दिल्ली का दिल, ईश्वर की महिमा और दिवाली के पटाखों से और प्रदूषित हुई हवा में हांफता फेफड़ा

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नई दिल्ली। ‘दिल्ली दिल वालों की’, विज्ञापन की यह भाषा दिल्ली वालों को भी भली लगती है। यह अलग बात है कि यहां दिल और फेफड़े दोनों के स्वस्थ बने रहने के लिए जिस हवा और पानी की जरूरत है, वह बेहद खराब स्थिति में है। खासकर, हवा इतनी खराब स्थिति में है कि बच्चों की पढ़ाई तक को रोक देना पड़ता है। अस्पताल में मरीजों की संख्या में इस तरह इजाफा होता है कि राज्यपाल को दिल्ली के निवासियों को सलाह देनी पड़ती है कि यदि बेहद जरूरी न हो तो घर में ही रहें।

धुंध से भरे इस नवम्बर में गाड़ी से सड़क पर चलते समय दिन में भी हेडलाइट जलाकर चलना पड़ता है। सांस के लिए जूझते दिल्ली वालों का फेफड़ा भले काला पड़ रहा हो, लेकिन दिल उसका धड़कता है। इस दीपावली उसने इसे साबित भी किया। उसने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की धज्जियां उड़ाते हुए दिल्ली को गैस चैम्बर बना दिया।

दीपावली के एक दिन पहले तक हिमालय से उतरने वाली हवाओं ने 4 से 5 किमी की रफ्तार को बनाये रखा और दिल्ली को पिछले आठ साल में इस तारीख को सबसे साफ हवा का तोहफा दिया। खिली हुई धूप में सुबह की गुलाबी ठंड का अहसास पर पटाखों की गूंज ने मानों हमला ही कर दिया। दीपावली की शाम के साथ-साथ पटाखों की गूंज जितनी तेजी से बढ़ी, ऐसा लगा ही नहीं कि दिल्ली और एनसीआर में पटाखों पर प्रतिबंध लगा हुआ है।

सुबह होने तक आनंद विहार पर हवा की गुणवत्ता सूचकांक 900 पार कर गया। पूरी दिल्ली और नोएडा, गुडगांव जैसी जगहों पर हवा खतरनाक स्तर पर प्रदूषित हो गई। इस दिल्ली की हवा को बर्बाद करने वाले कारकों में दिल्लीवासी ही थे। जैसे पटाखों से उड़ने वाली धूल और गैस हवा में घुलती गई, हिमालय से उतर कर आने वाली हवा का जोर भी कम पड़ने लगा और यह सुबह होने तक 0.5 किमी के आसपास आ गई।

दिल्ली के प्रदूषण को लेकर उच्च न्यायालय दिल्ली सरकार को झाड़ लगाने में जुटा हुआ था। वह दिल्ली की बची रह गई जमीन को जंगल क्षेत्र घोषित करने के लिए आदेश पारित कर रहा था और पेड़ लगाने के लिए अभियान चलाने पर जोर दे रहा था। साथ ही, दूसरे राज्यों के साथ समन्वय बनाने और दिल्ली में गाड़ियों के परिचालन पर सलाह दे रहा था।

वहीं, राष्ट्रीय हरित अधिकरण पंजाब को पराली जलाने को लेकर नोटिस जारी कर रहा था। वह दिल्ली में कूड़ा जलाने और प्रदूषण दूर करने वाले संयंत्रों के काम न करने पर सरकार और अधिकारियों से जबाब मांग रहा था। खुद दिल्ली सरकार प्रदूषण के सूचकांकों के आधार पर गाड़ियों के परिचालन, निर्माण कार्य और औद्योगिक गतिविधियों को लेकर निर्देश जारी कर रही थी।

लेकिन, सबसे अधिक चर्चित मसला सर्वोच्च न्यायालय में चला। माननीय न्यायधीश महोदय ने तो पराली की समस्या से निपटने के लिए पंजाब में खेती की व्यवस्था को ही पूरी तरह बदल देने पर अड़ गये। उनका कहना था कि दिल्ली के करोड़ों लोगों की सांस लेने का सवाल है। इसे गैस चैम्बर में नहीं बदला जा सकता। वह दिल्ली सरकार की भी लानत मलामत कर रहे थे।

इस सुनवाई के दौरान ही दिल्ली में हल्की बारिश हुई। आसमान साफ हो गया। हवाओं ने करामात दिखाया, और दिल्ली में खुशनुमा मौसम बन गया। माननीय न्यायधीश महोदय ने इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया। उनके शब्दों में, यहां के निवासियों की बात ईश्वर ने सुन लिया।

लेकिन, ऐसा लगता है कि खुद दिल्ली वासियों ने न्यायाधीश महोदय की बात नहीं सुनी। दीपावली की रात पटाखा जलाने को जो उत्साह दिखा उससे तो यही लगा कि यह लोग खुद अपनी भी नहीं सुनने की स्थिति में थे। न्यायाधीश महोदय द्वारा ईश्वर की तारीफ और प्रदूषण रोकने के लिए सुझाये गये उपाय और कई तरह के प्रतिबंधों का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। प्रदूषण की ऐसी भयावह अराजकता आसमान में रोशनी बनकर बड़े जोर से फटकर धुंए का गुबार बनाते हुए हवा में धीरे-धीरे घुलते हुए लोगों के फेफड़ों में उतरने लगी।

ऐसा नहीं है कि दिल्ली वाले दिल की बात नहीं सुनते हैं या प्रदूषण को लेकर चिंतित नहीं हैं। वे इसे लेकर खूब चिंतित हैं और वे इसे लेकर लंबे समय से प्रदूषण दूर करने वाले उपायों और उसकी असफलता को भी देख रहे हैं। कोर्ट की बहसों में सबसे बड़ा मुद्दा पंजाब का पराली बना हुआ है। पिछले साल तक मीडिया में भी यही सबसे बड़ा कारण था। ऐसे में, यह एक आम समझ बन ही जाती है कि दिल्ली का प्रदूषण बाहर से हो रहा है।

दूसरा, नवम्बर के महीने में प्रदूषण की मात्रा अचानक तेजी से बढ़ने के कारकों में खुद दिल्ली वालों की क्या भूमिका हो सकती है, यह बताने की बजाय विविध तरह के प्रतिबंधों का सहारा लिया जाता है। खासकर, पटाखों पर प्रतिबंध। इसे लेकर, न तो कोई राजनीतिक पहलकदमी होती है और न ही इस संदर्भ में प्रचार-प्रसार। तीसरे, प्रशासन की ओर से उठाये गये कदम बेहद कमजोर होते हैं। दिल्ली में टनों पटाखों की आपूर्ति यूं ही तो नहीं हो जाती।

चौथा, खुद दिल्ली सरकार नवम्बर के महीने के संदर्भ में पहले से कितना तैयार रहती है? एक महीने के लिए निर्माण कार्य, गाड़ियों का परिचालन और प्रदूषण दूर करने वाले उपायों पर जिस तरह काम होना चाहिए, वह नहीं दिखता है और इस पर काम होना तभी शुरू होता है जब दिल्ली के आसमान में धुंध उतर आता है। पांचवां, केंद्र की सरकार इस संदर्भ में दिल्ली को लेकर न तो कोई एकीकृत योजना बनाती है और न ही इस दिशा में कोई दूरगामी उपाय के लिए किसी आयोग के गठन की तरफ बढ़ते हुए दिख रही है। यहां बेहद गंभीर चुप्पी है।

दिल्ली का प्रदूषण एक ऐसी त्रासद नाटक का मंचन है, जिसका अंत एक अनुसना कर दिये संवाद पर खत्म होता है। यह सवाल बना रहता है कि प्रदूषण किसने फैलाया। कभी ब्रूटश की बात होती है, और एक निराशा भरी आह निकलती है; ओह, तुम भी! कई बार एक दूसरी आवाज आती है; ओह, यह हम ही थे, हम थे!

दिल्ली के प्रदूषण का प्रहसन फिलहाल, पटाखों के साथ शुरू होकर एक ऐसी त्रासद सुबह में बदला, जिसकी उम्मीद नहीं करना ही बेहतर था। लेकिन, एक बार फिर दिल्ली सबसे प्रदूषित शहरों में सबसे ऊपर के पायदान पर है। उम्मीद करिये, हवा का रुख बदले और हिमालय अपनी ठंडी हवाओं के साथ हम सभी को राहत दे।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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