भोपाल गैस त्रासदी के 39 वर्ष: उदारवादी नीतियों के कारण दुनिया में बढ़ रही औद्योगिक दुर्घटनाएं

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आज से 39 वर्ष पहले 3 दिसम्बर सन् 1984 को भोपाल में हुई गैस त्रासदी की यादें आज भी लोगों के जेहन में बसी हुई हैं। यहां पर कीटनाशक बनाने वाली कम्पनी में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव से आधिकारिक तौर पर 2256 लोग मौत का शिकार हुए थे।मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 3787 लोगों की गैस से मरने वालों के रूप में पुष्टि की थी। अन्य अनुमान बताते हैं कि 8000 लोगों की मौत तो दो सप्ताह के अंदर हो गई थी और लगभग अन्य 8000 लोग तो रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों से मारे गए थे।

2006 में सरकार द्वारा दाखिल एक शपथ पत्र में माना गया था कि रिसाव से करीब 558,125 सीधे तौर पर प्रभावित हुए और आंशिक तौर पर प्रभावित होने वालों की संख्या लगभग 38,478 थी। 3900 तो बुरी तरह प्रभावित हुए एवं पूरी तरह अपंगता और अंधेपन के शिकार हुए थे।

भोपाल गैस त्रासदी को लगातार मानवीय समुदाय और उसके पर्यावरण को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं में गिना जाता रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना मानी जाने वाली इस दुर्घटना में दोषियों को नाममात्र की सज़ा मिली।

यूनियन कार्बाइड के अध्यक्ष वारेन एंडरसन’ को भारत में बहुत जल्दी जमानत मिल गई। वे अमेरिका चले गए और 1993 में उनकी मृत्यु भी हो गई। यूनियन कार्बाइड के भारतीय अफसरों को दो-दो वर्ष की मामूली सज़ा मिली और वे छूट गए। मृतकों के परिवारवालों और पीड़ितों को मुआवज़ा ज़रूर मिला, लेकिन इसमें बच गए लाखों लोग आज भी उसके प्रभाव से दीर्घकालीन बीमारियों से जूझ रहे हैं।

वास्तव में भोपाल गैस काण्ड मानवीय लापरवाही का एक अत्यन्त भयावह उदाहरण था, कि किस तरह मुनाफे की होड़ में दुनिया भर में औद्योगिक इकाइयां इन्सानों के जान से खेल रही हैं। 1986 में सोवियत संघ में यूक्रेन स्थित चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में एक रिएक्टर में आग लग जाने से क़रीब 30 ऑपरेटर और 100 अन्य लोगों की तुरंत मौत हो गई थी तथा परमाणु विकिरण के शिकार हज़ारों लोग वर्षों तक अपनी जान गंवाते रहे।

वास्तव में यह दुर्घटना भी भोपाल गैस त्रासदी से कम भयानक नहीं थी। चेर्नोबिल परमाणु दुर्घटना के बारे में यह कहा जाता है,कि यह दुनिया की सबसे बड़ी परमाणु दुर्घटना थी।

दुनिया भर में पिछले 120 वर्षों से 1,519 ऐसे हादसे हो चुके हैं, जिनका असर काफ़ी व्यापक था। इन हादसों में एक अनुमान के अनुसार क़रीब 6·4 लाख लोगों ने अपनी जान गंवा दी, जबकि 44 लाख लोग इनसे प्रभावित हुए। इनमें क़रीब 3,27,701.35 करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है। आंका गया मूल्य सीधे तौर पर नुकसान को दर्शाता है, जबकि वास्तविक नुकसान इससे कई गुना ज़्यादा है।

इस मामले में भारत की स्थिति तो और ज़्यादा ही बुरी है। यहां पर 1901 से लेकर अब तक 116 औद्योगिक दुर्घटनाओं का रिकॉर्ड उपलब्ध है। ये दुर्घटनाएं ऐसी हैं, जिनका व्यापक असर पड़ा। इनमें क़रीब 10,316 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं और 9 लाख से ज़्यादा प्रभावित हैं, साथ ही 5,280 करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है, हालाकि नुकसान का यह आंकड़ा सरकारी तौर पर नुकसान को बयां करता है, पर प्रभावितों की संख्या और नुकसान इससे कई गुना ज़्यादा है।

हमारे देश में सभी आंकड़े ज्ञात करना और भी अधिक मुश्किल है, क्योंकि अधिकांश कम्पनियों में जोख़िमवाले कामों की जगहों पर अस्थायी या ठेके के मज़दूर रखे जाते हैं, जिनका कोई रिकॉर्ड कम्पनी के पास नहीं होता। दुर्घटना हो जाने के मृतकों और घायलों को मुआवज़ा देने कोई ज़िम्मेदारी सम्बन्धित कम्पनी की नहीं होती।

क़रीब दो दशक पहले एक मामला समाचारपत्रों में सुर्खियों का विषय बना था, जब यह मामला प्रकाश में आया था कि भारत के अनेक परमाणु बिजलीघरों के उन स्थानों पर ठेके के मज़दूरों से काम करवाया जाता है, जहां पर रेडिएशन ज़्यादा होता है। आमतौर पर ऐसी जगहों पर मशीनों से काम लिया जाता है। सुरक्षा उपकरणों के अभाव में जब मज़दूर गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाते थे, तो उन्हें नौकरी से हटा दिया जाता था और नए मज़दूर रख लिए जाते थे।

इस मामले में संसद में भी बहुत शोर-शराबा मचा था, परन्तु कुछ नहीं हुआ। दोषियों को कभी सज़ा नहीं मिली, सम्भव है कि यह आज भी जारी हो। हमारे देश में औद्योगिक दुर्घटनाओं को लेकर कानून बहुत ही लचर है दुर्घटना हो जाने पर कारखाने के प्रबंधकों पर केवल लापरवाही का मुकदमा बनता है, जिसमें दो से चार साल तक की ही सज़ा है, भोपाल गैस काण्ड में भी यही हुआ।

दुनिया भर में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद औद्योगिक दुर्घटनाओं में बहुत तेज़ी से वृद्धि देखी गई, इसका कारण यह है कि दुनिया के बड़े औद्योगिक देश अपने जोख़िमवाले उद्योगों को तीसरी दुनिया के उन देशों में स्थानान्तरित कर रहे हैं, जहां श्रम सस्ता है। कोई ख़ास श्रम कानून लागू नहीं होते। दुर्घटना हो जाने पर कोई बड़ा मुआवज़ा भी नहीं देना पड़ता, इसका सबसे अच्छा उदाहरण बांग्लादेश का गार्मेंट्स उद्योग है, यहां के सिले-सिलाए कपड़े यूरोप-अमेरिका में भारी मात्रा में निर्यात किए जाते हैं।

यहां पर अधिकांश फैक्ट्रियां संकरे तथा अस्वास्थ्यकर इलाक़ों में हैं, जहां कम जगहों में हज़ारों मज़दूर काम करते हैं। वहां पर दुर्घटनाओं के बचाव का कोई उपकरण न होने के कारण अकसर दुर्घटनाएं होती हैं, आग लगती है तथा सैकड़ों मज़दूर मारे जाते हैं। कमोबेश भारत में भी इसी तरह की स्थितियां हैं, चाहे वह शिवकाशी का पटाखा उद्योग हो, चुनार का कालीन उद्योग या फ़िर फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग हो, यहां पर बड़े पैमाने पर बाल श्रमिक भी हैं। दुर्घटना होने पर मृत या विकलांगता से प्रभावित बाल श्रमिकों को कोई मुआवज़ा नहीं मिलता, क्योंकि ये कानूनी तौर पर इन्हें मज़दूर ही नहीं माना जाता। यह प्रवृत्ति केवल भारत में ही नहीं बल्कि एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे सभी ग़रीब देशों में है। बढ़ते हुए आर्थिक संकट की स्थिति में अधिक मुनाफ़ा कमाने की होड़ में दुनिया भर में श्रम कानूनों का व्यापक तौर पर उल्लंघन किया जा रहा है, जिसके कारण इस तरह दुर्घटनाएं बहुत तेज़ी से बढ़ रही हैं।

भोपाल गैस काण्ड त्रासदी पर इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी लाल बहादुर वर्मा द्वारा लिखित नाटक “ज़िन्दगी ने एक दिन कहा” में उस नाटक का एक पात्र कहता है, “युद्धकाल में हिरोशिमा और शान्तिकाल में भोपाल”। वास्तव में यही आज की सच्चाई है।

साम्राज्यवादी मुल्कों ने मुनाफ़े की होड़ के लिए दो महायुद्ध लड़े, जिसमें करोड़ों लोग मारे गए, हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु बम गिराए गए। यही साम्राज्यवादी शान्तिकाल में भी मुनाफ़े की होड़ के लिए भोपाल और चेर्नोबिल जैसी त्रासदियां रच रहे हैं, जिसमें हज़ारों लोग मारे गए तथा आज भी विभिन्न त्रासदियों में हज़ारों लोग मारे जा रहे हैं।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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