Thursday, April 25, 2024

बंजर जमीन पर वनीकरण की हकीकत

क्षतिपूरक वनीकरण हास्यास्पद कवायद बन गई है। इसके अंतर्गत बंजर और पथरीली जमीन पर पौधे पनपाने की कोशिश होती है जिस जमीन पर पहले कभी कुछ नहीं पनपा। विभिन्न विकास योजनाओं की वजह से हुए वन-विनाश की क्षतिपूर्ति करना कानूनी बाध्यता है। मगर विनाश बेहतरीन किस्म के घने जंगलों का होता है, क्षतिपूर्ति अलग अलग टूकड़ों में फैली बंजर जमीन पर पौधे लगाकर होती है। इस काम के लिए सरकारी खजाने में हजारों करोड़ रुपए जमा हैं, मगर वनीकरण की फलप्रद योजना नहीं बनती।

क्षतिपूरक वनीकरण अनोखे ढंग की कानूनी बाध्यता है। विकास योजनाओं जैसे-राजपथों का निर्माण, पनबिजली परियोजनाएं और खनन इत्यादि के लिए वनों की कटाई की अनुमति देने में क्षतिपूर्ति की शर्त रहती है। क्षतिपूरक वनीकरण कोष (सीएएफ) अधिनियम 2016 के अंतर्गत परियोजना विकासकर्ता चाहे सरकारी हो या निजी, उसे वन विनाश के एवज में क्षतिपूरक रकम का भुगतान करना होता है और विभिन्न प्रकार के शुल्क अदा करना पड़ता है। इस रकम को वनीकरण में ही खर्च किया जा सकता है। 

खोजी पत्रकारों के अंतराष्ट्रीय संगठन के साथ मिलकर इंडियन एक्सप्रेस की खोजबीन में क्षतिपूरक वनीकरण की हकीकत उजागर हुई है। यह वर्ष 2030 तक 2.5 से 3 खरब टन कार्बन सोखने के लिए आवश्यक मात्रा में वन क्षेत्र सृजित करने की भारत की प्रतिबद्धता के लिहाज से भी जरूरी है। भारत ने वैश्विक जलवायु सम्मेलन में इस प्रतिबध्दता की घोषणा की थी। वन सृजन में अनेक अन्य कार्यक्रम जैसे ग्रीन इंडिया मिशन, नमामी गंगे और मनरेगा की भी भूमिका है। पर क्षतिपूरक वनीकरण सबसे महत्वपूर्ण है और इसके लिए जरूरी धन भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।

क्षतिपूरक वनीकरण अधिनियम बनने के बाद 2016 से इस मद में 66 हजार करोड़ जमा हुए हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इसमें से 55 हजार करोड़ पिछले पांच वर्षों में संबंधित राज्यों को भेज दी गई है ताकि इससे वृक्षारोपण किया जा सके जो कुछ वर्षों में वन के रूप में विकसित हो सके। हालांकि इस रकम का केवल 40 प्रतिशत करीब 22 हजार 466 रुपए वनीकरण के लिए आवंटित किए जा सके हैं। बाकी रकम राज्य सरकारों के पास पड़ी हुई हैं।

सरकारी अधिकारी बताते हैं कि वनीकरण में आवंटित रकम का इस्तेमाल विभिन्न चरणों में ही किया जा सकता है। रिकॉर्ड बताते हैं कि वनीकरण के लिए चिन्हित जमीन में से 90 प्रतिशत जगहों पर काम आरंभ किया जा चुका है। लेकिन असल समस्या पैसे को लेकर नहीं है। घने जंगलों वाले राज्य छत्तीसगढ़ और ओडिशा में वनीकरण के आवंटित स्थलों का मुआयना करने पर स्पष्ट होता है कि क्षतिपूर्ति के रूप में जो वन लगाए जा रहे थे, वे उन वनों के सदृश्य कतई नहीं हैं जिनका विनाश हुआ है।

इसका कारण यह भी है कि नए रोपे गए पौधों के वृक्ष बनने और फिर जंगल के रूप में विकसित होने में कई वर्ष लगते हैं जबकि विनाश पूर्ण विकसित जंगलों का होता है। अधिकतर क्षतिपूरक वन अभी नए हैं लेकिन सबसे बड़ी समस्या उस जमीन को लेकर है जिसपर नया वनीकरण किया जा रहा है। इसे उदाहरणों से समझा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धमतरी में नए राजमार्ग के निर्माण के लिए घने वन को साफ किया गया है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 228 हेक्टेयर में पसरे करीब 87 हजार पेड़ काटे गए। रिकॉर्ड से यह भी पता चलता है कि क्षतिपूरक वनीकरण के लिए 457 हेक्टेयर जमीन आवंटित की गई है जिसपर करीब 5 लाख पौधे लगाए जाने हैं। क्षतिपूरक वनीकरण के लिए आवंटित जमीन का कुल मिलाकर क्षेत्रफल तो करीब दोगुना है लेकिन यह जमीन एक जगह नहीं है। अलग अलग 19 जगहों पर फैली हुई है और मोटेतौर पर बंजर है।

रायपुर से करीब 150 किलोमीटर पूरब भिलाईगढ़ में एक रेल परियोजना के लिए कटे वन के बदले पौधारोपण किया गया है। यह थोड़ा पुराना पौधारोपण है। लेकिन जमीन पथरीली है, जहां पहले कुछ नहीं हुआ है। यहां तीन टूकड़ों में पौधारोपण हुआ है। तीन वर्ष पहले हुए पौधारोपण में एक जगह तो पौधे पनपे हैं, बाकी दो में पौधे पनपने की संभावना नहीं दिख रही। क्षतिपूरक वनीकरण के विभिन्न स्थलों पर एक जैसी स्थिति दिखती है।

ओडिशा के कालाहांडी में कई वनीकरण स्थल ऐसे हैं जहां सभी पौधे सूख गए हैं। जमीन बंजर पड़ी है। वन विभाग के एक रिटायर अधिकारी ने कहा कि क्षतिपूरक वनीकरण नाम की ही क्षतिपूरक है। वनीकरण का विचार बुरा नहीं है बल्कि काफी उपयोगी हो सकता है। परन्तु वन उपजाऊ जमीन पर लगाए जाएं तभी उसका कोई लाभ हो सकता है। हालांकि प्राकृतिक रूप से पनपे वनों में केवल पेड़ नहीं होते, उसके साथ समूची पारिस्थितिकी होती है।

क्षतिपूरक वनीकरण से एक नई समस्या भी उत्पन्न हो रही है। कई जगह वन अधिकारियों ने आदिवासियों की जमीन पर पेड़ लगा दिए हैं। गांव की सार्वजनिक उपयोग की जमीन-चारागाह आदि पर पौधारोपण कर दिया गया है। यह वनाधिकार कानून के उलट है जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि आदिवासी और दूसरे वनवासी समुदाय जिस जमीन पर निवास करते हैं या आजीविका के लिए निर्भर हैं, वह जमीन उनकी मिल्कियत है। उसका कोई दूसरा उपयोग नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार, क्षतिपूरक वनीकरण की कुल हकीकत सरकारी खजाने में जमा बड़ी रकम और बंजर जमीन पर वन लगाने की निष्फल प्रयास के रूप में सामने आया है। 

(अमरनाथ झा वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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