आर्थिक पैकेज के नाम पर झुनझुना

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देश के तमाम आर्थिक वर्गों में से ज्यादातर के लिए इस पैकेज में नहीं है कुछ

केंद्र के हर फैसले के बाद यह सोचने की मजबूरी होती है कि आखिर सरकार के आर्थिक नीति निर्धारकों को भारत की वास्तविक दशा- दिशा का जरा भी अंदाजा क्यों नहीं है! वित्तमंत्री ने जिस तरह कोरोना महामारी के इस अभूतपूर्व और भयावह दौर में भी बेसिर पैर का आर्थिक पैकेज देश के नाम घोषित किया, उससे यह हैरानी अब और बढ़ गई है। सरकार के इस पैकेज में मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के लिए कुछ भी नहीं है, जो सबसे ज्यादा तनाव में जीने को मजबूर है।
ऐसा नहीं है कि भारत अकेला ही दुनिया में कोरोना का शिकार होकर आर्थिक इंतजाम कर रहा है। पूरी दुनिया में इसके लिए आर्थिक पैकेज घोषित किए जा रहे हैं। मगर भारत में स्थिति और हालात बाकी दुनिया से अलग है। यहां न सिर्फ आबादी दुनिया में दूसरे नंबर पर है बल्कि यहां अति निर्धन, निर्धन, निम्न आय वर्ग, मध्यम आय वर्ग में आने वाले लोगों की अच्छी खासी तादाद है।
इस वर्ग में मजदूर, किसान अन्य श्रमिक, नौकरीपेशा, छोटे/मझोले व्यापारी आदि न जाने कितने लोग ऐसे हैं, जिनके लिए यह लॉक डाउन इनकी रोटी, दाल, दवा, इलाज, रोजगार, व्यापार आदि के लिए फुल स्टॉप बन कर आया है। इन वर्गों में से भी, जो जरा बेहतर आर्थिक स्थिति में हैं, वे भले ही इस लॉक डाउन को झेलने के नाम पर घर में राशन आदि जमा करके या ऑनलाइन/रोजाना खरीदारी करके थोड़ा बेहतर स्थिति में नजर आ रहे हैं मगर अपनी आर्थिक स्थिति के बदहाल हो जाने को लेकर वे भी ख़ासे ख़ौफ़ ज़दा हैं।
दरअसल ऐसे लोग भी इसलिए ख़ौफ़ ज़दा हैं क्योंकि उनकी कार, घर या अन्य तमाम ऐशो आराम के साधन लोन पर हैं। इसके चलते उन पर ऑटो, होम, पर्सनल, क्रेडिट कार्ड, बीमा, म्युचुअल फंड आदि लोन/निवेश की भारी भरकम किश्तें भी लदी हुई हैं। इसके अलावा कई लोगों के लिए घर का किराया, बिजली, ब्रॉडबैंड/इंटरनेट, मोबाइल आदि के तमाम तरह के मासिक खर्च का भी अच्छा खासा बोझ रहता ही है।
हर कोई सरकारी नौकरी में नहीं है। इस लॉकडाउन के लंबा खिंचने या कंपनियों के इस कोरोना महामारी से घाटे में जाने पर निजी क्षेत्र में काम करने वालों की सेलरी या नौकरी पर असर पड़ेगा। यही नहीं, सेविंग के नाम पर उनके पास जो थोड़ा बहुत पैसा होगा भी, वह भी इसी इमरजेंसी सिचुएशन या इसके लंबा खिंचने अथवा इसके बाद हालात संभालने के नाम पर कुर्बान हो ही जाना तय है।
यह लॉकडाउन छोटे और मझोले व्यापारियों का कारोबार एक-एक दिन करके डुबा रहा है। वह या तो कर्ज में डूब रहे हैं, या फिर खात्मे की तरफ ही बढ़ रहे हैं। इसकी वजह है कि हर व्यापार लगभग रोज या हफ्तावार/ महीने की ही कमाई पर जिंदा रहता है ।
अगर उसकी कमाई पर इसी तरह ब्रेक लगा रहा तो पहले तो आमतौर पर कर्ज या निवेश पर ही खड़े हुए / चल रहे ज्यादातर व्यापार इस दौरान खासा नुकसान उठा चुके होंगे। फिर लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी दोबारा देश में कारोबारी माहौल बनने तक यानी महीनों तक लगातार नुकसान उठाते ही रहेंगे। जाहिर है कि इतना नुकसान झेल पाना इन छोटे / मझोले व्यापारियों के बूते की बात होती तो भला उनका व्यापार अब तक कर्ज पर ही निर्भर क्यों होता?

जिसको कुछ न कुछ देने का ऐलान भी किया, उस तक राशन और पैसा पहुंचाने लाने लायक तंत्र भी नहीं है भारत के पास
सरकार का पैकेज देखें और खुद ही तय कर लें कि देश को लाखों करोड़ रुपये की मदद देने का स्वप्न दिखाकर यह सरकार आखिर इन सभी वर्गों में से किसे कितना वास्तव में दे पा रही है? जहां तक बात है गरीबों को इस लॉक डाउन के दौरान राशन मुफ्त देने या उनके अकाउंट में सीधे रकम ट्रांसफर करने की, तो यह तब वास्तविक माना जा सकता था, जब सरकार के पास ऐसा पुख्ता वितरण तंत्र होता, जो देश के हर गरीब तक वास्तव में यह राशन अथवा पैसे पहुंचा पाता।
बहरहाल, ऐसा लगता है कि देश आर्थिक तबाही की तरफ उस दिन से लगातार बढ़ रहा है,  जिस दिन से नरेंद्र मोदी और उनके आर्थिक नीति निर्धारकों ने देश में अनाप शनाप आर्थिक नीतियां लागू करनी शुरू कर दी हैं। कोरोना के दौरान घोषित आर्थिक पैकेज उसी बर्बादी की एक छोटी सी कड़ी है।

(अश्विनी कुमार श्रीवास्तव नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान और बिजनेस स्टैंडर्ड अखबारों में लंबे समय तक आर्थिक पत्रकारिता करने के बाद इस समय वह रियल एस्टेट कारोबार से जुड़े हैं और ड्रीम्ज इन्फ्रारियल्टी प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक और सीएमडी हैं।)

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