा ग्रामीण क्षेत्रों में अब जल-ठहराव समाप्त हो गया है। पूर्वजों द्वारा बनाए गए बांध-तालाबों का अस्तित्व मिट रहा है। कुल मिलाकर कहा जाय तो झारखंड की आर्थिक स्थिति धीरे-धीरे भयावह होती जा रही है।

पानी की बढ़ता संकट

उल्लेखनीय है कि 1965 में देश में हरित क्रांति शुरू की गई। हरित क्रांति से पूर्व हमारे देश में कृषि उत्पादित फसलों में मोटे अनाज की फसलों की प्रमुख भूमिका थी। लेकिन हरित क्रांति के बाद से इनकी जगह धीरे-धीरे गेहूं और धान ने ले ली और गेहूं और धान की अधिक से अधिक उपज के लिए रसायनिक खादों खूब इस्तेमाल हुआ, इन चिकने अनाजों की ओर सरकार सहित किसानों ने भी तेजी से रूख किया। परिणामतः मोटे अनाज की फसलें जो कि हमारी प्रमुख खाद्यान्न फसल हुआ करती थीं, वह हमारी भोजन की थाली से दूर होती चली गईं और हम इस परिवेश में कई बीमारियों के शिकार होते गए।

मेडिकल साइंस भी मानने लगा है कि आज देश में डायबिटीज एवं अन्य खतरनाक बीमारियां हरित क्रांति के दुष्परिणाम हैं। दुनिया आज जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है। इसका मुकाबला यदि करना है तो हमें मोटे अनाजों की खेती की तरफ वापस लौटना होगा।

मोटे अनाजों में गेहूं और चावल से ज्यादा पोषक तत्त्व पाए जाते हैं। इनमें काफी बड़ी मात्रा में प्रोटीन, फाइबर, विटामिन-ई, कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन, मैग्नीशियम समुचित मात्रा में मौजूद हैं। इन फसलों के बीज में फैटो न्युट्रिएंट पाया जाता है, जिसमें फीटल अम्ल होता है, जो कोलेस्ट्राल को कम रखने में सहायक साबित होता है। इन अनाजों का निमयित इस्तेमाल करने वालों में अल्सर, कोलेस्ट्रॉल, कब्ज, हृदय रोग और कर्क रोग (कैंसर) आदि की संभावना कम रहती है। जैसे-

मोटे अनाज

बाजरा: बाजरे में आमतौर पर जिंक, विटामिन-ई, कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर तथा विटामिन-बी काम्प्लेक्स की भरपूर मात्रा उपलब्ध है।

रागी: रागी (मंडुआ) में विशेष रूप से प्रोटीन और कैल्शियम ज्यादा मात्रा में होता है। यह चावल एवं गेहूं से 10 गुना ज्यादा कैल्शियम व लौह का अच्छा माध्यम है। इसलिए बच्चों के लिए यह प्रमुख खाद्य फसल हैं।

ज्वार: ज्वार में पोटैशियम, फास्फोरस, आयरन, जिंक और सोडियम की भरपूर मात्रा पाई जाती है। कैल्शियम, पोटैशियम, आयरन कैल्शियम, मैग्नीशियम भी समुचित मात्रा में पाया जाता है।

सांवा: सांवा मुख्य फैटी एसिड, प्रोटीन, एमिलेज की भरपूर उपलब्ध को दर्शाता है। सांवा रक्त सर्करा और लिपिक स्तर को कम करने के लिए काफी प्रभावी है। आजकल मधुमेह के बढ़ते हुए दौर में सांवा मिलेट एक आदर्श आहार बनकर उभर सकता है।

चीना: चीना मिलेट यानी मोटे अनाज की एक प्राचीन फसल है। इसका उपभोग करने से इतनी ऊर्जा अर्जित होती है, कि व्यक्ति बिना थकावट महसूस किये सुबह से शाम तक कार्यरत रह सकता है। जो कि चावल और गेहूं से सुगम नहीं है। इसमें प्रोटीन, रेशा, खनिज जैसे कैल्शियम बेहद मात्रा में पाए जाते हैं। यह शारीरिक लाभ के गुणों से संपन्न है।

बताना जरूरी हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन ने भी भारत में गेहूं और धान की पैदावार को बेहद दुष्प्रभावित किया है। अतः सरकार द्वारा मोटे अनाज की ओर ध्यान केन्द्रित करवाने की कोशिशें की जा रही हैं।

(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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