लोकतंत्र में मतदाताओं को भरोसा की तलाश है, तो चुनावी भरोसा हो सकता है फिजिटली फिट!

भरोसा बचाना और भरोसा के काबिल बने रहना जीवन सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। बहुत कुछ खोकर भी बचा रहता है भरोसा। भरोसा कि सब कुछ नहीं भी तो, जीने के लिए कुछ-न-कुछ मिल सकता है। उम्मीद पर लोग टिके रहते हैं। जो खो गया सो खो गया, बचा है भरोसा तो काफी है। भरोसा रहता है कि जो खो गया वह फिर मिल सकता है। इसलिए हर हाल में बचाना पड़ता है भरोसा। बंदर का भरोसा डाली पर! कभी इस डाली की ओर तो कभी उस डाली की छोर लपकता रहता है। आदमी के भरोसे का कोई ओर-छोर नहीं! आदमी का भरोसा आदमी ही तोड़ता है, फिर भी आदमी का भरोसा तो आदमी ही होता है, वर्चुअल नहीं असली आदमी। जीवन भर इस सवाल से जूझता रहता है, किस पर, किस-किस पर भरोसा कब तक किया जाये; पाँच साल, दस साल?

मीडिया अंग्रेजी का शब्द है। हिंदी में इसे माध्यम और मध्यस्थ कहा जा सकता है। जीवन में माध्यम और मध्यस्थकी भूमिका बहुत बड़ी होती है। महात्मा बुद्ध ने तो इसे बहुत पहले ही मज्झिम निकाय या मध्य-मार्ग का महत्व समझाया था। ध्यान लगाने में माध्यम के महत्व का पता ध्यान लगानेवाले को मालूम ही होता है। माध्यम, जोड़ता है। जुड़ने की प्रक्रिया मेंवह सहायक बनकर मध्यस्थ रहता है-न इधर, न उधर। न इधर, न उधर होने का मतलब होता है न्याय बिंदु पर टिके रहना। न्याय बिंदु, वह बिंदु है जहां से जुड़े हुए या जोड़ के घटक आगे बढ़ना शुरू करते हैं। माध्यम और मध्यस्थ का कभी इधर, कभी उधर होना उसे बिचौलिया बना देता है। माध्यम और मध्यस्थ तो लाभ-लोभ से निरपेक्ष रहता है। बिचौलिया तो लाभ-लोभ ‎के ही लिए लगा रहता है।

लाभ-लोभ ‎के चक्कर में पड़कर माध्यम और मध्यस्थ की भूमिका से हटकर मीडिया‎बिचौलिया बन जाता है। आज कम-से-कम हिंदी मीडिया, खासकर मुख्य-धारा की तरंगी (Electronic) मीडिया तो साफ-साफ बिचौलिया की भूमिका में आ गया है। तरंगी मीडिया इधर-उधर करते-करते किसी एक तरफ झुका हुआ दिखता है, बल्कि घुसा हुआ दिखता है। तरंगी मीडिया का तो अपना ही न्याय बिंदु खो गया है-दुखद है, मगर सच है! ऐसे में आम नागरिकों के पास सिर्फ सहज बुद्धिमत्ता (Common Sense) का आसरा बचता है।

जीवन में सुख-सुविधा और शांति सुनिश्चित करने के लिए लोकतंत्र जीवन में न्यायपूर्ण समझ, सहानुभूति, सम्मान और समर्पण की बुनियाद रचता है। मनुष्य वस्तु और सुख-सुविधा के अभाव से उतनापीड़ित नहीं रहा है, जितना अन्याय से। मनुष्य के मन में आगे का जबरदस्त आकर्षण रहता है। न्याय समझ और सहानुभूति के साथ आगे बढ़ने का रास्ता देता है। अन्याय आगे बढ़ने के रास्ते को रोकता है, कई बार पीछे भी धकेल देता है। न्याय कारण भी है और कार्य भी, अन्याय भी कारण और कार्य दोनों है। इस जीवन का परम लक्ष्य न्याय है, न्याय में ही मोक्ष है। न्याय का रास्ता लोकतंत्र बनाता है।

यह ठीक है कि किसी भी क्षेत्र में आदर्श को पूरी तरह से पा लेना संभव नहीं हो सकता है, लेकिन यह आदर्श को हासिल करने के आकर्षण में कमी या आदर्श के प्रति हिकारत का आधार नहीं हो सकता है। पूर्ण न्याय-निष्ठ व्यवस्था के संभव न होने की स्थिति को व्यवहार की दुहाई देकर व्यवस्था के आदर्श विरुद्ध होने या आदर्श की अवहेलना की छूट नहीं दी जा सकती है।

राजनीतिक दलों को दिये गये चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎में पारदर्शिता के लिए‎ एडीआर की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी 2024 को अपना फैसला सुनाया था। ‎तदनुसार, 6 मार्च 2024 तक भारतीय स्टेट बैंक को आदेश का अनुपालन करते हुए‎ केंद्रीय ‎चुनाव आयोग को चुनावी चंदा (Electoral Bonds) का विवरण सौंपना था। लेकिन, ‎भारतीय स्टेट बैंक ने 04 मार्च 2024 को प्रार्थना दायर कर दी। 06 मार्च‎ तक इस आदेश के अनुपालन में सक्षम न होने की बात कहकर 30 जून 2024 तक का समय ‎विस्तार मांगा गया है।

भारतीय स्टेट बैंक की इस ‘अक्षमता’ पर उन लोगों के दुख की कोई सीमा नहीं रही होगी जो इसके ‘बड़प्पन’ पर गर्व करते रहे हैं। ग्राहकों की मनःस्थिति की कौन पूछे जिन्हें विश्वास रहा है कि उनका पैसा बैंक में डिजीटली सुरक्षित है। अब तो फिजिटल Phygital‎ (Physical+Digital)‎ की बात की जा रही है। बैंकिंग जगत में जो ‘जगहंसाई’ हो रही होगी अलग, ऑनलाइन गोरखधंधा करने वाले तो ठठा कर हंस ही रहे होंगे।

न सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कुछ कहा है और न भारतीय स्टेट बैंक ने‎ केंद्रीय चुनाव आयोग को चुनावी चंदा (Electoral Bonds) ‎से संबंधित कोई जानकारी केंद्रीय ‎चुनाव आयोग को दिया है। 06 मार्च तक सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अनुपालन न होने पर‎ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने 7 मार्च 2024 को भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के खिलाफ ‎‎‎एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा दायर अवमानना याचिका‎‎ (Contempt Petition) पर तत्काल ‎‎सुनवाई की मांग की है। इस बहु-प्रतीक्षित मामले में ‎न्यायिक प्रक्रिया की गति और उसका ‘अंतिम परिणाम’ देखना दिलचस्प होगा।

चुनावों पर धन का दखल ‎उस हद तक पहुंच गया है, जहां वह लोकतंत्र के लिए प्राणघातक हो गया है। चुनावी चंदा‎‎ (Electoral Bonds) ‎योजना को सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक बता चुका है। असंवैधानिक तरीके ‎से जमा किए गये धन के चुनाव में इस्तेमाल को रोकने का कोई तरीका भी हो ही सकता है।‎ लेकिन यह अभी बाद की बात है।अभी इंतजार करना होगा ।‎वैसे, जब ईवीएम (EVM) को लेकर इतनी आशंकाएं व्यक्त की जा रही है और कठिन कार्य में ‎‎‘डिजिटल’ की अनिवार्यता को दूर किया जा सकता है तो क्यों न चुनाव प्रक्रिया के भी ‎‎‘फिजिटली’ फिट होने की बात पर गौर किया जाये! लोकतंत्र में मतदाताओं को भरोसा की‎त लाश है, ‎तो चुनावी भरोसा हो सकता है फिजिट ली फिट!‎

त्रासदी तो यह है कि असंवैधानिक योजना को तैयार करनेवाली सरकार के लोगों को किसी भी स्तर पर इसकी संवैधानिकता को लेकर कभी कोई संदेह नहीं हुआ, सच! असंवैधानिक घोषित हने पर भी ग्लानि या क्षमायाची मुद्रा में कोई नहीं है! ऐसा है ‘विवेक का पासंग’! लोगों की राष्ट्र भक्ति का प्रमाण पत्र बांटते-बांटते कब वे लोकतंत्र विरोधी हो गये, किसी को पता ही नहीं चला!उन्हें ‘संदेह’ है लोगों की नागरिकता को लेकर। नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019)‎ को जोरदार तरीके से लागू करने की बात की जा रही है।

जल-जमीन-जंगल में मची लूट-खसोट का मामला हो, लोकतंत्र में छल का मामला हो या नागरिक अधिकार के मामले मुख्य-धारा की तरंगी मीडिया सरकार के मुख और रुख के संकेत को पढ़कर मनगढ़ंत तर्क-वितर्क और वगवितंडा का ऐसा तूमार खड़ा कर लिया जाता है कि तरंगी चर्चा के कोलाहल में मुख्य सवाल ही पीछे और बहुत पीछे चला जाता है। लोकतंत्र विरोधी राष्ट्र भक्ति के माहौल में ऐसे मुद्दे जनता के मन में जब तक ठीक से दर्ज हो उसके पहले फिर कोई नया इपिसोड लेकर तरंगी मीडिया सामने आ जाता है। कहा जाता है कि समस्या के मूल स्रोत में ही कहीं-न-कहीं समाधान का भी बीज छिपा रहता है। वैकल्पिक तरंगी मीडिया न होता तो किसी को ‘आंखों-कानों’ कोई खबर लगती ही नहीं, शायद।

आज-कल गारंटी बहुत बांटी जा रही है, वह भी मुफ्त! प्रधानमंत्री ने 14 नवंबर 2016 को कहा था कि लोग₹500 और ₹1000 के नोटों के विमुद्रीकरण में सहयोग करें। प्रधानमंत्री ने अपील करते हुए आम नागरिकों को ‘50 दिनों’ तक ‘दर्द’ सहने केलिए कहा था। ‎‘दर्द’सहने‎‘सपनों का भारत’ देने में प्रधानमंत्री को मदद मिलेगा। लोगों ने ‘दर्द सह लिया’! ‘लोगों के सपनों का भारत’ पता नहीं! क्या पता किसी को मिल ही गया हो!

गोवा के मोपा हवाई अड्डे के शिलान्यास समारोह में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने ‘दर्द सहने’ की मियाद के बारे में 30 दिसंबर 2016 की तारीख का जिक्र किया था। प्रधानमंत्री ने और भी बहुत सारी अच्छी योजनाओं, परियोजनाओं को लाने, 70 साल की लूट और भ्रष्टाचार रोकने के विविध उपायों आदि की बात कही थी। देश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बहुत उम्मीद थी। जी उम्मीद! बिना गारंटी के ही कितना कुछ मिला और अब आज तो, गारंटी पर गारंटी फिर उसके भी ऊपर ‘मोदी की गारंटी’। जिधर नजर पड़ जाये बक गारंटी ही गारंटी। भरमार गारंटी, बटमार गारंटी!

‘140 करोड़ का इतना बड़ा परिवार’ संभालना कोई आसान काम तो है, नहीं। यहां तो लोगों को ‘हम दो, हमारे दो’ को ही संभालना कठिन हो गया है! अब यह कठिन काम दूसरा कौन कर सकता है? जनता ताज्जुब में है और सोच रही है दूसरा कौन कर सकता है! क्या पता दूसरा कोई है या नहीं, उन्हें पूरा भरोसा है, और भरोसा की पक्की गारंटी है-“एको हैं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति”! मतदाताओं को भरोसा की तलाश है, लोकतंत्र है, तो भरोसा है। लोकतंत्र में मतदाताओं को भरोसा की ‎तलाश है, ‎तो चुनावी भरोसा हो सकता है फिजिटली‎ फिट!‎

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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