एक ही साल एक दिन के अंतर पर मिलने वाली आज़ादियों के बाद दोनों देशों के बीच की तनातनी गाहे बगाहे युद्ध के रूप में सामने आते रहे हैं। पहलगाम की घटना ने दोनों देशों की उस तनातनी को फिर से युद्ध के रूप में सामने ला दिया है।
दोनों देशों के एक-दूसरे पर सैन्य हमले और जवाबी कार्रवाई के इस संघर्ष को भड़काने और तेज करने में मीडिया की भूमिका बहुत अहम रही है। इसमें मुख्यधारा और सोशल मीडिया दोनों शामिल हैं। जहां मीडिया का काम होता है- सच्ची जानकारी देना, लोगों को शिक्षित करना और शांति को बढ़ावा देना, वहीं इस बार मीडिया ने सनसनीखेज ख़बरें, ग़लत जानकारी और अति राष्ट्रवाद को बढ़ावा देकर हालात और बिगाड़ दिए हैं। यह समीक्षा दोनों देशों के मीडिया द्वारा निभाई गई नकारात्मक भूमिकाओं की गहराई से पड़ताल करती है और बताती है कि उन्होंने शांति प्रयासों में किस क़दर बाधा डाली है।
मुख्यधारा की मीडिया: राष्ट्रवाद और सनसनी
भारत
भारत में कई प्रमुख न्यूज़ चैनलों पर आरोप है कि वे सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पक्ष में झुकाव रखते हैं। इन्हें अक्सर “गोदी मीडिया” कहा जाता है। ये चैनल खुले तौर पर राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाते हैं और पत्रकारिता और प्रचार के बीच की रेखा को धुंधला कर देते हैं। उदाहरण के तौर पर, 2019 के तनाव के समय ‘आज तक’ और ‘रिपब्लिक टीवी’ जैसे चैनलों ने बिना पुष्टि किए दावे प्रसारित किए और उन्हें सच के रूप में दिखाया। ‘आज तक’ पर ग़लत फतवे और सेना की कार्यवाही के बारे में झूठी खबरें फैलाने के कारण जुर्माना भी लगाया गया।
‘रिपब्लिक टीवी’ ने भी पाकिस्तान को बदनाम करने के लिए झूठी ख़बरें चलाईं, जैसे कि तालिबान को पाकिस्तान का समर्थन दिखाने वाला एक वीडियो, जो बाद में एक वीडियो गेम निकला। इस तरह की घटनाएँ दर्शाती हैं कि किस तरह कुछ चैनल दर्शकों को लुभाने के लिए सच्चाई से समझौता करते हैं।
पाकिस्तान
पाकिस्तान की मुख्यधारा का मीडिया भी अक्सर सरकार की बातों के साथ खड़ा दिखायी देता है और सेना की कार्यवाही को जायज और रक्षात्मक रूप में पेश करता है। इसकी वजह से आलोचनात्मक रिपोर्टिंग नहीं हो पाती और घटनाओं का एकतरफा चित्रांकन होता है। कुछ पत्रकारों को सेना की ब्रीफिंग में राष्ट्रवादी नारों के साथ हिस्सा लेते देखा गया है, जिससे निष्पक्ष रिपोर्टिंग और प्रचार के बीच की सीमा टूट जाती है।
स्वतंत्र पत्रकारिता की कमी और खुले विचार-विमर्श के अभाव ने पाकिस्तान की मीडिया को एकरूप राष्ट्रवादी धारा में बदल दिया है, जिससे लोगों तक विविध और संतुलित जानकारी नहीं पहुंच पा रही है।
सोशल मीडिया: गलत जानकारी का अड्डा
सोशल मीडिया भी इस युद्ध में ग़लत जानकारी फैलाने का बड़ा ज़रिया बनकर उभरी है। भारत और पाकिस्तान दोनों के सोशल मीडिया यूज़र्स ने बिना पुष्टि के वीडियो, फोटोशॉप की गई तस्वीरें और भड़काऊ कंटेंट साझा कर रहे हैं। भारत में एक अध्ययन से पता चलता है कि करीब आधी फेक ख़बरें राजनीतिक मक़सद से फैलाई जाती हैं, और ट्विटर और फ़ेसबुक जैसे प्लेटफ़ॉर्म इसमें प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
इस तरह की फ़ेक न्यूज़ को रोकने के लिए भारत सरकार ने ट्विटर (अब X) जैसे प्लेटफॉर्म को हज़ारों अकाउंट ब्लॉक करने के आदेश दिए, जिनमें से कई पाकिस्तानी पत्रकारों और मीडिया से जुड़े थे। हालांकि, इसका उद्देश्य ग़लत जानकारी पर रोक लगाना था, लेकिन इससे सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर भी सवाल उठे हैं।
पत्रकारों की भूमिका: रिपोर्टर से पक्षधर तक
भारत और पाकिस्तान दोनों के पत्रकारों ने पारंपरिक रिपोर्टिंग की भूमिका से आगे जाकर राष्ट्रीय पक्षधर होने की भूमिका निभानी शुरू कर दी है। कई रिपोर्टर ख़ुद को राष्ट्रवादी विचारों से जोड़ कर रिपोर्टिंग कर रहे हैं, जिससे संतुलन और निष्पक्षता ख़त्म हो जा रही है। एक जाने-माने पाकिस्तानी पत्रकार की टिप्पणी है कि कुछ रिपोर्टर सोशल मीडिया ट्रोल्स जैसे बर्ताव करने लगे हैं, जो सिर्फ़ नारे लगाते हैं और युद्ध की प्रशंसा करते हैं।
यह बदलाव पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों- निष्पक्षता, सटीकता और जवाबदेही को नुकसान पहुंचाता है। जब पत्रकार एक पक्ष की वकालत करने लगते हैं, तो वे सत्ता से सवाल नहीं कर पाते और मीडिया की स्वतंत्र भूमिका कमज़ोर पड़ जाती है।
जनता की सोच और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर असर
मीडिया द्वारा युद्ध की तस्वीर पेश करने का लोगों की सोच पर गहरा असर पड़ा है। भारत और पाकिस्तान दोनों में मीडिया ने ऐसा माहौल बना दिया है कि युद्ध के दीर्घकालिक प्रभाव क्या हो सकते हैं, इसे समझे बिना ही जनता सरकार और सेना की कार्यवाही का समर्थन करने लगी है।
भारत में मीडिया इस संघर्ष को आतंकवाद के ख़िलाफ़ धर्मयुद्ध की तरह दिखा रहा है, जिससे सरकार की नीतियों को समर्थन मिलता है। वहीं पाकिस्तान का मीडिया इसे आक्रमण के ख़िलाफ़ आत्मरक्षा के रूप में दिखा रहा है, जिससे वहां की जनता युद्ध के परिणाम को सोचे बिना सरकार के साथ मज़बूती के साथ खड़ी हो गयी है।
मगर, दोनों ही तरफ़ के इस राष्ट्रवादी रिपोर्टिंग ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बुरा असर डाला है। जब दोनों देशों के मीडिया एक-दूसरे को दुश्मन के रूप में पेश करते हैं, तो बातचीत और समझौते की संभावना कम हो जाती है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी मीडिया की इन्हीं रिपोर्टिंग के आधार पर पक्ष लेता है, जिससे निष्पक्ष मध्यस्थता कठिन हो जाती है।
2025 का भारत-पाकिस्तान संघर्ष यह दिखाता है कि मीडिया जनमत को किस तरह प्रभावित करता है और युद्ध की दिशा तय कर सकता है। जहां मीडिया के पास सच्चाई बताने और शांति बहाल करने की शक्ति होती है, वहीं इस बार वह सनसनी, झूठ और पक्षपात के रास्ते चल रहा है।सवाल है कि यह स्थिति कैसे सुधरे, तो इसके लिए ज़रूरी है कि मीडिया नैतिकता का पालन करे, सटीक जानकारी दे और ऐसा माहौल बनाए, जहां संवाद और समझदारी को बढ़ावा मिले।
केवल ज़िम्मेदार पत्रकारिता के ज़रिए ही मीडिया शांति का माध्यम बन सकता है, न कि युद्ध का हथियार, क्योंकि मीडिया के युद्ध का हथियार बन जाने से आख़िरकार दोनों देशों के अवाम को वह गंभीर नुक़सान है, जिसके लिए सभ्यता के विकास का एक लंबा सफ़र तय किया गया है।
(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)