Monday, September 25, 2023

आइए, दुनिया को बदलें: मार्क्स के अंतिम दैहिक पड़ाव स्थल से..

लंदन। पूंजीवाद ने मार्क्सवाद को दफनाने का ऐलान काफी पहले कर दिया था। मार्क्स का दैहिक अंत हुए करीब एक सौ चालीस वर्ष हो चुके हैं। लेकिन कार्ल मार्क्स की दैहिक विश्राम स्थली पर आज भी यात्री मिल जाएंगे। विश्व के विभिन्न कोनों से लोग मार्क्स को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने आते हैं। भारत सहित, यूनान, कनाडा, इटली जैसे देशों के यात्री मार्क्स को श्रद्धांजलि देने हाई गेट कब्रिस्तान पहुंचे थे। इंग्लैंडवासी तो आते ही रहते हैं। कुछ चित्रकार मार्क्स की स्मारक वक्ष मूर्ति के रेखाचित्र बना रहे थे।

हम तीन: मैं, मधु जोशी और पाकिस्तानी मूल के चिंतक लेखक और एक्टिविस्ट अली जाफर ज़ैदी, चार घंटे की मशक्कत के बाद इस जगह तक पहुंचे थे। हालांकि, जहां से यात्रा शुरू की थी वहां से फासला करीब पैंतालीस मिनट का है। लेकिन, कुछ गूगल की घुमावदार मेहरबानी और बेशुमार कारों के काफ़िले को चीरते हुए पहुंचना पर्वत को जीतने के समान था। तभी तो ज़ैदी जी के होंठ अनायास खुल पड़े “जोशी जी, मार्क्स तक पहुंचना इतना आसान नहीं है।”

इस वाक्य को विस्तार देते हुए मैंने कहा,” मार्क्स को जीना तो और भी दुश्वार है”। “आप वजह फरमाते हैं।”, वे बोले। लंदन में ज़ैदी निर्वासन की जिंदगी जी रहे हैं। तानाशाह जियाउल हक़ के ज़माने में अपना वतन छोड़ना पड़ा था। ज़ैदी की प्रसिद्ध आत्मकथा : ‘बाहर जंगल और अंदर आग’ में पाकिस्तान की सियासत की कहानी दर्ज़ है। इसका भारत में हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है।

सो, हम तीनों कब्रिस्तान के बंद होते होते पहुंच सके। फिर भी लोग वहां थे, चित्र बना रहे थे, फोटो ले रहे थे, फूल चढ़ा रहे थे। शांत मुद्रा में मौन रख रहे थे। लोग आते ही जा रहे थे। कनाडा का युवक तो लाल टीशर्ट में था जिस पर हसिया हथौड़ा का प्रतीक बना हुआ था। उसके साथ केरल का युवक भी था। दोनों बंद मुट्ठी तानकर मार्क्स की प्रतिमा का अभिनंदन भी कर रहे थे यानी ’ कॉमरेड मार्क्स, लाल सलाम’।

कुछ लोग मार्क्स की मूर्ति स्तंभ पर अंकित वाक्य को बार-बार पढ़ते जा रहे थे: workers of all lands unite, The philosophers have only interpreted the world in various ways. The point however is to change it. इसके साथ ही फूलों का गुलदस्ता चढ़ाते। सभी आयु के दर्शक, श्रद्धालु थे वहां। उनकी मुख मुद्राओं पर मार्क्स से आशा की किरण झलक रही थी। मूर्ति शांत थी, लेकिन परिवर्तन का आह्वान भी उससे विस्फोटित होता प्रतीत हो रहा था।

जब हम बाहर लौट रहे थे तब भी एक दर्शक गेट पर चौकीदार से मार्क्स की समाधि तक जाने की विनती कर रहा था। पांच बज चुके थे। चौकीदार विवश था। पर मार्क्स का क्रेज़ थम नहीं रहा था।

यह थमता भी क्यों और कैसे? जब आते समय कॉफी पीने के लिए रास्ते में रुके थे तब एक महिला ज़ैदी जी के पास आई और एक पाउंड देने की गुज़ारिश करने लगी। फिर एक सिगरेट। सेंट्रल लंदन पहुंचे तो वहां भी भिखारी दिखाई दिया। यही नज़ारा मैंने और मधु ने ऑक्सफोर्ड में देखा। अगले दिन हम दोनों एक दिन के लिए ऑक्सफोर्ड की यात्रा पर निकले थे। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के क्षेत्र में कई भिखारी दिखाई दिए। एक दो किलोमीटर की परिधि में पांच भिखारी मिले जिनमें दो महिलाएं भी थीं।

सभी भिखारियों के आगे पट्टियां रखी हुई थीं जिस पर हाथ से लिखा हुआ था: हम बहुत भूखे हैं, हम बेघर हैं। ईश्वर, जीसस के नाम पर हमारी मदद करो। गॉड का आशीर्वाद मिलेगा। कुछ लोग उनकी झोली में सिक्के भी डाल रहे थे। लंदन में मिनी पंजाब के रूप में चर्चित साउथ हाल में भी एक अश्वेत भिखारी दिखाई दिया। वह ज़ोर ज़ोर से बोल रहा था : मैं भूखा हूं, मैं भूखा हूं। मुझे खाना दो।हालांकि इस बस्ती में पहले भी आया था। तब यह कातर आवाज सुनाई नहीं दी थी। आज इस दृश्य ने जरूर चौंकाया है।

आस-पास पूछने पर मालूम हुआ कि ऐसे लोगों में कुछ नशेड़ी भी होते हैं। ऐसे भी कुछ होते हैं जिन्हें सरकार से कुछ आधा अधूरा भत्ता मिलता है। पेट पालने के लिए नाकाफी रहता है। मुझे याद आया। मैं 1983 में भी इसी जगह आ चुका हूं। तब ऐसे कचोटने वाले दृश्य देखने को नहीं मिले थे। साथ में प्रसिद्ध बंधक मुक्ति नेता स्वामी अग्निवेश भी थे। सब कुछ ठीक-ठाक ही लगा था। 1985 और 1989 में भी लंदन की यात्राएं की थीं। तब भी यह उत्पीड़ित मानवता लंदन में दिखाई नहीं दी थी।

वार्तालाप के दौरान ज़ैदी जी ने बताया कि सोवियत यूनियन की समाप्ति (1990) के पश्चात से ही पूर्वी यूरोप से विस्थापितों की आबादी बढ़ी है। रोटी रोज़ी की तलाश में अवैध शरणार्थी भी आए हैं। इसके अलावा सबसे बड़ा कारण यह भी है कि कॉरपोरेट पूंजीवाद ने मनुष्यों के हाशियेकरण की रफ्तार को तेज़ किया है। समाज में वंचन की प्रक्रिया का विस्तार हुआ है। आम लोगों के लिए जीवन यापन मुश्किल होने लगा है। अब पूंजीवादी सत्ता के लिए कोई चुनौती नहीं है। इसने समाजवाद, साम्यवाद को शिकस्त दे दी है।

जैदी ने आगे कहा कि अब किसी विरोधी व्यवस्था के साथ निर्णायक मुक़ाबला नहीं रहा है। इसलिए पूंजीवादी शासकों ने राज्य के जनकल्याणकारी चरित्र को सुनियोजित ढंग से बदलना शुरू कर दिया है। इससे समाज में हाशियेकरण की रफ्तार तेज़ होने लगी है। सब्सिडीज और भत्तों में कटौती होने लगी है। दृश्य व अदृश्य भिखारियों की संख्या बढ़ने लगी है। पूंजीवाद जानता है कि शीत युद्ध का अंत हो चुका है और अब संपूर्ण ’मुक्त अर्थव्यवस्था’ की मंजिल की तरफ बढ़ा जा सकता है। लेकिन यह जनता का संपूर्ण भरोसा जीत नहीं सका है।

इतना तो तय है कि पूंजीवाद की विभिन्न किस्में धरा से भूख प्यास और गुरबत मिटाने में बुरी तरह से पिटी हैं। बेशक इसने समाजवाद को शिकस्त दी है लेकिन क्या यह स्वयं भी मानवता का मसीहा साबित हो सका है? चार दशक पहले समाजवादी सत्ता की समाप्ति के बाद लगने लगा था कि अब पूंजीवाद मसीहा की भूमिका निभाएगा। दुनिया से विषमता समाप्त होगी, गुरबत गायब होगी। पर क्या ऐसा हुआ है? बिल्कुल नहीं। आज भी जंग जारी हैं। हथियारों की होड़ मची हुई है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थॉमस पिक्केटी स्थापित कर चुके हैं कि दुनिया में विषमता गहराई है, चंद घरानों में दौलत का जमावड़ा अकूत ढंग से बढ़ा है। पूंजीवाद का मुख्य शत्रु समाजवाद की हार के बावजूद पूंजीवाद पिटा पिटा लग रहा है।

क्यों लग रहा है? कौन सा भय उसे सता रहा है? जाहिर है, उसकी दुखती रग है खुद की नाकामी। उसे डर यह भी है कि कहीं समाजवाद राख के ढेर से फिर न खड़ा हो जाए? यह अब भी निर्णायक विजय और निर्णायक हार के बीच त्रिशंकु बन कर झूल रहा है। शायद यही कारण है कि कार्ल मार्क्स का बुत भी पूंजीवाद के लिए भूत बना हुआ है। राजसत्ता के पतन की दृष्टि से समाजवाद हारा है, लेकिन उसकी वैचारिक सत्ता आज भी पूंजीवाद को ललकार रही है। यह दीप स्तंभ है विषमता मुक्त समाज के निर्माण के लिए।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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CPJha
CPJha
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1 month ago

” मार्क्स तक पहुंचना आसान नहीं है “.

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