Tuesday, March 19, 2024

चंद्रकांत देवताले की पुण्यतिथिः ‘हत्यारे सिर्फ मुअत्तिल आज, और घुस गए हैं न्याय की लंबी सुरंग में’

हिंदी साहित्य में साठ के दशक में नई कविता का जो आंदोलन चला, चंद्रकांत देवताले इस आंदोलन के एक प्रमुख कवि थे। गजानन माधव मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवियों की परंपरा से वे आते थे। अपने अग्रज कवियों की तरह उनकी कविताओं में भी जनपक्षधरता और असमानता, अन्याय, शोषण के प्रति विद्रोह साफ दिखलाई देता है।

निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे चंद्रकांत देवताले ने बचपन से ही अपने जीवन में अभाव, अन्याय देखा और इसे भुगता भी। यही वजह है कि उनकी कविताओं में निर्ममतम यथार्थ और व्यवस्था के प्रति गुस्सा दिखाई देता है। देवताले की ज्यादातर कविताएं प्रतिरोध की कविताएं हैं। चंद्रकांत देवताले को पढ़ने-लिखने का शौक बचपन से ही था। उनके बड़े भाई के मित्र प्रहलाद पांडेय ‘शशि’ जो एक क्रांतिकारी कवि थे, उनकी कविताओं का देवताले के बाल मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। ‘शशि’ के अलावा सियाराम शरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और कथाकार प्रेमचंद और यशपाल की कहानियों ने उनके लड़कपन की रुचियों को आकार दिया और तपाया।

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर जैसे राष्ट्रवादी कवियों को सुन-पढ़कर वे जवां हुए थे। खास तौर पर मुक्तिबोध की कविताओं ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था। उनकी कविता ‘बुद्ध की वाणी’ को वे बार-बार पढ़ते थे। मुक्तिबोध के प्रति देवताले की ये दीवानगी ही थी कि जब हिंदी साहित्य में पीएचडी की बारी आई, तो कवि के तौर पर उन्होंने मुक्तिबोध को ही चुना।

मुक्तिबोध को जानना, उनके जीवन की बहुत बड़ी घटना थी। अपने एक वक्तव्य में उन्होंने खुद यह बात स्वीकारी थी, ‘‘जादू की छड़ी, सृजनात्मक और एक बैचेनी देने वाला पत्थर, एक घाव, एक छाया, ये तमाम चीजें एक साथ मुक्तिबोध से मुझे प्राप्त हुईं।’’

मुक्तिबोध के अलावा महात्मा गांधी की किताब ‘हिंद स्वराज’ का भी उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा। अपने लेख ‘किताबें और मैं’ में वे लिखते हैं, ‘‘साल 1955 में महाविद्यालयीन वाद-विवाद प्रतियोगिता में महात्मा गांधी का ‘हिंद स्वराज’ और विनोबा की ‘गीता प्रवचन’ किताब द्वितीय पुरस्कार में प्राप्त हुई। ‘हिंद स्वराज’ ने सोचने के लिए स्वतंत्रता, संप्रभुता, देशीयता और अपने समय, समाज, गांव, जीवन की धड़कन के वे संकेत दिए, जो आज के भूमंडलीकरण और बाजारवाद की चपेट में अभी भी हमें बचा सकते हैं।’’

चंद्रकांत देवताले ने साल 1952 में अपनी पहली कविता लिखी, जो साल 1954 में ‘नई दुनिया’ में प्रकाशित हुई। साल 1957 तक आते-आते उनकी कविताएं उस दौर की चर्चित पत्रिकाओं ‘धर्मयुग’ और ‘ज्ञानोदय’ में भी प्रकाशित हो गईं। चंद्रकांत देवताले की पढ़ाई पूरी हुई, तो रोजगार का संकट पैदा हो गया। चूंकि चंद्रकांत देवताले को लिखने-पढ़ने का शौक था, लिहाजा उन्होंने अखबार में नौकरी कर ली। अखबारों में उन्होंने कुछ समय काम किया, लेकिन ये नौकरी उन्हें रास नहीं आई। बाद में वे अध्यापन में आ गए। मध्य प्रदेश के विभिन्न राजकीय कालेजों में उन्होंने अध्यापन किया और यहीं से वे रिटायर हुए। 

मालवा की मिट्टी से कई बड़े कवियों का नाता रहा है, जिसमें मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, प्रभाकर माचवे, प्रभागचंद्र शर्मा और माखनलाल चतुर्वेदी प्रमुख हैं। इन बड़े कवियों की बीच पहचान बनाना कोई आसान काम नहीं था। चंद्रकांत देवताले ने इन बड़े कवियों के बीच न सिर्फ अपनी एक अलग पहचान बनाई, बल्कि कविता का एक नया लहजा ईजाद किया, जो इन कवियों से उन्हें जुदा दिखलाता है।

चंद्रकांत देवताले की संवेदनात्मक जड़ें आखिर तक मध्यप्रदेश के गोंडवाना-महाकौशल और मालवा के उस अंचल में रहीं, जिसमें उन्होंने अपनी जिंदगी का ज्यादातर वक्त बिताया। इस अंचल के लोक जीवन को उन्होंने अपनी कविता का विषय बनाया। स्थानीय बोली और यहां की संस्कृति के दर्शन भी उनकी कविताओं में होते हैं। आदिवासियों, दलित जीवन और उनकी समस्याओं, संघर्षों पर देवताले ने जमकर लिखा। सरल शब्दों में लिखी उनकी कविताओं में गजब की संप्रेषणीयता है।

इक्यासी साल के लंबे जीवन में चंद्रकांत देवताले के कई कविता संग्रह संग्रह आए, जिनमें प्रमुख हैं ‘हड्डियों में छिपा ज्वर’ (1973), ‘दीवारों पर खून से’ (1975), ‘लकड़बग्घा हंस रहा है’ (1980), ‘रोशनी के मैदान की तरफ’ (1982), ‘भूखंड तप रहा है’ (1982), ‘आग हर चीज में बताई गई थी’ (1987), ‘पत्थर की बेंच’ (1996), ‘इतनी पत्थर रोशनी’ (2002), ‘उसके सपने’ (1997), ‘बदला बेहद महंगा सौदा’ (1995), ‘उजाड़ में संग्रहालय’ (2003), ‘जहां थोड़ा सा सूर्योदय होगा’ (2008), ‘पत्थर फेंक रहा हूं’ (2011)। इन कविता संग्रह के अलावा ‘मुक्तिबोध: कविता और जीवन विवेक’ उनकी आलोचनात्मक किताब है, जिसमें उन्होंने मुक्तिबोध की कविताओं की सामाजिक विवेचना की है। ‘दूसरे-दूसरे आकाश’, ‘डबरे पर सूरज का बिंब’ ऐसी दो किताबें हैं, जिनका उन्होंने संपादन किया।

चंद्रकांत देवताले ने मध्यकाल के प्रमुख मराठी संत तुकाराम के अभंगों और आधुनिक काल के प्रमुख मराठी कवि दिलीप चित्रे की कविताओं का हिंदी में शानदार अनुवाद भी किया था। अनेक भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में देवताले की कविताओं का अनुवाद हुआ। उन्होंने बर्तोल्त ब्रेख्त की कहानियों का नाट्य रूपांतरण भी किया, जो ‘सुकरात का घाव’ और ‘भूखण्ड तप रहा है’ के शीर्षक से प्रकाशित हुईं।

चंद्रकांत देवताले अपनी दीर्घ काव्य साधना के लिए कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाजे गए। इनमें प्रमुख सम्मान और पुरस्कार हैं ‘मुक्तिबोध फेलोशिप’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार’, मध्य प्रदेश शासन का ‘शिखर सम्मान’, ‘सृजन भारती सम्मान’, ‘कविता समय पुरस्कार’, ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, ‘पहल सम्मान’। कविता संग्रह ‘पत्थर फेंक रहा हूं’ के लिए उन्हें साल 2012 का ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार भी मिला।

स्त्रियों पर चंद्रकांत देवताले ने कई अच्छी कविताएं लिखीं हैं। स्त्रियों के प्रति उनके मन में बड़ा सम्मान था, जो कि कविताओं में भी साफ दिखलाई देता है। वे स्त्री को पुरुष के मुकाबले ज्यादा मजबूत मानते थे। उसे पुरुष के ऊपर रखते थे। अपनी एक कविता में वे स्त्री की जिजीविषा और उसका मानव जीवन में महत्व प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं,
फिर भी
सिर्फ एक औरत को समझने के लिए
हजार साल की जिंदगी चाहिए मुझको
क्योंकि औरत सिर्फ भाप या बसंत ही नहीं है
एक सिम्फनी भी है समूचे ब्रह्मांड की
जिसका दूध, दूब पर दौड़ते हुए बच्चे में
खरगोश की तरह कुलांचे भरता है
और एक कंदरा भी है किसी अज्ञात इलाके में
जिसमें उसकी शोक मग्न परछाईं
दर्पण पर छाई गर्द को रगड़ती रहती है

हिंदी साहित्य में मां पर जो अच्छी और भावपूर्ण कविताएं लिखी गई हैं, उनमें चंद्रकांत देवताले की कविताएं भी शामिल हैं। कविता ‘मां पर नहीं लिख सकता कविता’ में मां की ममता के प्रति वे अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखते हैं,
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चंद्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा
मां पर नहीं लिख सकता कविता

चंद्रकांत देवताले एक विचार संपन्न कवि थे। अपने समाज से उनका हमेशा जीवंत संपर्क रहा। कई राजनीतिक आंदोलनों और लेखक संगठनों से भी उनका गहरा संबंध रहा। समाज के सूक्ष्म पर्यवेक्षण की उनमें बड़ी खूबी थी। इंदौर में कम्युनिस्ट लीडर होमी दाजी के संपर्क में आकर, एक बार उन्होंने समाजवाद का जो ककहरा सीखा, फिर इस विचार से उनका नाता कभी नहीं छूटा। आखिर तक वे इस विचार पर कायम रहे।

कर्मकांड, रूढ़िवाद, यथास्थितिवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और साम्राज्यवाद जैसी मानवता विरोधी प्रवृतियों का उन्होंने अपनी कविता में हमेशा विरोध किया। मानव जीवन की गरिमा के पक्ष में उनकी कविता हमेशा खड़ी रहीं। उनकी एक नहीं, कई ऐसी कविताएं मिल जाएंगी, जो आम जन को संघर्ष के लिए प्रेरित करती हैं।

मैं रास्ते भूलता हूं
और इसीलिए नए रास्ते मिलते हैं
मैं अपनी नींद से निकल कर प्रवेश करता हूं
किसी और की नींद में
इस तरह पुनर्जन्म होता रहता है
एक जिंदगी में एक ही बार पैदा होना
और एक ही बार मरना
जिन लोगों को शोभा नहीं देता

(‘पुनर्जन्म’)

चंद्रकांत देवताले ने देश की गुलामी, आजादी और बंटवारा देखा, तो आजादी के बाद इमरजेंसी, 1984 के सिख विरोधी दंगे और साल 2002 में गुजरात का नरसंहार भी देखा। देश में जब भी मानवविरोधी प्रवृतियां आकार लेतीं, उनका हृदय भावुक हो जाता। सच को सच कहने में उन्होंने कभी गुरेज नहीं किया। न किसी के डर से उनकी कविता की आग ठंडी हुई। बल्कि ऐसे वक्त में उनकी कविताएं और भी ज्यादा मुखर हो जातीं थीं। अपनी ऐसी ही एक कविता में वे कहते हैं,
मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा
कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा
और मैंने उन लोगों पर यकीन नहीं किया
जो घृणित युद्ध में शामिल हैं
और सुभाषितों से रौंद रहे हैं
अजन्मी और नन्हीं खुशियों को

उनकी एक और कविता ‘लकड़बग्घा हंस रहा है’ पढ़िये और महसूस कीजिए आज का समय,
हत्यारे सिर्फ मुअत्तिल आज
और घुस गए हैं न्याय की लंबी सुरंग में
वे कभी भी निकल सकते हैं
और किसी दूसरे मुकाम पर
तैनात खुद मुख्त्यार
कड़कड़ाते अस्पृश्य हड्डियों को
हंस सकते हैं अपनी स्वर्णिम हंसी
उनकी कल की हंसी के समर्थन में
अभी लकड़बग्घा हंस रहा है

इस कविता को लिखे हुए चार दशक होने को आए, लेकिन इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। मौजूदा दौर और माहौल पर आज भी उतनी ही सटीक है, यह कविता। अपने गठन और विचार के पैमाने पर यह कविता, मुक्तिबोध की कालजयी कविता ‘अंधेरे समय में’ से किसी भी तरह कम नहीं।

चंद्रकांत देवताले साहित्य सृजन को अपना सौभाग्य नहीं मानते थे, बल्कि उनकी नजर में साहित्य सृजन एक ‘सजा’ थी। सजा इस मायने में, ‘‘साहित्य में बहुत बेचैन ढंग से, तड़पते हुए अपनी बात की गवाही देना पड़ती है।, अपने आपको खोदना पड़ता है और ये जो बेचैनी है, यह आदमी को चैन से जीने नहीं देती। कॉडवेल ने कहा था कि बेचैन होकर ही कोई आर्टिस्ट हो सकता है। मुक्तिबोध ने भी कहा था कि अपनी आत्मशांति को भंग कियए बिना कोई कवि, कलाकार रचनाकार नहीं हो सकता।’’

जाहिर है अंदर की ये बेचैनी ही थी, जिसने चंद्रकांत देवताले को कवि बनाया था। शोषण मुक्त समाज और एक बेहतर समाज का सपना उन्हें सोने नहीं देता था। मानव जीवन और समाज की बेहतरी के लिए वे हमेशा बेचैन रहते थे। इस सृजनात्मक बेचैनी से ही उनका समग्र साहित्य उपजा था। आज भले ही वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कविताएं हमें सदैव चंद्रमा का उजास देती रहेंगी।

मैं आता रहूंगा उजली रातों में
चंद्रमा को गिटार सा बजाऊंगा
तुम्हारे लिए
और वसन्त के पूरे समय
वसन्त को रूई की तरह धुनकता रहूंगा
तुम्हारे लिए
(कविता ‘मैं आता रहूँगा तुम्हारे लिए’)

जन्म: 7 नवंबर, 1936 को मध्य प्रदेश के छोटे से गांव जौलखेड़ा, (बैतूल) में
निधन: 14 अगस्त, 2017

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles