कल के लेख में कुछ चीजें जो रह गयी थीं। आज उन पर बात करना चाहूंगा। यह आंदोलन अपने पुराने सभी दकियानूसी खोल कहें या केंचुलों को उतार फेंका है। वह समुदाय जो अपने हर छोटे बड़े काम के लिए मौलवियों और मुल्लाओं के रहमोकरम का मोहताज रहा करता था। उसने उसको दरकिनार कर हासिए पर फेंक दिया है। आंदोलन में दूर-दूर तक दिखायी नहीं पड़ रहा है। कुछ जगहों पर इसके कुछ प्रतिनिधियों ने घुसने की कोशिश जरूरी की तो लोगों ने डांट कर बाहर का रास्ता दिखा दिया।
दरअसल पिछले सत्तर सालों से यही हिस्सा था जिसने मुस्लिम समुदाय की ठेकेदारी ले रखी थी। वह धार्मिक मामला हो या कि राजनीतिक हर मोर्चे पर मुस्लिम समुदाय के खैरख्वाह के तौर पर खड़ा हो जाता था। सियासत के साथ इसने जो गलबहियां की उसका नतीजा यह है कि सत्तर सालों बाद लोगों की इज्जत से आगे अब वजूद के लाले पड़ गए हैं। लिहाजा इस राजनीति और उसकी अगुआई करने वाले तबके को समुदाय ने बिल्कुल खारिज कर दिया है।
अनायास नहीं कभी जामा मस्जिद की सीढ़ियों से देश के मुसलमानों के सियासी मुस्तकबिल का फैसला करने वाले मौलाना बुखारी का इन आंदोलनों में शाही पनीर कह कर मजाक उड़ाया जा रहा है। मदनी जब आईटीओ पर आंदोलनकारियों के बीच पहुंचते हैं तो मुस्लिम समुदाय के युवा उन्हें तत्काल जगह छोड़ देने की हिदायत देते हैं। इस लिहाज से यह आंदोलन दोहरे मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहा है। एक तरफ वह अपने भीरत के कठमुल्ला तत्वों से दो-दो हाथ कर रहा है तो दूसरी तरफ देश की फासीवादी ताकतों से लोहा लिए हुए है। नतीजतन उसे एक तरफ कठमुल्लेपन के कचरे को साफ करना है तो दूसरी तरफ समाज में फैल चुके सांप्रदयिक कीचड़ की सफाई उसकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी बन गयी है।
इसके साथ ही एक बात और समझनी जरूरी है। यह आंदोलन आजादी के बाद हुए तमाम आंदोलनों से बिल्कुल अलहदा है। अंतर्वस्तु के लिहाज से सबसे ज्यादा समृद्ध आंदोलन है। 74 का जेपी का आंदोलन तानाशाही तक सीमित था। तो 89 के वीपी सिंह के आंदोलन की पहुंच भ्रष्टाचार के विरोध तक सीमित थी। इससे इतर कुछ आंदोलन हुए तो दलित से लेकर आदिवासी या फिर तबकाई हिस्सों तक उनका वजूद था। लेकिन यह पहला आंदोलन है जो न केवल समग्रता में एक व्यापक रूप धारण किए हुए है बल्कि अंतर्वस्तु के लिहाज से भी बेहद गहरा है। देश में पहली बार भारत के विचार को लेकर इतने बड़े पैमाने पर न केवल बहस हो रही है बल्कि उसको बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं।
देश में यह बहस चल रही है कि यह मुल्क हिंदू राष्ट्र बनेगा या फिर सेकुलर रहेगा। इस देश में सभी नागरिकों को बराबर का अधिकार हासिल होगा या फिर धार्मिक और जातीय विशेषाधिकार के तहत कुछ जातियों और धर्मों की सत्ता स्थापित होगी। देश में संविधान का राज चलेगा या फिर पुरानी वर्ण व्यवस्था आधारित मनु स्मृति को फिर से जिंदा किया जाएगा। देश में राज्य की क्या भूमिका होगी और धार्मिक संस्थाओं की हद क्या होगी।
ये तमाम सवाल हैं जिन्हें इस आंदोलन को हल करना है। दरअसल यह आज नहीं तो कल होना ही था। यह सही बात है कि हमारे पुरखों ने किसी भी एक आधुनिक लोकतांत्रिक समाज के लिहाज से सबसे बेहतर जो संविधान हो सकता है उसकी रचना कर दी थी। लेकिन समाज में चेतना के पिछड़ेपन और समाज की वर्ण आधारित व्यवस्था उसके जमीन पर उतरने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा साबित हुई। सही बात है कि धीरे-धीरे चीजें आगे बढ़ रही थीं। लेकिन सच्चाई यह है कि उसके समानांतर संघ जैसी एक ताकत भी खड़ी हो रही थी जो न केवल संविधान को पलट देना चाहती थी बल्कि उसके मंसूबे उसी पुरानी वर्ण व्यवस्था को फिर से कायम करने के हैं जो न केवल ऊंच-नीच पर आधारित है बल्कि मूल्यों के हिसाब से न केवल पतित है बल्कि हर तरह के मानवीय मूल्यों के खिलाफ है।
वैसे भी इस देश के भीतर धर्म और राज्य के बीच रिश्ते का फैसला होना ही था। पश्चिमी देशों ने बहुत पहले इस बात को हल कर लिया था। फ्रांस की क्रांति के समय ही यह तय हो गया था कि दोनों के बीच लड़ाई की स्थिति में राज्य का पक्ष मान्य होगा। और धर्म की भूमिका लोगों के निजी जीवन तक सीमित रहेगी। सार्वजनिक तौर पर उसकी भूमिका खत्म हो गयी है। लेकिन भारत में कहने के लिए निजाम सेकुलर जरूर हो गया लेकिन धर्म और राज्य के मिश्रण से एक अजीब तरह का कॉकटेल पैदा हुआ जो कभी सांप्रदायिक कट्टरता के तौर पर तो कभी दंगे को तौर पर सामने आया।
लिहाजा यह आंदोलन न केवल सेकुलरिज्म को स्थापित करेगा बल्कि इस देश में लोकतंत्र की स्थायित्व की गारंटी भी करेगा। अनायास नहीं है महिलाएं नारा लगाते वक्त हमेशा इस बात का ख्याल रखती हैं कि उसमें किसी तरह का धार्मिक तत्व शामिल न हो। वह न केवल सेकुलर हो बल्कि समाज के हर हिस्से को जोड़ने वाला हो।
इसके साथ ही आखिरी बात जो इस आंदोलन और देश की हुकूमत और उसको चलाने वालों से जुड़ी हुई है। देश का इतिहास बताता है कि इस तरह के आंदोलनों के आगे कोई सत्ता अभी तक टिक नहीं पायी है। वह इमरजेंसी रही हो या फिर वीपी सिंह की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई और यहां तक कि अन्ना आंदोलन ने अपने दौर की सत्ताओं को उखाड़ फेंका था। और मौजूदा आंदोलन ने तो उससे भी बड़ा रूप ले लिया है। लिहाजा इस सत्ता का जाना तय है। और उसे इस बात को भी समझना चाहिए कि यह अब महज सीएए और एनआरसी तक सीमित नहीं होने जा रहा है। धीरे-धीरे इसमें बरोजगारी से लेकर महंगाई और समाज के दूसरे मुद्दे पर भी जुड़ते जाएंगे। और फिर इसका जो व्यापक रूप सामने आएगा उसकी आग में मौजूदा निरंकुश सत्ता का ध्वस्त होना तय है।
इस आंदोलन की सबसे खास बात यह है कि इसमें महिलाओं के अलावा समाज का दूसरा सबसे बड़ा, जागरूक और ऊर्जावान तबका युवा उठ खड़ा हुआ है। जेएनयू से लेकर एएमयू और डीयू से लेकर जादवपुर तक सभी परिसर आज अग्रिम मोर्चे पर हैं। इतना ही नहीं अपने काम से काम रखने वाले आईआईटी और आईआईएम ने हिस्सेदारी कर लोगों को अचरज में डाल दिया है। ये दोनों तबके एक तरफ बदलाव और नये भविष्य के सूचक हैं साथ ही अगर युवा समाज के सबसे बाद में आया तबका है तो महिलाएं श्रेणी के लिहाज से आखिरी पायदान का हिस्सा हैं। लिहाजा सचमुच में अगर देश और समाज का कोई नया भविष्य बनता है तो वह इन्हीं दोनों को मिलाकर बनाया जा सकता है।
इस मामले में सबसे दिचचस्प जो बात हुई है वह यह कि इस आंदोलन ने देशविरोधी तत्वों के हाथों से अपने तिरंगे को छीन लिया है। दरअसल अभी तक बीजेपी और संघ समर्थित ताकतें उसका बेजा इस्तेमाल कर रही थीं। और ये ऐसे लोग थे जिन्होंने कभी तिरंगे की इज्जत की ही नहीं। कभी उसे तीन रंगों वाला कहकर अशुभ करार दिया था तो कभी उन्होंने उसे अपने पैरों के नीचे रौंदा था। और अब मौजूदा समय में उसको अपने हाथ में लेकर सबसे बड़ा राष्ट्रवादी बन गए थे। लेकिन बहुत जल्द ही उनकी असलियत सामने आ गयी है जब यह बात बिल्कुल साफ दिखने लगी है कि असली टुकड़े-टुकड़े गैंग सत्ता में बैठे लोग हैं जिन्होंने पूरे देश और समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)
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