बिहार और झारखंड में भी दोहराया जा सकता है महाराष्ट्र जैसा खेल

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी गठबंधन तैयार करने के प्रयासों की भाजपा चाहे जितनी खिल्ली उड़ाए लेकिन हकीकत यह है कि उसका शीर्ष नेतृत्व इन कोशिशों से बेहद बेचैन और बदहवास है। इसी बदहवासी के आलम में उसने विपक्षी दलों को कमजोर करने और उनके गठबंधन की संभावनाओं को पंक्चर करने के लिए अपना अभियान तेज कर दिया है। इस अभियान में ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियों को तो उसने पहले से ही लगा रखा था और अब वह खुद भी खुल कर मोर्चे पर आ डटा है। महाराष्ट्र में एनसीपी के टूटने और सरकार में शामिल होने का घटनाक्रम इसी अभियान का हिस्सा है। ऐसा ही घटनाक्रम आने वाले कुछ दिनों में बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में भी दोहराया जा सकता है जहां गठबंधन की सरकारें चल रही हैं। 

कर्नाटक में करारी हार और उसके बाद विपक्षी गठबंधन की दिशा में हुई सक्रिय पहलकदमी से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कितना हैरान-परेशान है, इसका अंदाजा इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों से भी लगाया जा सकता है। उनके भाषणों में झल्लाहट और बौखलाहट साफ झलक रही है। पिछले महीने 27 जून को प्रधानमंत्री मोदी घोटालों के घटाटोप से घिरे मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में थे। वहां उन्होंने अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम में भाषण देते हुए विपक्षी नेताओं के नाम ले लेकर उनके कथित घोटाले गिनाए थे।

इसी सिलसिले में प्रधानमंत्री ने एनसीपी के नेताओं पर 70 हजार करोड़ रुपये के घोटालों का आरोप लगाया था। महाराष्ट्र सहकारी बैंक घोटाला, सिंचाई घोटाला, खनन घोटाला आदि का जिक्र करते हुए उन्होंने इनमें शामिल नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी थी। उन्होंने दांत पीसते हुए कहा था, ”सारे विपक्षी नेता भ्रष्टाचार और घोटालों की गारंटी हैं लेकिन मोदी उन घोटालेबाजों के खिलाफ कार्रवाई की गारंटी है। सबको जेल जाना होगा।” 

प्रधानमंत्री के इस भाषण के दो दिन बाद ही अजित पवार दिल्ली में गृहमंत्री अमित शाह से मिले थे। उस मुलाकात में जो कुछ तय हुआ था वह 2 जुलाई को पूरे देश ने देख लिया। मोदी अपने भाषणों में जिन नेताओं को जेल भेजने की बात कही थी, वे जेल जाने के बजाय भाजपा के साथ आ गए और मंत्री बन गए। 

बहरहाल महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद आने वाले दिनों बिहार और झारखंड में भी यही खेल दोहराया जा सकता है। इस बात का संकेत और कोई नहीं बल्कि इन दोनों राज्यों के भाजपा के नेताओं की ओर से दिया जा रहा है। इस सिलसिले में पहला नंबर बिहार का हो सकता है।

बिहार की बारी दो वजहों से हो सकती है। पहली वजह तो यह है कि एक साल पहले 30 जून को जब भाजपा ने शिवसेना को तोड़ कर उसके अलग हुए धड़े के साथ मिल कर सरकार बनाई थी, उसके कुछ ही दिनों बाद बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा से गठबंधन तोड़ कर राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बना ली थी। यानी भाजपा को महाराष्ट्र में मिली खुशी को बिहार में नीतीश कुमार ने गम में बदल दिया था। सो, अब उसका बदला लेना है। दूसरी वजह यह है कि शरद पवार की पार्टी की तरह नीतीश कुमार की पार्टी में भी कई कमजोर कड़ियां हैं, जिनका फायदा भाजपा उठा सकती है।

महाराष्ट्र में अजित पवार एनसीपी की कमजोर कड़ी थी। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष होते हुए भी वे काफी समय से भाजपा के संपर्क में थे। कई बार वे सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ भी कर चुके थे। उन्हीं तरह एक समय नीतीश कुमार की पार्टी में नंबर दो की पोजिशन पर रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह अब भाजपा के साथ चले गए हैं। वे बिहार में घूम-घूम कर नीतीश कुमार की सरकार गिरने और नीतीश के राजनीतिक जीवन के खात्मे की भविष्यवाणी कर रहे हैं।

बताया जा रहा है कि आरसीपी सिंह के जरिए जनता दल (यू) के ऐसे कई सांसद-विधायक भाजपा के संपर्क में हैं, जिन्हें अगले चुनाव को लेकर अपने भविष्य की चिंता है। उन्हें लग रहा है कि राष्ट्रीय जनता दल के साथ होने की वजह से उनके अपने क्षेत्र में उनकी जीत का समीकरण बिगड़ा है और वे कमजोर हुए हैं। ऐसे नेता भाजपा के साथ जा सकते हैं। 

जनता दल (यू) के कई नेता ऐसे भी हैं जो अभी सांसद या विधायक नहीं हैं लेकिन उनको लग रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा उनको टिकट दे सकती है। भाजपा पिछली बार 17 सीटों पर लड़ी थी और सभी सीटें उसने जीती थी। इस बार उसका इरादा 40 में से 10 सीटें अपने सहयोगी दलों के लिए छोड़ कर करीब 30 सीटों पर खुद लड़ने का है। इसलिए उसे 13 नए उम्मीदवारों की जरूरत होगी। इसलिए जनता दल (यू) के कुछ नेता इस उम्मीद में भी भाजपा से बात कर रहे है कि उनको लोकसभा का टिकट मिल जाए।

अपनी पार्टी के नेताओं में चल रही ऊहापोह को नीतीश कुमार भी समझ रहे हैं। उन्होंने महाराष्ट्र में एनसीपी की टूट होने से पहले ही अपने यहां संभावित खतरे को भांपते हुए पिछले दिनों अपनी पार्टी के सभी विधायकों और सांसदों को पटना बुलाया था और सबसे एक-एक करके मुलाकात की थी। वे विधान परिषद के सदस्यों से भी मिले थे। नीतीश से मिलने के बाद विधायकों ने कहा कि मुख्यमंत्री ने क्षेत्र का हाल जानने के लिए बुलाया था। लेकिन यह सच नहीं है।

सच यह है कि नीतीश कुमार ने अपने विधायकों-सांसदों का मन टटोला है। उन्होंने यह जानना चाहा कि वे कहीं भाजपा के संपर्क में तो नहीं हैं या पार्टी तो नहीं छोड़ने वाले हैं। बताया जाता है कि अगर पार्टी नहीं टूटती है तब भी नीतीश को कुछ विधायकों-सांसदों के इस्तीफा देने और भाजपा में शामिल होने के अंदेशा है। 

विधायकों-सांसदों का मन टटोलने की कवायद और कुछ लोगों के भाजपा के साथ जाने की आशंका के चलते यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश फिर से भाजपा के साथ गठबंधन की राह भी तलाश रहे हैं। हालांकि इस बात की पुष्टि कोई नहीं कर रहा है। लेकिन जिस दिन महाराष्ट्र में राजनीतिक उथल-पुथल हुई, उसी दिन नीतीश कुमार की राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह के साथ डेढ़ घंटे की बंद कमरा मीटिंग से इन चर्चाओं को बल मिला है। 

गौरतलब है कि हरिवंश जनता दल (यू) से ही राज्यसभा के सदस्य हैं और नीतीश कुमार के भाजपा से गठबंधन तोड़ लेने के बावजूद अभी भी राज्यसभा के उप सभापति पद बने हुए हैं। नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का भी जनता दल (यू) ने अन्य विपक्षी दलों के साथ बहिष्कार किया था लेकिन हरिवंश उस कार्यक्रम में शामिल हुए थे और उन्होंने ही राष्ट्रपति व उप राष्ट्रपति के संदेश पढ़े थे। हरिवंश को प्रधानमंत्री मोदी का भी करीबी माना जाता है और इसी आधार पर कहा जाता रहा है कि हरिवंश के जरिए नीतीश ने भाजपा से संबंधों की खिड़की खोल रखी है। वे नीतीश कुमार और भाजपा नेतृत्व के बीच संदेश वाहक का काम कर सकते हैं। 

एक अन्य घटनाक्रम के तहत केंद्रीय एजेंसियों ने लालू प्रसाद के परिवार पर फिर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। जमीन के बदले नौकरी के कथित घोटाले में सीबीआई ने नई चार्जशीट दायर कर दी है जिसमें तेजस्वी यादव को आरोपी बनाया गया है। इस मामले में सीबीआई पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद और बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी कुछ अन्य लोगों के खिलाफ पहले ही चार्जशीट दायर कर चुकी है।

पिछली बार 2017 में जब नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय जनता दल से गठबंधन तोड़ा था तो तेजस्वी यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप को मुद्दा बनाया था। अब चूंकि सीबीआई ने उनके खिलाफ चार्जशीट दायर कर दी है, इसलिए कहा जा रहा है कि इस आधार पर नीतीश एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन तोड़ सकते हैं। नीतीश पर एक नया दबाव यह भी है कि उनकी पार्टी के दो बड़े नेताओं के दो करीबी कारोबारियों के यहां आयकर के छापे पड़े हैं। ये छापे इस बात का संकेत है कि आगे भी उनकी पार्टी से जुड़े लोगों पर इस तरह की कार्रवाई हो सकती है। 

कुल मिलाकर नीतीश चौतरफा दबाव में हैं। इसी वजह से उनके फिर से भाजपा के साथ जाने की अटकलें लग रही हैं। लेकिन अब उनका भाजपा के साथ जाना इतना आसान भी नहीं है जितना बताया जा रहा है। गृहमंत्री अमित शाह पिछले एक साल के दौरान अपनी हर बिहार यात्रा में सार्वजनिक रूप से नीतीश को धोखेबाज और सत्ता का भूखा बताते हुए कहा है कि अब उनके लिए भाजपा के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं। हालांकि राजनीति में और खास कर भाजपा की राजनीति में ऐसे बयानों को बहुत ज्यादा महत्व नहीं होता है।

भाजपा एक समय जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पार्टी पीडीपी को पाकिस्तान परस्त और आतंकवादियों की हमदर्द बताती थी लेकिन बाद में उसके साथ ही मिल कर उसने दो बार सरकार बनाई। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वह नीतीश कुमार से भी फिर हाथ मिला ले। लेकिन सवाल नीतीश कुमार के सामने भी बहुत बड़ा है। भाजपा से अलग होने के बाद वे कई बार दोहरा चुके हैं कि अब भविष्य में वे कभी भी किसी कीमत पर भाजपा के साथ नहीं जाएंगे। 

पिछले एक साल के दौरान नीतीश कुमार भाजपा के विरोध में बहुत आगे बढ़ चुके हैं, इतना आगे कि पहली बार अपने प्रदेश से बाहर की राजनीति करते हुए उन्होंने देश भर का दौरा किया और सारे विपक्षी दलों को एक साथ बैठाने की पहलकदमी की। उनकी यह पहल सफल भी रही और पटना में 15 विपक्षी पार्टियों ने एक साथ बैठकर गठबंधन बनाने का फैसला किया। नीतीश के इस प्रयास को सभी दलों ने सराहा और उन्हें गठबंधन का संयोजक बनाने के लिए भी सभी ने सहमति जताई। ऐसे में नीतीश के लिए फिर से भाजपा के साथ जाने का फैसला करना आसान नहीं होगा। अब देखने वाली बात होगी कि नीतीश कैसे अपनी पार्टी, सरकार और साख को बचाते हैं। 

बिहार की तरह झारखंड में भी भाजपा नेताओं की उम्मीद बढ़ी है। उनके बीच चर्चा है कि महाराष्ट्र में एक साल में दो-दो दिग्गज नेताओं की पार्टियां टूट गईं तो क्या झारखंड में एक भी नहीं टूट सकती? सवाल बहुत जायज है। लेकिन सवाल यह भी है कि ऐसा क्या है जो एक के बाद एक राज्यों में कांग्रेस या कोई क्षेत्रीय पार्टी टूटती जा रही हैं लेकिन झारखंड में पिछले तीन साल के दौरान तमाम कोशिशों के बावजूद एक विधायक नहीं टूटा?

लेकिन महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद अब भाजपा के नेताओं को उम्मीद है कि झारखंड में भी ऑपरेशन लोटस होगा। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि अगर विपक्षी पार्टियों का गठबंधन बनने से पहले उसे कमजोर करना है तो झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन को कमजोर करना होगा या उसकी सरकार गिरानी होगी। गौरतलब है कि इससे पहले कई बार कांग्रेस विधायकों को तोड़ने की खबर आई थी। कांग्रेस के तीन विधायक नकदी के साथ पश्चिम बंगाल में पकड़े भी गए और कई दिन जेल में रहे थे। उसके बाद भाजपा ने अपनी कोशिशों को विराम दे दिया था। 

बहरहाल अब विपक्षी एकता के सक्रिय प्रयासों के बरअक्स भाजपा की घबराहट और प्रधानमंत्री मोदी के तेवर देखते हुए कहा जा सकता है कि बिहार के साथ-साथ झारखंड में भी विपक्षी गठबंधन की सरकारों को गिराने और उन सरकारों में शामिल पार्टियों को तोड़ने की कोशिशें होंगी।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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