विज्ञान के विकास के लिए स्वतंत्रता सबसे बड़ी शर्त, संदर्भ सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर

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भारत की इस धरती पर कई ऐसे महान वैज्ञानिक पैदा हुए हैं, जिन्होंने अपनी खोज और रिसर्च से दुनिया के विकास को नई दिशा दी है। विडंबना यह है कि यह काम वे भारत में रहते हुए नहीं कर सके। उन्हें पश्चिमी देशों में रहने की सुविधा मिली तभी उनकी खोज फलीभूत हुई। भारत में विज्ञान हो, एकेडमिक्स हो, तकनीक और प्रौद्योगिकी हो या चिकित्सा का क्षेत्र हो सब में अनचाहा राजनीतिक-प्रशासनिक हस्तक्षेप न केवल विशेषज्ञों का मनोबल गिराता है बल्कि उन्हें बुरी तरह अपमानित भी किया जाता है।

इससे यह भलीभांति समझा जा सकता है कि भारत में राजनेता ही सबसे बड़े वैज्ञानिक और विद्वान होते हैं। एक हुए हैं खगोल भौतिकी के क्षेत्र के बड़े वैज्ञानिक डॉ. सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर। सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर में हुआ था। उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई मद्रास में हुई। डॉ बचपन से ही प्रतिभावान थे। इनका मन आसमान में चमकते सितारों को देखने में लगता था, वे इसकी गुत्थियों को सुलझाना चाहते थे। सुब्रमण्यम चंद्रशेखर का परिवार पढ़ा-लिखा संभ्रांत परिवार था। विज्ञान की परंपरा उनके परिवार में पहले से ही मौजूद थी। उनके चाचा सी वी रमन को भौतिकी में रमन इफेक्ट के प्रस्तुतकर्ता थे।

जब सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की उम्र 20 बरस की थी, तब उनके चाचा सीवी रमन को 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। डॉ. चंद्रशेखर भी उन्हीं की राह पर चलते हुए अपनी खोज में लग गए। जिस साल सीवी रमन ने अपनी खोज से नोबेल हासिल किया, उस वर्ष चंद्रशेखर मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से फिजिक्स में ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल कर रहे थे। चंद्रशेखर अपने चाचा सीवी रमन की तरह साइंस के क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि हासिल करना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए खगोल विज्ञान को चुना। 18 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर का पहला शोध पत्र `इंडियन जर्नल ऑफ फिजिक्स’ में प्रकाशित हुआ।

मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की उपाधि लेने तक उनके कई शोध पत्र प्रकाशित हो चुके थे। उनमें से एक `प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी’ में प्रकाशित हुआ था, जो इतनी कम उम्र वाले व्यक्ति के लिए गौरव की बात थी। 24 वर्ष की अल्पायु में सन् 1934 में ही उन्होंने तारे के गिरने और लुप्त होने की अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा सुलझा ली थी। शोध पत्र के अनुसार सफेद बौने तारे यानी व्हाइट ड्वार्फ तारे एक निश्चित द्रव्यमान यानी डेफिनिट मास प्राप्त करने के बाद अपने भार में और वृद्धि नहीं कर सकते। अंतत वे ब्लैक होल बन जाते हैं। उन्होंने बताया कि जिन तारों का द्रव्यमान आज सूर्य से 1.4 गुना होगा, वे अंतत: सिकुड़ कर बहुत भारी हो जाएंगे। चंद्रशेखर 27 वर्ष की आयु से ही खगोल भौतिकीविद के रूप में अच्छी धाक जमा चुके थे। उनकी खोजों से न्यूट्रॉन तारे और ब्लैक होल के अस्तित्व की धारणा कायम हुई जिसे समकालीन खगोल विज्ञान की रीढ़ प्रस्थापना माना जाता है।

चंद्रशेखर भारत सरकार की स्कॉलरशिप पर कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने गए थे। यहीं पर उन्होंने ‘चंद्रशेखर लिमिट’ का सिद्धांत दिया लेकिन इस सिद्धांत से उनके शिक्षक और साथी छात्र प्रभावित नहीं थे। 11 जनवरी 1935 को उन्होंने अपनी खोज रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के सामने प्रस्तुत की। इसके बाद उस वक्त के महान खगोलशास्त्री और ऑक्सफोर्ड में उनके गुरु आर्थर एडिंगटन ने चंद्रशेखर को अपना रिसर्च पेपर सबके सामने रखने को प्रोत्साहित किया, लेकिन बाद में सर आर्थर एडिंगटन ने उनके इस शोध को प्रथम दृष्टि में स्वीकार नहीं किया। पर वे हार मानने वाले नहीं थे।

वे पुन: शोध में जुट गए। 1937 में चंद्रशेखर अमेरिका शिफ्ट हो गए। सिर्फ 26 साल की उम्र में उन्होंने शिकागो यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू कर दिया। वहीं वर्ष 1953 में अमेरिका ने उन्हें अपने यहां की नागरिकता दे दी। चंद्रशेखर अक्सर अमेरिका के लिए अपने प्यार के बारे मे बताते रहते थे। वो कहते थे कि ‘अमेरिका में मुझे एक बात की बड़ी सुविधा है। यहां भरपूर आजादी है। मैं जो चाहे कर सकता हूं। कोई मुझे परेशान नहीं करता।’ इस बात से हम बहुत कुछ समझ सकते हैं।

1966 में जब साइंस ने कुछ और तरक्की कर ली, कंप्यूटर और गणना करने वाली दूसरी मशीन सामने आ गईं तब जाकर पता चला कि तारों के द्रव्यमान और ब्लैक होल बनने संबंधित चंद्रशेखर की गणना बिल्कुल सही थी। 1972 में ब्लैक होल की खोज हुई। ब्लैक होल के खोज में चंद्रशेखर की थ्योरी बेहद काम आई। वर्ष 1983 में उनके सिद्धांत को मान्यता मिली। इस खोज के कारण भौतिकी के क्षेत्र में वर्ष 1983 का नोबेल पुरस्कार उन्हें तथा डॉ. विलियम फाऊलर को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। 21 अगस्त 1995 को 84 साल की उम्र में हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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