पिछले 4 महीने से भारत में 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों से न्यूज़ हेडलाइंस भरी पड़ी थीं। दर्शकों के लिए कुछ नया नहीं मिल पा रहा था। चुनावों में यदि कुछ था भी तो उसमें भाजपा के लिए अच्छी खबर नहीं आ रही थी। खबरों में उत्तेजना न हो, और खबरों को कवर करने के लिए स्टूडियो से बाहर कदम रखना पड़े तो यह न्यूज़ चैनलों के मालिकों को अब अखरता है। ब्रेकिंग न्यूज़ की सनसनीखेज बाइट चलाने वाले सूटेड बूटेड पत्रकारों के लिए भी अब यह फायर नहीं पैदा करता।
जहाँ पर स्टूडियो में आवाज के मोड्यूलेशन और नाटकीय अंदाज से प्रभाव बनाया जा सकता है, और पूरे न्यूज़ चैनल को अपने कंधों पर उठाने का गर्व, अहम, और सुख मिलने लगे, उसमें विधानसभा चुनावों में किसी 19व़ी सदी जैसे नजर आने वाले कस्बों में 5-6000 रूपये की अस्थाई नौकरी को भी किसी तरह बचाने की जद्दोजहद करने वाले युवाओं की सूनी आँखों में सवालों के अपने मनमुताबिक जवाब ढूंढ पाना अब वैसे भी काफी मुश्किल हो गया था। इस बार के चुनावों में यूपी सरकार की ओर से इतने विज्ञापन मिले हैं, शायद लोकसभा चुनावों की भी कसर इस बार पूरी हो गई लगती है। ऐसे में जमीनी ह्कीकत को दिखाना इन कथित पत्रकारों और टीवी न्यूज़ चैनलों के लिए कितना मुश्किल भरा था, सहज ही समझा जा सकता है।
ऐसे कठिन समय में, यह एक तरह से ईश्वरीय उपहार ही था कि कई महीनों की नाटो-रूस की तनातनी का दबाव न झेल पाने के कारण पुतिन ने जब यूक्रेन के 2019 में नए राष्ट्रपति बने जेलेंस्की को सबक सिखाने का फैसला लिया, तो सभी न्यूज़ रूम के लिए जैसे यह बड़ी राहत की खबर थी।
अब आपके लिए पिछले एक हफ्ते से रेडीमेड युद्ध की आहट और हवाई हमलों, आगजनी और रूस के खिलाफ चल रहे दुनियाभर में प्रदर्शनों को दिखाना कितना आसान हो गया है। पश्चिमी मीडिया से उधार लेकर, अपने अपने न्यूज़ चैनलों की स्टिकर लगाकर खबरें दिखाते रहिये, भारत की जनता के लिए दुनिया को बचाने की चिंता में अपनी भूमिका सहित उन्हें भी सजग बनाने की महती भूमिका के साथ अपने कर्तव्य की इतिश्री करने से अच्छा भला क्या काम हो सकता है?
खारकीव में रुसी सेना का हमला जारी। रूस का दावा कीव से अब बस 20 मील दूर। यूरोपीय यूनियन की आर्थिक मामलों की अध्यक्षा ने रूस को स्विफ्ट प्रणाली से बेदखल करने के लिए यूरोपीय देशों से किया आह्वान, जल्द ही रूस की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी जायेगी। यूक्रेन के बुका शहर में रुसी टैंक घुस गए हैं, देखिये सायरन बज रहे हैं….अफगान वार मेमोरियल में घुसकर रुसी टैंक अपना तांडव मचा रहे हैं…सिर्फ हमारे यहाँ मिलेगी आपको बड़ी खबर….आपको बता दें यूक्रेन तब सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था…फिर ताबड़तोड़ गोलियों की आवाजें..जी न्यूज़ आपको पिछले 79 घंटे:35मिनट:30 सेकंड से लगातार खबरें दिखा रहा है। जी न्यूज़ पर यह एक्सक्लूसिव खबरें आपको दिखाई जा रही हैं….फिर से सायरन बज रहा है….
रुसी सेना पर यूक्रेन का ड्रोन से हमला। बेलारूस-क्रीमिया से कीव पर हमला। यूक्रेन ने अपनाया चकमा देने का रास्ता…कीयेव के नागरिकों को खिड़की न खोलने के आदेश…यूक्रेन के विदेश मंत्री की आज शाम बैठक होनी है… भारतीय छात्रों को पोलैंड आने की अनुमति मिल गई है…फिर रूस के दावे और यूक्रेन के द्वारा 3000 सैनिकों को मार गिराने के दावे संवावदाता बताता जा रहा है…पीछे से सायरन जोर-जोर से लगता है स्टूडियो में ही खुद बजाया जा रहा है…फिर उसके बाद कभी पुतिन के रुसी में भाषण को दिखाया जा रहा है तो दूसरी तरह फिर जेलेंस्की, जर्मनी के चांसलर और संयुक्त राष्ट्र सभा के पहले के दृश्यों को दिखाया जा रहा है।
समचार चैनल ने दो दिन पहले ही रूस के हमले के अगले दिन ही बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ बनाई, “फ्लावर नहीं, फायर है पुतिन!”, सुधीर चौधरी बता रहे हैं, “रशिया की सेना कितनी खतरनाक है?”, “रूस के आगे अमेरिका का सरेंडर” “रूस का हमला…यूक्रेन धुआं-धुआं”, “भारत का ये एहसान, नहीं भूलेंगे पुतिन”, पुतिन मॉडल से पाकिस्तान के “5 टुकड़े?” और सबसे अधिक तब हद हो गई, जब जी न्यूज़ ने ब्रेकिंग न्यूज़ चलाई, “ये पुतिन है…घर में घुसकर मारता है!” और अब नई हेडिंग है, “महायुद्ध” रुकेगा या बढेगा? आइये देखते हैं ताल ठोंक के लाइव ….
इन न्यूज़ चैनलों को यूक्रेन, रूस, नाटो, अमेरिकी साम्राज्यवाद की भूमिका इन सबसे कोई सरोकार नहीं है। ये युद्ध के पीछे की भू-राजनीतिक स्थिति, तमाम ऐतिहासिक तथ्यों, हितों और इस संकट के लिए असल में जिम्मेदार ताकतों की भूमिका को तलाशने के लिए भारतीय लोगों को कभी तैयार नहीं कर सकते हैं। वे तो टेबल टेनिस की तरह कभी गर्दन इधर तो कभी उधर लगातार घुमाते जायेंगे, और कभी किसी को नायक तो किसी को खलनायक तो कभी अपनी ही बात को उलट दिखाने से भी नहीं शर्मायेंगे। इनके लिए युद्ध की खबर एक मसाला है जिसे वे बिना हींग फिटकरी खर्च किये मुफ्त में करोड़ों लोगों को मूर्ख बनाने में इस्तेमाल कर सकते हैं।
कुल मिलाकर सभी न्यूज़ चैनलों का यही हाल है। मध्य वर्ग में माता-पिता अपने बच्चों से फोन पर गेम खेलने के बजाय विश्व युद्ध की आशंका पर कुछ सामान्य ज्ञान पर बढ़ोत्तरी करने की नसीहत दे रहे हैं, लेकिन बच्चे हैं कि उन्हें ये सब बोरिंग लगता है। उनके लिए तो खुद ही पहले से दुनिया को बचाने के लिए कई वर्षों से मशीनगन और तमाम हथियारों के साथ सैकड़ों लोगों की हत्या करने वाला गेम मौजूद है। उन्हें यूक्रेन में हमलों की 100 तस्वीरों से कहीं अधिक अपने गेम में ही ताबड़तोड़ गोलियां दागने, उछल कूद करने में कहीं अधिक चार्म और उत्तेजना मिलती है।
यूक्रेन-रूस के युद्ध ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को गोंडा में दो वर्षों से सेना में भर्ती की तैयारी में लगे युवाओं के विरोध के वायरल वीडियो के लिए सफाई नहीं देनी पड़ी। मोदी जी जैसे ही जाट बहुल से आगे बढ़ते हुए लखनऊ से आगे की ओर पूर्वी उत्तर प्रदेश की ओर बढ़े, उनके भाषणों में अचानक से लड़खड़ाहट दिखनी शुरू हो गई है। यह कोई एक बार नहीं बल्कि लगभग प्रत्येक भाषणों में होने लगा है। लोगों ने अचानक से भाजपा नेताओं के बयानों को गंभीरता से लेने की जरूरत से ही इंकार कर दिया है। हैरत की बात यह है कि ऐसा विरोधियों ने नहीं बल्कि पिछले 8 वर्षों से मोदी नाम की माला जपने वाले कथित भक्तों के द्वारा किया जा रहा है।
पिछले दिनों उत्तराखंड में देखने में लगा कि कांग्रेस और भाजपा में बराबर की टक्कर थी। लेकिन अगले दिन स्पष्ट हुआ कि पुरुषों के बजाय महिलाओं ने अधिक वोटिंग में हिस्सा लिया है। महिलाएं महंगाई और खासकर एलपीजी सिलिंडर के 400 रूपये से 1000 या पर्वतीय क्षेत्रों में ढुलाई को भी जोड़ दें तो 1200 रूपये तक की कीमत से बिफरी हुई हैं। वहीं मैदानी क्षेत्रों में पता चला है कि बड़ी संख्या में अगड़ी जातियों के मतदाताओं ने इस बार मतदान में हिस्सा ही नहीं लिया। वे कल तक भाजपा के कट्टर समर्थक थे, लेकिन अचानक से उन्हें अब वो किक नहीं मिल पा रही है। यह खबर भाजपा के लिए सबसे अधिक भयावह है।
खासकर यूपी के चौथे चरण के मतदान में इसे बड़े पैमाने पर देखा गया। राजधानी लखनऊ में जिस प्रकार 55% से कम का मतदान हुआ है, उससे पता चलता है कि शहरी मतदाता और उसमें भी अगड़ी जातियों का मतदाता कहीं न कहीं निराश है। उसे साईकिल पर नहीं चढना है, कांग्रेस को उसने कुछ दशक पहले ही छोड़ा था, और हाल के वर्षों में उसने गाँधी परिवार के लिए पूरी एक नई कहानी को ही व्हाट्सअप में लगातार पढ़ा और शेयर किया है, दोस्तों मित्रों से लड़ा झगड़ा है, ऐसे में उसे वोट देना अर्थात थूक कर चाटना होगा। यह मन को आहत करता है। इसमें समय लगेगा।
पिछले 5 वर्षों में पूरे यूपी में आवारा पशुओं की समस्या कितनी विकराल बनी हुई थी, इसे शायद पहली बार चुनाव की गर्मी में अब महसूस किया जाने लगा है जब यूपी के आधे चरण का मतदान संपन्न हो गया है। अखिलेश यादव ने जरुर पिछले वर्षों में इस मुद्दे पर ट्वीट किये हैं, लेकिन इस मुद्दे पर कोई आंदोलन भी किया जा सकता है, के बारे में कोई विचार नहीं किया। लेकिन अब जबकि हर जगह किसानों के द्वारा बातचीत में इस मुद्दे पर टोका जा रहा है तो प्रधानमंत्री मोदी को भी अब मजबूर होकर कहना पड़ा है कि 10 मार्च के बाद इस मुद्दे का वे समाधान करेंगे।
सवाल उठता है कि वे समाधान करेंगे तो मुख्यमंत्री आदित्य नाथ क्या कर रहे थे? प्रदेश में 70 प्रतिशत आबादी किसान है, उसे आप कुछ दे नहीं पाए इतने वर्षों के शासन में। पंजाब, हरियाणा की तुलना में उसकी गेंहूँ चावल की फसल औने पौने दामों पर साहूकार लूट ले जाते हैं। आलू निकालते समय रेट इतने अधिक गिर जाते हैं, कि किसान अक्सर फसल यूँ ही छोड़ देता है, या गोदामों में रखा आलू लेने वापस ही नहीं आता। उस पर अब उसके उपर गाय पालने पर उसे जीवन भर पालने-पोसने और उसकी 5-6 संतानों को और आगे की पीढ़ी को खिलाने-पिलाने की नैतिक जिम्मेदारी उस पर लाद दी गई थी।
इस एक मुद्दे को जिस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल किया गया, उसे पहले पहल जरूर किसानों ने नहीं समझा। क्योंकि पहला असर तो कानपुर के चमडा उद्योग और अपरोक्ष रूप से आगरा के जूता उद्योग पर पड़ा, जिसमें दसियों लाख की संख्या में दलित समाज अपनी आजीविका चलाता था। लेकिन यह उलट कर एक दिन उनके लिए ही घातक होने जा रहा है, इसे वे पिछले 3 सालों से बुरी तरह से महसूस कर रहे थे। लेकिन उसका गुस्सा अब फूट रहा है तो बदलाव क्या करेंगे मोदी जी?
जगह—जगह सत्ता विरोधी गुस्से और विधायकों की 5 साल की अकर्मण्यता का नजारा प्रदेश देख रहा है। दर्जनों स्थानों पर जनता द्वारा भाजपा विधायकों और मंत्रियों तक का खदेड़ा हुआ। सबसे हास्यास्पद/करुणाजनक/विद्रूप नजारा राबर्ट्सगंज विधानसभा में विधायक का कान पकड़ कर मंच पर उठक-बैठक करने का दृश्य शायद भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार हुआ होगा। गलती किसी की और खामियाजा किसी और को भुगतना पड़ रहा है, वो भी जनता के द्वारा जबरन नहीं, बल्कि अपनी मर्जी से।
ऐसी स्थिति में भारतीय न्यूज़ चैनलों के लिए तीसरे विश्व युद्ध की आशंका और डर को भारतीय जनता के सामने रखने से अच्छी बात क्या हो सकती है। दुनियाभर में डीजल, पेट्रोल और गैस की कीमतें आसमान छू रही हैं, लेकिन भारत में इनके दाम पहले से ही उपभोक्ताओं की हालत पतली किये हुए हैं। लेकिन पिछले चार महीनों से इनके दाम रहस्यमयी रूप से एक बार भी नहीं बढ़े हैं, उल्टा 7 वर्षों में पहली बार केंद्र सरकार ने एक्साइज ड्यूटी घटाई और करीब-करीब सभी राज्य सरकारों ने भी वैट में कमी की थी। इसके बावजूद जो पेट्रोल-डीजल 80 डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से यूपीए शासनकाल में 60 रूपये प्रति लीटर के करीब हुआ करती थी, वह वर्तमान में 95 रूपये से लेकर 105 रूपये प्रति लीटर है। सभी दम साधे 7 मार्च तक आखिरी चरण के चुनाव का इंतजार कर रहे हैं।
आशंका है पेट्रोल कंपनियां 10 मार्च तक चुनाव परिणाम का भी इंतजार नहीं करने जा रही हैं। बड़ी मुश्किल से न जाने केंद्र सरकार की कितनी प्रार्थना-याचना के बाद जाकर ये कंपनियां खुद को रोके हुए हैं। आम लोगों को आशंका है कि मार्च महीने के आखिर तक ही पेट्रोल डीजल के दाम 20 रूपये से लेकर 40 रूपये तक बढ़ सकते हैं। ऐसे में वे अंध भक्त जो कल तक 200 रूपये लीटर पेट्रोल हो जाने के बावजूद शान से देशहित में मौज की बात करते थे, बड़ी आशंका है कि अन्य भारतीयों की ही तरह बड़ी संख्या में बाइक, कार को कवर कर सार्वजनिक वाहनों की ओर रुख करने के लिए मजबूर हो सकते हैं।
(जनचौक के लिए रविंद्र पटवाल का लेख)