मानसरोवर से सिताब दियारा तक सरजू का सफ़र !

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हम कभी मानसरोवर की यात्रा पर नहीं गए। पर अपने गांव की नदी तो मानसरोवर से ही आती है। फोटो में ये जो नदी देख रहे हैं यह वही नदी है जो हमारे गांव तक पहुंचती और इसी की तेज धारा में बचपन में नहाते थे। गांव से एक फर्लांग की दूरी ही तो थी। बीच में सिर्फ खेत कोई दरख्त नहीं। घर कुछ ऊंचाई पर था तो आराम से नदी वहीं से दिखती। तब यह नहीं पता था कि यह मानसरोवर झील और कैलाश पर्वत के पड़ोस से निकल कर यहां पहुंचती है और आगे बलिया के पास गंगा में विलीन हो जाती है। गांव के मल्लाह इसी नदी के रास्ते कलकत्ता जाते थे शीरा लेकर और लौटते थे मुर्शिदाबाद का कपड़ा लेकर।

यह नदी ही अपनी सरजू माई हैं। दूर देश से आती हैं। तीन देश की यात्रा करती हैं। यह अपनी सरजू है। इसे घाघरा भी कहते हैं। सरजू जी भी कहते हैं तो सरजू माई भी। मानसरोवर ताल के पास से जंगल पहाड़ लांघते हुए यह भगवान श्रीराम के जन्म स्थान अयोध्या से होते हुए बरहज बाजार के आगे अपने गांव को छूते हुए जाती है। आगे कुछ और दूर जाकर यह जयप्रकाश नारायण के गांव सिताब दियारा में गंगा में विलीन हो जाती है। दूसरे शब्दों में मुक्त हो जाती है हजार किलोमीटर की यात्रा के बाद। और यह मुक्ति गंगा देती है।

तिब्बत, चीन फिर नेपाल। चीन में भी यह मानसरोवर ताल के पास से अवतरित होती हैं। पता नहीं परिक्रमा कर आती है या सीधे चली आतीं हैं। पर नाम तो बदल ही जाता है। नेपाल में इस नदी को करनाली कहा जाता है। स्थानीय लोग इसके पानी को हिमालय का पवित्र जल मानते हैं और नाम भी इसी के हिसाब से रखा गया। गोगरा फिर यह बदला घाघरा में। पर अयोध्या आते आते यह सरजू माई हो गईं। इसका मूल उद्गम स्रोत तिब्बत के पठार पर स्थित हिमालय की मापचांचुगों नामक पर्वत श्रेणी से माना जाता है। जो कि तालाकोट से लगभग 37 किलोमीटर उत्तर पश्चिम की ओर स्थित है।

घाघरा नदी या करनाली नदी गंगा नदी की मुख्य सहायक नदी है जो कि तालाकोट से लगभग 37 किलोमीटर उत्तर पश्चिम की ओर स्थित है। हैरानी की बात यह है कि यह दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है जिसकी पश्चिमी शाखा करनाली और पूर्वी शाखा को शिखा कहते हैं। पर यह फिर एक हो जाती हैं। लगभग 970 किलोमीटर की यात्रा के बाद बलिया के सिताब दियारा में यह नदी गंगा में मिल जाती है। पर गुजरती तो अपने गांव से ही है। साठ के दशक में स्टीमर भी चलता था और बड़ी नाव भी। कलकत्ता तो लोग इसी से जाते थे। लोचन भी जाता था कलकत्ता के जूट मिल में। साल में एक दो बार ही आता।

सरयू नदी के उस पार अपना खेत खलिहान रहा। दो तीन बार नाव से नदी पार कर अपना भी आना जाना हुआ। गोइठे की आग पर पके दूध की गाढ़ी गुलाबी दही का स्वाद अभी भी नहीं भूलता। यही सरयू रोहू भी देती थी तो झींगा भी जो दूर तक मशहूर थे। घर में शाकाहारी भोजन ही बनता था इसलिए घर में काम करने वाली लोचन बो के घर मछली बनती थी। उसका घर भी बगल में ही था। लोचन तब कलकत्ता के किसी मिल में काम करता था और स्टीमर से गांव तक आता था। शुक्रवार को उसका घर भी दिखा तो सामने की जमीन भी। यह जमीन उसने अपने घर परिवार के लोगों को बाद में बेच दी पर उसके बाद सामने रहने वाले अहीर परिवार ने दावा किया कि यह जमीन उसे भी बेच दी गई थी। अब कई सालों से मुकदमा भी चल रहा है। गांव में यह सब आम बात है। घर दरवाजे की जमीन को लेकर विवाद चलते रहते हैं।

मुकदमेबाजी तो ग्रामीण समाज की दिनचर्या में बदल चुका है। साठ के दशक में इस गांव के ज्यादातर घरों में आना जाना, खाना पीना होता था। मिलने वाले आते रहते और खपरैल के घर के सामने के करीब सौ फुट लंबे ओसारे में हम खटिया पर जमे रहते थे। उनकी आवभगत गुड़ और ठंडे पानी से की जाती थी। मिठाई की जगह यही ज्यादा चलता था। पर अब गांव अनजाना सा लगा। चचेरे भाई ने बताया कि परधानी के चुनाव के बाद गांव बंट गया है। लोग अपने में सिमटते जा रहे हैं। नेवता हकारी भी कम हो गया है। गांव बहुत बदल गया है।

खैर, नदी तक पहुंचा तो गांव भी गया। वह गांव जहां बगल के छोटे से स्कूल में क ख ग सीखा था। खड़िया पट्टी पर, बाद में नरकट की कलम भी इस्तेमाल की। कदम का वह पेड़ तो नहीं मिला जिसके नीचे बैठता था पर वहीं बेल लदे दो पेड़ मिले। बाईं तरफ पुरानी रियासत की छोटी बहू की जर्जर होती कोठी भी दिखी। बताते हैं कि जब उनके पति गुजर गए तो फिर वे उस कोठी में कभी नहीं गईं और बनारस से आई इस छोटी बहू की कोठी सामने बनाई गई।

रियासत के किस्से अब बंद हो गए क्योंकि रियासत वाली इमारतें भी ढहने लगी हैं और रियासत वाले भी छोटे-मोटे काम कर जीवन चला रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे कई नवाबों के वंशज इक्का-तांगा चलाते नजर आ जाएंगे। वर्ना तो एक दौर था पड़ोस की इस रियासत की इमारत के सामने न कोई जूता पहन कर निकल सकता था, न टोपी पहन कर। आज उसी रियासत की जर्जर इमारत के सामने एक ढाबा नजर आया तो तख्त लगा कर दाल रोटी से लेकर चिकन कोरमा बेच रहा था। ऐसा लोकतंत्र पहली बार दिखा।

(अंबरीश कुमार शुक्रवार के संपादक हैं। आप 26 वर्षों तक इंडियन एक्सप्रेस समूह से जुड़े रहे। आजकल लखनऊ में रहते हैं।)

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