एक कहावत है थोथा चना बाजे घना यही स्थिति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा घोषित आत्मनिर्भर भारत अभियान की है। मंगलवार 12 मई 2020, देश को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत अभियान की घोषणा की जिसमें 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज की बात कही गई और इस पैकेज को कुल सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत बताया गया है। आंकड़ों के अनुसार देश का कुल सकल घेरलू उत्पाद 204 लाख करोड़ है। 10 प्रतिशत सुनकर हम जैसे आम नागरिकों को अच्छा लगता है कि चलो देश के प्रधानमंत्री ने इस संकट की घड़ी में देश के नागरिकों के हितों को ध्यान में रखते हुये इतने बड़े राहत पैकेज की घोषणा की है। पर ये 10 प्रतिशत है क्या और कहां खर्च होने वाला है, क्या यह राहत पहले दी जा चुकी राहत को मिला कर है इस संदर्भ में प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में किसी तरह का स्पष्टीकरण नहीं दिया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घोषणा के पश्चात वित्त मंत्री सीतारमण ने पांच चरणों में इस आर्थिक पैकेज की व्याख्या की। इस राहत पैकेज का विस्तारित आकलन करने के बाद पता चलता है कि इस पैकेज का उद्देश्य बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाना है। पर यहां ध्यान देने की बात यह है कि मजदूरों के लिए इस राहत पैकेज में क्या है जो हमारी अर्थव्यवस्था के मजबूत स्तंभ हैं। वास्तव में यह राहत पैकेज मजदूरों के साथ छलावा है। यह बेहद अफसोसजनक स्थिति है कि वर्तमान हालात को जानते हुये भी लगातार मजदूरों के साथ इस तरह के छलावे हो रहे है जबकि इस संकट में सबसे ज्यादा प्रभावित मजदूर वर्ग ही हो रहा है।
घोषित राहत पैकेज आत्मनिर्भर भारत अभियान में सरकार का पहला झूठ यह है कि 26 मार्च 2020 को वित्त मंत्री सीतारमण द्वारा घोषित कोरोना राहत पैकेज का पैसा भी इस 20 लाख करोड़ में जुड़ा हुआ है। जिसे अलग करके नहीं बताया गया, यह अपने आप में 20 लाख करोड़ नहीं है। दूसरा कि इसमें मजदूरों पर खर्च होने वाली अनुमानित राशि अर्थशास्त्रियों के अनुसार सिर्फ एक लाख करोड़ है जिसमें से यह 60 हजार करोड़ 26 मार्च 2020 में की गई घोषणा के आधार पर खर्च किया जा चुका है। जिसके अंतर्गत जन धन खातों में 500-500 रूपये जमा करवाये गये, लोगों को राशन दिया गया।
इसके अलावा निर्माण कार्य में लगे मजदूरों को 5000 रूपये दिये गए, इस 5000 रूपये में 26 मार्च को घोषित राहत पैकेज में से एक नया पैसा भी नहीं दिया गया है, यह पैसा निर्माण मजदूरों के सेस फंड का था जिसे सरकार ने घोषित योजना के अंतर्गत बताया जो कि सरासर झूठ है। कुछ निर्धारित किसानों के खातों में 2000-2000 हजार रूपये डाले गये जो पहले से ही तय था, उसका इन दोनों ही राहत पैकेज से कोई लेना-देना नहीं है, पर उसे भी सरकार ने इस राहत पैकेज का ही हिस्सा बताया। इस तरह से यदि 26 मार्च को हुई कोरोना राहत पैकेज का आकलन करें तो मजदूरों और किसानों पर सरकार द्वारा मात्र 30-32 हजार करोड़ ही खर्च किया गया है, पर सरकार द्वारा उसे महिमा मंडित ज्यादा किया जा रहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया के स्तर पर अर्थव्यवस्था की स्थिति चरमराई हुई है पर क्या इस पैकेज के जरिए अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने का काम किया जा रहा है, क्या प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया पैकेज मजदूरों को इस संकट से उबारने में कारगर साबित होगा। नहीं, यह राहत पैकेज मजदूरों को इस संकट से निकालने के लिए किसी प्रकार से भी सहायक नहीं है यह पूर्णतः मजदूरों को बेवकूफ बनाने की योजना है। प्रधानमंत्री द्वारा घोषित राहत पैकेज में लोन लेने के लिए जोर दिया गया है। इस राहत पैकेज में सरकार ने एमएसएमई और बड़े उद्योगों दोनों को ही लोन का प्रावधान किया है। बड़े उद्योगपतियों के साथ सरकारों की साठ-गांठ शुरू से ही रही है और इस पूरे राहत पैकेज का लब्बोलुआब भी यही दिख रहा है कि सरकार कुछ बड़े उद्योगपतियों को ही फायदा पहुंचाना चाह रही है।
जहां तक छोटे उद्योगपतियों का सवाल है वह लोन क्यों लेगा, वह लोन उसी स्थिति में लेगा जब उसे अपना उत्पादन बढ़ाना होगा परन्तु वर्तमान स्थिति में तो हालत ये है कि पहले से ही उत्पादित माल बिक नहीं पा रहा है। क्योंकि खरीदार नहीं हैं, लोगों के पास पैसा नहीं है कि वह खरीद सके। मार्केट में मांग नहीं है, तो लोन कौन लोग लेंगे यह छिपा हुआ है। जहां तक मार्केट में मांग का सवाल है तो अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मार्केट में 60 प्रतिशत मांग लोगों की खाने-पीने की वस्तुओं से उत्पन्न होती है, 28 प्रतिशत मांग निवेश की है, 10 प्रतिशत सरकारी खर्चा और 2 प्रतिशत निर्यात है। मांग के इस ढांचे के अनुसार वर्तमान स्थिति में निर्यात की कोई संभावना नहीं है, उद्योगपतियों द्वारा निवेश किया नहीं जायेगा क्योंकि उन्हें पैसा वापस मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, सरकारी खर्चों में सरकार लगातार बदलाव करती ही जा रही है जिसके अन्तर्गत सरकारी कर्मचारियों के भत्ते रोक दिये गये हैं। इसका सीधा-सीधा तात्पर्य यह है कि जब तक सरकार लोगों के रोजगार की व्यवस्था नहीं करती तब तक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना मुश्किल है। जब तक लोगों की खरीदने की क्षमता नहीं होगी तब तक स्थिति बेहतर नहीं हो सकती।
इस स्थिति में सरकार का दायित्व बनता है कि वह इस तरह की फर्जी घोषणा करने के बजाय वास्तविक और मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुये उनकी समस्याओं का समाधान करती। जिसमें वह प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की व्यवस्था करती और जब तक वह अपने घर न पहुंच जाते तब तक उनके रहने और खाने की व्यवस्था करती। दूसरा यह कि मजदूरों के खातों में 10000-10000 रुपये जमा करवाती, जिसकी मांग लगातार देश में उठ रही है ताकि मजदूरों के अन्दर खरीदने की क्षमता उत्पन्न हो और मार्केट में मांग बढ़े। तीसरा सरकार सभी मजदूरों के रोजगार की व्यवस्था करती। हालत यह है कि तथाकथित इतने बड़े राहत पैकेज की घोषणा के बाद भी प्रवासी मजदूर 2-2 हजार किलोमीटर पैदल चल कर अपने घरों को पहुंच रहे हैं और इस दौरान मीडिया द्वारा जो खबरें आ रही हैं उसके अनुसार करीब 600 लोगों की जान जा चुकी है, इसके अलावा बहुत सी मौतें भूख से भी हो रही हैं जो जानकारी में नहीं आ पा रही है, इस राहत पैकेज में इन मजदूरों के लिए कोई प्रावधान नही है।
(बलजीत मेहरा रिसर्च स्कॉलर हैं।)
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