अक्टूबर क्रांति ने मोड़ दी थी दुनिया के इतिहास की धारा

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अलेक्जेंडर रोबिनविच रूसी क्रांति और गृह युद्ध के जाने-माने इतिहासकार रहे हैं। उनके और रेक्स ए. वेड जैसे विशेषज्ञों की बातों से यह पता चलता है कि रूसी क्रांति को लेकर जो बहुत सी बातें मीडिया में चल रही हैं, उनमें सबका खंडन जरूरी नहीं है। 1917 से 1921 तक के दस्तावेज 1991 से उपलब्ध हैं। इनके आधार पर क्रांति की एक व्याख्या सशस्त्र विद्रोह और इसके बाद के लाल आतंक से संबंधित है। इनमें कहा जाता है कि सत्ता हासिल करने के लिए विभिन्न समूहों के बीच सशस्त्र संघर्ष हुआ। किसी क्रांति की हिंसा इस बात पर निर्भर करती है कि जवाबी हिंसा कितनी हुई। रूसी क्रांति में हिंसा को मजबूत करने में ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका समेत अन्य देशों के दखल की भी भूमिका रही।

1917 में रूस में फरवरी और अक्टूबर में दो क्रांतियां हुईं। पहले में राजशाही को उखाड़ फेंका गया और दूसरी क्रांति पहली क्रांति की रक्षा के लिए हुई। यह पूंजीवाद के खिलाफ और समाजवाद के पक्ष में था। अप्रैल में लेनिन की वापसी ने इसकी पृष्ठभूमि तैयार की। अप्रैल के अंत तक बोल्शेविक पार्टी ने सोवियत सरकार के गठन की रूपरेखा रखी। मजदूरों और सैनिकों की इस सरकार में बड़े जमींदारों और बुर्जआ की कोई भूमिका नहीं थी।

लेनिन ने रूस में समाजवादी क्रांति की सोच रखी थी। उनका मानना था कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो क्रांति टिकेगी नहीं। उन्होंने दुनिया भर में उपनिवेशवाद के खिलाफ चल रहे संघर्षों से समन्वय की सोच भी रखी थी। पहले विश्व युद्ध की हिंसा और इसके प्रभाव को दुनिया ने देख लिया था। ऐसे में सैन्य विद्रोह और बोल्शेविकों द्वारा युद्ध के अंत की मांग, पूंजीवाद के अंत के प्रति बढ़ते समर्थन ने क्रांति का रूप ले लिया।

1917 तक बोल्शेविक ने वामपंथी समाजवादी क्रांतिकारियों से मिलकर कई सोवियत में बहुमत हासिल कर लिया। इससे निर्णयकारी संघर्ष के वक्त वे मजबूत रहे और विंटर पैलेस पर कब्जा जमाने में कामयाब रहे। स्थिति ऐसी बन गई कि सत्ताधारी शासन करने में सक्षम नहीं थे और लोग ऐसा शासन बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं थे।

रूसी क्रांति में जीत आसान भी नहीं थी। अगस्त 1917 में जनरल कोरनिलोव ने क्रांतिकारियों के खिलाफ दमनकारी कार्रवाई की योजना बनाई थी। हालांकि, ये कोशिशें कामयाब नहीं हो पाईं क्योंकि सेना में फूट पड़ गई। हालांकि, विदेशी ताकतों की दखल ने सेना को ताकत देने का काम किया। लेकिन दूसरे यूरोपीय देशों में जिस तरह से क्रांतिकारियों के पक्ष में माहौल बन रहा था, उसे देखते हुए ये देश लंबे समय तक रूस की सेना का साथ नहीं दे पाए।
स्थिति ऐसी बन गई कि या तो आप क्रांति के साथ थे या फिर इसके विरोध में। उदार समाजवादी विपक्षी खेमे में पहुंच गए। उन्होंने इस बात से कोई सबक नहीं ली कि कादेत पार्टी ने कोरनिलोव का साथ दिया था।

हालांकि, क्रांति को उस वक्त झटका लगा जब वामपंथी पार्टी ने ब्रेस्ट-लिटोवस्क समझौते का विरोध करते हुए बोल्शेविकों से अलग होने का निर्णय मार्च 1918 में ले लिया। इसके बाद जुलाई से गृह युद्ध की शुरुआत हुई। इससे यह तय होना था कि रूस में किसका शासन रहेगा। दोनों पक्षों के बीच कोई समझौता संभव नहीं था। संघर्ष तय था। इतिहासकार मोशे लेविन कहते हैं कि 1914 से 1921 के बीच रूस में जो हुआ उसका नुकसान रूस को लंबे समय तक उठाना पड़ा।

तो फिर क्रांति का क्या मतलब है? साफ है कि इसमें गरीब किसान, सैनिक और मजदूर शामिल थे। कुल मिलाकर यह गरीब किसानों की क्रांति थी। सेना में भी यही थे। श्रमिकों में भी अधिकांश वैसे थे जो अर्ध-किसान थे। इस पृष्ठभूमि में क्रांति से संबंधित बौद्धिक वर्ग ने भविष्य के समाज की संकल्पना समाजवादी रूप में की। लेनिन की इसमें अहम भूमिका थी।

लेनिनवाद की या तो पूर्णतः स्वीकार्यता रही है या फिर इसे सिरे से खारिज किया गया है। पॉल ली ब्लांक ने 1989 में ‘लेनिन एंड दि रिवोल्यूशनरी पार्टी’लिखी है। यह इस मामले में अलग है। उनका मानना है कि लेनिनवाद ने पूंजीवाद को खारिज करने के लिए जागरूकता फैलाने का काम किया। पार्टी को लेकर भी अलग-अलग वक्त पर लेनिन की राय अलग रही है। समय के साथ इसमें बदलाव हुए हैं। लेनिन की समाजवाद की अवधारणा दीर्घावधि की सोच पर आधारित रही जो वर्तमान की सच्चाइयों के साथ व्यावहारिक तालमेल पर आधारित थी। इसमें किसानों के प्रति संवेदना और तानाशाही शासन तंत्र की खामियों को दूर करना शामिल था।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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