Tuesday, March 19, 2024

बाइक पर बैठकर चीफ जस्टिस ने खुद की है सुप्रीम कोर्ट की अवमानना!

सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी पाया है और 20 अगस्त की तिथि, उन्हें सज़ा सुनाने के लिये तय की गयी है। आरोप था सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बोबडे की मोटरसाइकिल पर बैठी फ़ोटो और उस पर की गई प्रशांत भूषण की टिप्पणी से अदालत की अवमानना होती है। यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह खड़ा हो जाता है कि टिप्पणी और फ़ोटो सीजेआई से संबंधित थी या न्यायपालिका के किसी विधिक आदेश की अवहेलना या अवज्ञा या अवमानना थी। अवमानना कानून शुरू से ही विवादित रहा है और अब आज के फैसले के बाद इस कानून पर नए सिरे से बहस पुनः शुरू हो गयी है। 

न्यायपालिका एक संस्था है और देश के तीन महत्वपूर्ण संवैधानिक खम्भों में से एक सबसे महत्वपूर्ण खम्भा है। जब कार्यपालिका और विधायिका विवादित और और पक्षपात करते नज़र आते हैं तो अंतिम आश्रय के रूप में यही खम्भा नज़र आता है जो विधायिका और कार्यपालिका दोनों को संविधान में प्रदत्त अपने अधिकार और शक्तियों के बल पर नियंत्रित करता है। इसे चेक एंड बैलेंसेस, नियंत्रण और संतुलन कहा जाता है। ऐसी महत्वपूर्ण स्थिति में न्यायपालिका देश के तंत्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। 

आज के फैसले से एक स्वाभाविक जिज्ञासा उठ खड़ी हुई है कि व्यक्ति महत्वपूर्ण है या संस्था। न्यायपालिका महत्वपूर्ण है या जस्टिस बोबडे ? जस्टिस बोबडे के बारे में कोई टिप्पणी न्यायपालिका की अवमानना मानी जायेगी तो हर जज जो जिला न्यायालय से सुप्रीम कोर्ट तक है अगर उसके खिलाफ भ्रष्टाचार आदि का कोई मामला आएगा तो क्या ऐसा आरोप लगाने वाला भी अवमानना के दोष के घेरे में आ जायेगा ? क्या इससे न्यायपालिका का एक अत्यंत विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग में बदल जाने का खतरा नहीं होगा? व्यक्ति और संस्था को हमें अलग-अलग दृष्टिकोण से देख कर ही न्यायपालिका के अवमानना की समीक्षा करनी होगी। अन्यथा व्यक्ति संस्था पर हावी होता जाएगा। 

मेरा दृष्टिकोण है व्यक्ति और संस्था अलग-अलग हैं। व्यक्ति संस्था नहीं है। व्यक्ति आता जाता रहता है पर संस्था बनी रहती है। व्यक्ति की शुचिता आवश्यक है। संस्था की शुचिता, संस्था के कर्ताधर्ता व्यक्ति की शुचिता पर निर्भर करती है। संस्थाएं जिन नियमों, कायदे क़ानूनों के लिये गठित की गयी हैं, वे उन्हीं नियमों कायदों और कानूनों के अनुसार लागू हों यह उस संस्था के कर्ताधर्ता का ही दायित्व और कर्तव्य है। इसके लिये व्यक्ति शपथबद्ध भी होता है। यह शपथबद्धता एक बंधन होती है कि वह अपनी संस्था को उसके लक्ष्य से भटकने और उसका मान मर्दन नहीं होने देगी। शपथ भंग एक गम्भीर कदाचार भी है। इसीलिये किसी भी संस्था का मूल्यांकन उसके कर्ताधर्ता के आचरण, क्रियाकलापों और निर्णयों से ही होता है। 

नागपुर में पचास लाख कीमत वाली मोटरसाइकिल पर कोई संस्था नहीं बैठी थी, व्यक्ति बैठा था। यह अलग बात है कि वह व्यक्ति देश के एक सबसे महत्वपूर्ण संस्था का प्रमुख भी है। अब सवाल यह उठता है कि मोटरसाइकिल पर बैठ कर फोटो शूट कराना अवमानना है या फिर वह फ़ोटो सोशल मीडिया और अखबारों में शेयर या ट्वीट करना ? अगर सार्वजनिक स्थान पर मोटरसाइकिल पर बैठना अवमानना है तो फिर यह अवमानना की किसने ? और उसके खिलाफ हुआ क्या ? अगर मोटरसाइकिल पर बैठना अवमानना नहीं है तो फिर उसका ट्वीट करना कैसे अवमानना हो सकता है। यह व्यक्ति विशेष की मानहानि हो सकती है अपमान हो सकता है पर संस्था की अवमानना कैसे हो सकती है ? 

व्यक्ति के आचरण से संस्था की मानहानि होती है। संस्था की मान्यता, शुचिता और महत्ता के लिये आवश्यक है कि संस्था के नियामकों और उनके क्रियाकलापों पर न केवल नज़र रखी जाए बल्कि उनकी समीक्षा भी हो। जैसे पुलिस एक संस्था है। पर अपने ही कर्मचारियों के कुछ अवैध कार्यों के कारण अक्सर निशाने पर रहती है और बदनामी भी झेलती है। फिर भी एक संस्था के रूप में उसका महत्व कभी कम नहीं होता है। 

अब सुप्रीम कोर्ट के दो महत्वपूर्ण फैसलों की चर्चा आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले कुछ सालों में दो ऐसे मामलों का निस्तारण किया है जो देश के न्यायिक इतिहास, लीगल हिस्ट्री में अपने तर्कों और निष्कर्षों के लिए सदैव याद रखे जाएंगे और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की वैधानिकता पर आगे भी बहस उठती रहेगी। उनमें से एक मामला है राफेल युद्धक विमान की खरीद का और दूसरा सीबीआई जज ब्रजमोहन लोया की संदिग्ध मृत्यु का। 

राफेल सौदे के मामले की जांच को लेकर यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने याचिका दायर कर के उसकी जांच की मांग की और सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया कि सरकार ने एक बंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को यह लिख कर दे दिया कि कोई प्रोसीजरल त्रुटि राफेल खरीद में नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार का सारा तर्क जस का तस मान लिया।

लेकिन अब भी एचएएल को दरकिनार कर के अनिल अंबानी को ऑफसेट ठेका दे देना, विमानों की संख्या पहले समझौते के अनुसार 126 से घटा कर 36 कर देना, सॉवरेन गारंटी का क्लॉज़ हटा देना, तकनीकी हस्तांतरण के प्रावधान का विलोपीकरण कर देना आदि अनेक सवाल खड़े हैं और सुप्रीम कोर्ट ने इसके समाधान के बारे में कुछ भी नहीं कहा। यह सारे सवाल जब तक जांच होकर सुलझ नहीं जाते खड़े ही रहेंगे और सुप्रीम कोर्ट का यह महत्वपूर्ण फैसला भी सन्देह के घेरे में ही रहेगा। 

राफेल से ही जुड़े मामले में जब यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण एफआईआर दर्ज कराने की दरख्वास्त लेकर तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा से मिलने गए तो उसी रात सरकार ने सभी स्थापित नियमों को ताक पर रख कर उनका स्थानांतरण डीजी सिविल डिफेंस में कर दिया। जबकि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति एक पैनल जिसमें सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश या उसका कोई प्रतिनिधि भी रहता है, द्वारा होती है और उसे हटाया भी उसी प्रक्रिया से जा सकता है।

पर बदहवासी और हड़बड़ाहट में सरकार ने बिना स्थापित प्रक्रिया का पालन किये सीबीआई प्रमुख को उनके पद से हटा दिया। हटाने के पहले पैनल से न तो कोई विचार-विमर्श हुआ और न ही पैनल की कोई बैठक बुलाई गयी। सरकार की बदहवासी तो स्पष्ट थी कि वह हर दशा में राफेल सौदे की जांच से बचना चाहती थी पर सुप्रीम कोर्ट का जो विधिक स्टैंड था वह समझ से परे है कि आखिर वह क्यों कोई जांच नहीं चाहती थी ? 

ऐसा ही एक महत्वपूर्ण मामला था मुम्बई सीबीआई के जज ब्रजमोहन लोया की मृत्यु का। जज लोया सीबीआई द्वारा विवेचित एक महत्वपूर्ण आपराधिक मामले की सुनवाई कर रहे थे जो गुजरात राज्य के एक ऐसे अपराध से सम्बंधित था, जिसमें देश के सत्तारूढ़ दल का एक बेहद महत्वपूर्ण नेता अभियुक्त था। उसी के कारण सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर वह मुकदमा ट्रायल के लिये अहमदाबाद से मुंबई स्थानांतरित हुआ था और उसकी सुनवाई जज ब्रजमोहन लोया को दी गयी थी।

जज लोया की मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में नागपुर में हो जाती है और उनकी मृत्यु को लेकर अनेक सवाल उठ खड़े होते हैं। जज लोया जिस गेस्ट हाउस में रुके होते हैं उसमें उनके साथ कुछ उनके साथी जज भी रुके होते हैं। स्थानीय अखबारों और सोशल मीडिया में इस मृत्यु पर बहुत हंगामा मचता है और इसके जांच की मांग की जाती है। पर महाराष्ट्र की तत्कालीन भाजपा सरकार इस मामले की जांच कराने से मना कर देती है।

सीबीआई से जांच कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट में एक पीआईएल दायर होती है और जांच न हो उसके लिये महाराष्ट्र की सरकार एड़ी चोटी का जोर लगा देती है। महाराष्ट्र सरकार देश के सबसे महंगे वकीलों में से एक हरीश साल्वे को नियुक्त करती है। अपराध का अन्वेषण जहां सरकार का दायित्व है वहां महाराष्ट्र की तत्कालीन फडणवीस सरकार की पूरी ताकत इस कोशिश में लग जाती है कि उस मामले की जांच ही न हो सके। 

महाराष्ट्र सरकार की रुचि अपने दल के वरिष्ठ नेता को बचाने में तो रहेगी ही यह असामान्य भी नहीं है पर सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि ‘मृत्यु संदिग्ध नहीं है अतः जांच की आवश्यकता नहीं है’। पर बिना किसी जांच के सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश इस निष्कर्ष पर कि मृत्यु संदिग्ध नहीं है, पहुंचे कैसे, यह समझ के परे है। मृत्यु की स्वाभाविकता का एक आधार जज लोया के साथ रुके चार जजों के बयान को बताया गया था कि चूंकि वे जज हैं और विश्वसनीय साक्ष्य हैं अतः उनके बयान को न मानने का कोई आधार नहीं है।

यह तो साक्ष्य अधिनियम की एक विचित्र व्याख्या हुई। जज होना एक सम्मानजनक बात है और उनके बयान को अहमियत दी जानी चाहिए पर उस समय तो यह जज साहबान, एक गवाह के रूप में थे। गवाह से पूछताछ तो पुलिस विवेचना का अंग होता है और उसका परीक्षण ट्रायल का। फिर बिना विवेचना और ट्रायल के ही सुप्रीम कोर्ट का इस निष्कर्ष पर पहुंच जाना कि मृत्यु संदिग्ध नहीं बल्कि स्वाभाविक है और जांच की ज़रूरत ही नहीं है, न सिर्फ हैरान करता है बल्कि अनेक संदेहों को भी जन्म देता है। क्या यह फाइंडिंग, अब एक रूलिंग के रूप में स्थापित हो गयी है कि जहां गवाह के रूप में कोई जज हो तो सबको छोड़ कर उसी की बात को साक्ष्य के रूप में सबसे अहम मान ली जाए ?

यह एक नए प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का उदय होगा फिर ! जबकि जज लोया के पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में भी फेरबदल के आरोप हैं। आखिर एक जज के मृत्यु की जांच से राज्य की फडणवीस सरकार दहशत में क्यों थी ? मजे की बात यह भी है कि अदालत ने यह भी कहा कि जज लोया की मृत्यु की जांच पर अदालत की तरफ से कोई रोक नहीं है ! यह तो अजीब फैसला हुआ। 

जजों के कदाचार के लिये संविधान में महाभियोग की व्यवस्था है। यह प्रक्रिया तभी लागू होगी जब किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ कदाचार का मामला सामने आए। अब यह कदाचार या भ्रष्टाचार का मामला क्या है और सामने आए कैसे ? कभी न कभी, किसी न किसी व्यक्ति द्वारा तो, यह मामला, अगर कुछ हुआ तो, पहले पहल ही उठाया जायेगा।

मान लीजिए किसी ने किसी जज के खिलाफ यह मामला पहली बार उठाया और यह बात सोशल मीडिया में आ गयी और वह जज महत्वपूर्ण पद पर है या मुख्य न्यायाधीश है तो फिर वह इस मामले को भी अपने कदाचार और भ्रष्टाचार की आड़ में न्यायपालिका की अवमानना बता कर न्यायपालिका में शुचिता की बात करने वालों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू कर सकता है। जबकि यह किसी जज के निजी आचरण और उसके फैसलों की आलोचना है, न कि संस्था की। संस्था की गरिमा बनी रहे इसीलिए तो महाभियोग की बात संविधान में रखी गयी है। फिर जज और न्यायपालिका एक कैसे हुयी ?

अब एक सामान्य सी विधिक जिज्ञासा उपजती है कि मोटर साइकिल पर बैठे व्यक्ति की फ़ोटो छापना अगर संस्था की अवमानना है तो यह अवमानना मोटर साइकिल पर बैठे व्यक्ति ने ही पहले की है क्योंकि कार्य का प्रारंभ तो वहीं से शुरू हुआ और फिर वह फ़ोटो दुनियाभर में, अखबारों और सोशल मीडिया आदि के माध्यम से फ़ैल गयी। कानून में व्यक्ति की मानहानि के लिए अलग कानून है, क्योंकि व्यक्ति की भी गरिमा महत्वपूर्ण है और संस्था की शुचिता और महत्ता की रक्षा के लिये अवमानना के अलग कानून तो हैं ही।

दोनों अलग-अलग इसलिए हैं कि व्यक्ति और संस्था के अलग-अलग अस्तित्व हैं। अलग-अलग कर के इन्हें देखना भी चाहिए। अंत मे एक और महत्वपूर्ण बात कि किसी नागरिक को न्याय पाने के अधिकार से वंचित करना भी न्यायपालिका की अवमानना है। संस्था सर्वोच्च होती है उस संस्था में बैठा व्यक्ति नहीं। संस्था के कर्ताधर्ता की निजी मानहानि और संस्था की मानहानि को अलग कर के देखना होगा अन्यथा संस्थाएं व्यक्तिपरक हो जाएंगी और यह दुःखद होगा। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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