Friday, March 29, 2024

‘ह्यूस्टन स्टेडियम में 60 हजार लोगों के कान के परदे फाड़ देने वाला हल्ला भी नहीं दबा सका कश्मीर का सन्नाटा’

धार्मिक अल्पसंख्यकों पर खुले हमलों के अतिरिक्त आज हम जिससे गुजर रहे हैं वह यह है कि वर्ग और जाति युद्ध विकराल रूप ले रहा है। 26 सितम्बर 2019 को भारत नियंत्रित कश्मीर के श्रीनगर में कश्मीरी पुरुषों ने मशाल जुलूस निकाला। इस दौरान उन्होंने नारेबाजी की और विश्व नेताओं से भारत सरकार के 5 अगस्त के फैसले का विरोध करने की गुहार लगाई जिसके तहत जम्मू-कश्मीर से विवादित अर्द्धस्वायत्तता और राज्य का दर्जा छीन लिया गया था। विश्वभर के नेता हाल में संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के लिए एकत्रित हुए हैं, जो 30 सितंबर तक चलेगा।

राजनीतिक पकड़ को मजबूत बनाने के लिए आरएसएस और बीजेपी की एक खास रणनीति लंबे समय तक बड़ी अफरातफरी मचाए रखना है। इन लोगों की रसोई में धीमी आंच पर रखे बहुत से कड़ाहे तैयार हैं, जिनमें जरूरत पड़ने पर फौरन उबाल लाया जा सकता है।

5 अगस्त 2019 को भारतीय संसद ने ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ की उन बुनियादी शर्तों को एकतरफा तौर पर तोड़ दिया जिनकी बिना पर 1947 में जम्मू और कश्मीर की पूर्व रियासत भारत में शामिल होने को तैयार हुई थी। संसद ने जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा और उस खास हैसियत को छीन लिया जिसमें राज्य को अपना संविधान और झंडा रखने का अधिकार भी शामिल था। राज्य का दर्जा छीन लेने का एक मतलब यह भी है कि भारतीय संविधान की धारा 35ए को खत्म कर दिया जाना, जिससे इस पूर्ववर्ती राज्य के लोगों को वे अधिकार और विशेषाधिकार हासिल थे, जो उन्हें अपने राज्य का प्रबंधक बनाते था। इसकी तैयारी के तौर पर सरकार ने वहां पहले से ही मौजूद हजारों सैनिकों के अलावा 50 हजार सैनिक और तैनात कर दिए। 

4 अगस्त की रात को कश्मीर घाटी से पर्यटक और तीर्थयात्रियों को निकाल लिया गया। स्कूलों और बाजारों को बंद कर दिया गया। चार हजार से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार किए गए लोगों में राजनीतिक दलों के नेता, कारोबारी, वकील, जन अधिकार कार्यकर्ता, स्थानीय नेता, छात्र और तीन पूर्व मुख्यमंत्री शामिल हैं. कश्मीर का तमाम राजनीतिक वर्ग, जिसमें हिंदुस्तान के प्रति वफादार लोग भी शामिल हैं, सभी को गिरफ्तार कर लिया गया। आधी रात को इंटरनेट काट दिया गया और टेलीफोन खामोश हो गए।

कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर दिया जाना, पूरे हिंदुस्तान में एनआरसी लागू करने का वायदा, अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंसावशेष में राम मंदिर का निर्माण-आरएसएस और बीजेपी की रसोई में चूल्हों पर चढ़े हुए कड़ाहे हैं। इन्हें बस इतना ही करना है कि फड़फड़ाती भावनाओं को दियासलाई दिखाने के लिए एक दुश्मन को इंगित करना है और जंग के कुत्तों को उस पर छोड़ देना है। इनके कई दुश्मन हैं: पाकिस्तानी जिहादी, कश्मीरी आतंकवादी, बांग्लादेशी “घुसपैठिए” और देश के तकरीबन 20 करोड़ मुसलमान जिन पर किसी भी वक्त पाकिस्तान समर्थक या देशद्रोही गद्दार होने का आरोप लगाया जा सकता है। 

इनमें से हर ‘कार्ड’ दूसरे का बंधक बना दिया गया है और अक्सर उन्हें एक दूसरे का विकल्प बनाकर पेश किया जाता है। इनका आपस में कुछ लेना-देना नहीं है और ये लोग अपनी जरूरतों, इच्छाओं, विचारधाराओं और परिस्थितियों के मुताबिक एक-दूसरे से दुश्मनी भर नहीं रखते बल्कि एक-दूसरे के अस्तित्व के लिए खतरा भी बन जाते हैं। लेकिन ये सभी चूंकि मुसलमान हैं इसलिए इन सब को एक-दूसरे की करनी का परिणाम भुगतना पड़ता है।

पिछले दो चुनावों में बीजेपी ने दिखा दिया है कि वह बिना मुस्लिम वोटों के संसद में कठोर बहुमत ला सकती है। नतीजतन, भारतीय मुसलमानों को प्रभावी ढंग से वोट की ताकत से वंचित कर दिया गया है और ये लोग राजनीतिक नुमाइंदगी से मेहरूम समुदाय बनते जा रहे हैं जिनकी कहीं कोई आवाज नहीं है। अलग-अलग तरह से किए जाने वाले अघोषित सामाजिक बहिष्कार के चलते आर्थिक रूप से यह समुदाय नीचे खिसकता जा रहा है और सुरक्षा के लिए छोटे-छोटे दड़बेनुमा मुहल्लों में सिमटता जा रहा है। भारतीय मुसलमानों के लिए मुख्यधारा के मीडिया में भी जगह नहीं है। 

अब हम सिर्फ उन मुसलमानों की आवाज टीवी में सुन पाते हैं जिन्हें समाचार कार्यक्रमों में पुरातन इस्लामिक मौलाना के तौर पर बुलाया जाता है जो पहले से ही खराब हालात को और खराब करते हैं। इसके अतिरिक्त, हिंदुस्तान में मुस्लिम समुदाय की एकमात्र स्वीकार्य भाषा यह है कि वे बार-बार सार्वजनिक तौर पर देश के झंडे के प्रति अपनी वफादारी साबित करते रहें। कश्मीरियों को उनके इतिहास और उससे भी ज्यादा उनके भूगोल के लिए सजा दी जा रही है लेकिन उनके पास जिंदा रहने की वजह के तौर पर आजादी का ख्वाब है, लेकिन भारतीय मुसलमानों को तो इस डूबते जहाज पर बने रहना है और उसके सुराखों को भरने में मदद भी करनी है।

(देशद्रोही खलनायकों की एक और श्रेणी है जिसमें मानव अधिकार कार्यकर्ता, वकील, छात्र, शिक्षक और “शहरी नक्सलवादी” आते हैं। इन लोगों को बदनाम किया गया, जेलों में डाला गया और कानूनी मामलों में फंसा दिया गया, इजराइल के जासूसी वाले सॉफ्टवेयर से इनकी जासूसी की गई और कई लोगों की हत्या कर दी गई। लेकिन यह ताशों के एक अलग ही गड्डी है।)

तबरेज अंसारी की लिंचिंग यह समझने के लिए काफी है कि जहाज कितनी बुरी तरह टूट-फूट गया है और इस पर कितना भीतर तक जंग लग गया है। यहां अमेरिका में आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि लिंचिंग का मतलब है अनुष्ठानिक हत्या की नुमाइश, जिसमें किसी आदमी या औरत को इसलिए मारा जाता है कि उनके समुदाय को बताया जा सके कि उनकी जान भीड़ के रहमो-करम पर टिकी है। पुलिस, कानून, सरकार, और यहां तक कि ऐसे लोग भी जो एक मक्खी तक नहीं मार सकते, और जो काम पर जाते हैं और अपने परिवार की देखभाल करते हैं, हत्यारी भीड़ के सहयोगी होते हैं। तबरेज की लिंचिंग इस साल जून में हुई थी। वह लड़का अनाथ था और झारखंड में अपने चाचा-चाची के घर पर पला था। 

किशोरावस्था में वह पुणे चला गया और वेल्डर की नौकरी करने लगा। 22 साल की उम्र में शादी करने घर वापस आया था। 18 साल की शाइस्ता के साथ शादी के अगले दिन, तबरेज को भीड़ ने घेर लिया, लैंपपोस्ट से बांधकर घंटों पीटा और उससे युद्ध का नया उद्घोष, “जय श्रीराम” जबरन लगवाया गया। पुलिस ने दूसरे दिन उसे हिरासत में ले लिया लेकिन उसके परिवार और नई नवेली दुल्हन को उसे अस्पताल ले जाने की इजाजत नहीं दी। पुलिस ने उस पर चोरी का इल्जाम लगाया और मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर दिया। मजिस्ट्रेट ने उसे अस्पताल नहीं, न्यायिक हिरासत में भेज दिया जहां चार दिन बाद उसकी मौत हो गई। 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट में बड़ी सावधानी से मॉब लिंचिंग के आंकड़े गायब कर दिए गए। समाचार पोर्टल द क्विंट के अनुसार, 2015 से अब तक भीड़ की हिंसा में 113 लोगों की मौत हुई है। लिंचिंग करने वाले और सामूहिक नरसंहार जैसे अन्य घृणाजन्य अपराधों में शामिल लोगों को सरकारी पद इनाम में दिए गए, और मोदी के मंत्रिमंडल के सदस्यों ने उन्हें सम्मानित किया है। मोदी जो टि्वटर में हमेशा कुछ न कुछ लिखते रहते हैं, संवेदना और जन्मदिन की मुबारकबाद देने को आतुर रहते हैं, जब-जब लिंचिंग होती है, हमेशा खामोशी ओढ़ लेते हैं। शायद ऐसा सोचना ही अतार्किक है कि जब भी कोई कुत्ता किसी की गाड़ी के नीचे आए तो प्रधानमंत्री उस पर टिप्पणी करे। आरएसएस के सुप्रीम लीडर मोहन भागवत ने दावा किया है कि लिंचिंग पश्चिमी अवधारणा है जो बाइबिल से आयातित है और हिंदुओं में ऐसी कोई परंपरा नहीं है। भागवत ने कहा है कि “लिंचिंग आपदा” की बात करना हिंदुस्तान को बदनाम करने की साजिश है।

हम जानते हैं कि यूरोप में तब क्या हुआ था जब इसी तरह की विचारधारा रखने वाले एक संगठन ने पहले खुद को अपने देश पर थोपा था पर और बाद में उसका विस्तार करना चाहा था। हम जानते हैं कि इसके बाद जो कुछ घटा इसलिए घटा कि देखने-सुनने वालों की शुरुआती चेतावनी को सारी दुनिया ने नजरअंदाज कर दिया था। हो सकता है कि यह चेतावनियां उस मर्दाना, एंग्लो-सेक्सन दुनिया के लिए संतुलित या मर्यादित न रही हों जो मुसीबतों या भावनाओं की खुली अभिव्यक्ति को शक की निगाह से देखती है।

हालांकि एक खास तरह की भड़कीली भावनाएं उसे मंजूर हैं- यह भावना कुछ हफ्ते पहले अमेरिका में खूब दिखाई दी थी। 22 सितंबर 2019 को अमेरिका में, नर्मदा बांध स्थान पर मोदी के जन्मदिन की पार्टी के चार-पांच दिन बाद, हजारों भारतीय अमेरीकी ह्यूस्टन के एनआरजी स्टेडियम में एक शानदार कार्यक्रम “हाउडी मोदी!” में शामिल होने आए थे। अब यह कार्यक्रम शहरी दंतकथा की सामग्री बन चुका है। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने बड़ी हार्दिकता दिखाते हुए, अपने ही देश में, अपनी ही जनता के सामने, अमेरिका दौरे पर आए भारतीय प्रधानमंत्री के द्वारा खुद को खास मेहमान कहे जाने की इजाजत दी। अमेरिकी कांग्रेस के कई सदस्यों ने इस मौके पर भाषण दिए, बेहद खिली बांछों के साथ और शारीर कृतज्ञता मंडित। नगाड़ों की आवाज के बीच खुशी से चिल्लाती और प्रशंसा से अभिभूत भीड़ ने “मोदी, मोदी” के नारे लगाए। कार्यक्रम के अंत में ट्रंप और मोदी ने हाथ मिलाया और विजयी भाव से आपस में गले लगे। स्टेडियम जैसे उन्मादी शोर से फटा जा रहा था। हिंदुस्तान में उस हल्ले को टीवी चैनलों ने कार्पेट कवरेज के जरिए हजार गुना बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया। देखते ही देखते “हाउडी” हिंदी शब्द बन गया। इस बीच, स्टेडियम के बाहर विरोध कर रहे हजारों लोगों को इन समाचार संस्थाओं ने नजरअंदाज कर दिया।

हिंदुस्तान में हममें से कई लोग डरते-कांपते कभी “हाउडी मोदी!” देखते थे और कभी नाजी रैली पर बनी लाउरा पोइट्रास की 1939 की छोटी डॉक्यूमेंट्री, जिसमें सारा मैडिसन स्क्वेयर गार्डन खचाखच भर गया था।

ह्यूस्टन स्टेडियम में 60 हजार लोगों का हल्ला भी कानों के परदे फाड़ देने वाले कश्मीर के सन्नाटे को दबा नहीं पाया। उस दिन, 22 सितंबर को, जब वहां कार्यक्रम हो रहा था, घाटी में कर्फ्यू और संचार पर लगी रोक के 48 दिन पूरे हो चुके थे।

मोदी ने एक बार फिर अपनी विशिष्ट बर्बरता का ऐसा प्रदर्शन किया जिसे आधुनिक युग में किसी ने देखा न सुना। और एक बार फिर इस प्रदर्शन ने भक्तों में बीच में उन्हें और अधिक प्रेम का पात्र बना दिया। 6 अगस्त को जब जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक संसद में पारित हुआ तो हर तरह के राजनीतिक दलों में इसका जश्न मनाया गया। कार्यालयों में मिठाइयां बांटी गईं और सड़कों पर नृत्य किया गया। एक विजय—औपनिवेशिक कब्जा, हिंदू-राष्ट्र का एक विजय-घोष-उत्साह से मनाया गया। एक बार फिर जीतने वालों की ललचाई नजरें जीत की आदिम ट्रॉफी-जमीन और औरत पर पड़ीं। बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं के वक्तव्य और देशभक्ति के पॉप वीडियो, जिन्हें करोड़ों लोगों ने देखा, इस कुख्यात काम को जायज ठहरा रहे थे। गूगल ट्रेंड से पता चलता है कि “कश्मीरी लड़की से शादी” और “कश्मीर में जमीन खरीदना” को सब से ज्यादा सर्च किया गया।

यह सिर्फ गूगल पर भद्दी खोज तक सीमित नहीं रहा। कश्मीर की घेराबंदी के बाद कुछ दिनों में ही “वन परामर्श समिति” ने जंगल के अन्य इस्तेमाल के लिए 125 परियोजनाओं को मंजूरी दे दी। 

प्रदर्शनकारियों पर सुरक्षा बलों द्वारा पैलेट गन से हमला किए जाने के बाद स्थानीय लोगों ने श्रीनगर के सौरा के पड़ोस में एक मस्जिद में एक युवा कश्मीरी व्यक्ति का इलाज किया। जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीन लेने और विशेष दर्जा हटाने की तैयारी में, भारत सरकार ने इस क्षेत्र में पचास हजार से अधिक सैनिकों को भेजा। इस क्षेत्र में पहले से ही हजारों-हजार सैनिक तैनात हैं।

लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में घाटी से बहुत कम खबरें बाहर आ पाईं। भारतीय मीडिया ने हमें वही बताया जो सरकार हमें सुनाना चाहती थी। कश्मीरी अखबारों पर पूरी तरह से सेंसरशिप लगा दी गई। ये अखबार रद्द हो चुकी शादियों, जलवायु परिवर्तन के असर, झीलों और वन्य जीव-जंतु अभ्यारण्यों के संरक्षण, शुगर की बीमारी के साथ जीने के नुस्खे, और पहले पन्नों में उन सरकारी विज्ञापनों से भरे थे जो बताते थे कि कश्मीर के एक नए, घटे हुए वैधानिक दर्जे से कश्मीरियों को क्या-क्या फायदे होंगे। इन “फायदों” में संभवत: बड़े बांधों का निर्माण भी शामिल है जो कश्मीर में बहने वाली नदियों का पानी अपने कब्जे में लेंगे और मनमुताबिक इस्तेमाल करेंगे। इन फायदों में जंगल की कटाई के होने वाले भू-क्षरण, हिमालय के नाजुक इकोसिस्टम का विनाश, और निश्चित ही कश्मीर की प्राकृतिक संपदा की भारतीय कारपोरेट द्वारा लूट भी शामिल होगी।

कश्मीर में प्रदर्शन का एक दृश्य।

आम लोगों के जीवन की असल रिपोर्टिंग ज्यादातर ऐसे पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने की जो ‘एजेंस फ्रांस प्रैसे’, ‘एसोसिएटेड प्रेस’, ‘अल-जज़ीरा’, ‘द गार्डियन’, ‘बीबीसी’, ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ और ‘वाशिंगटन पोस्ट’ जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया से जुड़े थे। सूचना-शून्य माहौल में काम करते हुए, जिसमें उन्हें आधुनिक युग के पत्रकारों जैसी कोई सहूलत प्राप्त नहीं थी, ज्यादातर कश्मीरी पत्रकारों ने बड़ा जोखिम लेकर अपने क्षेत्रों का दौरा किया और हमारे लिए खबरें बाहर लेकर आए। खबरें क्या थीं : रात में मारे जा रहे छापों की खबरें, नौजवान लड़कों को राउंड-अप करके घंटों तक पीटने की खबरें, उनकी चीखों को माइक्रोफोन पर सुनाने की खबरें ताकि उनके पड़ोसी और परिवार वाले सबक ले सकें, सैनिकों का गांव वालों के घरों में घुसकर सर्दियों के लिए रखे उनके अनाज पर उर्वरक और मिट्टीतेल उंड़ेल देने की खबरें। इनमें उन बच्चों की खबरें भी थीं जिनके शरीर पैलेट गन से छलनी कर दिए गए थे और वे अपना इलाज घरों में ही करा रहे थे क्योंकि अगर वे इलाज कराने अस्पताल जाते तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता। उन सैकड़ों बच्चों की खबरें भी थीं जिन्हें रात के अंधेरे में घरों से उठा लिया गया और उन मां-बाप की खबरें भी जो बेचैनी और हताशा से बीमार पड़ रहे थे। डर, आक्रोष, निराशा, भ्रम, फौलादी प्रतिबद्धता और पुरजोश प्रतिरोध की खबरें भी थीं।

लेकिन गृहमंत्री अमित शाह ने दावा किया कि कश्मीर की घेराबंदी सिर्फ लोगों के दिमाग की उपज है, और जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने बताया कि कश्मीरियों के लिए टेलीफोन लाइनों का महत्त्व नहीं है क्योंकि उनका इस्तेमाल केवल आतंकवादी करते हैं। सैन्य प्रमुख बिपिन रावत ने कहा, “जम्मू-कश्मीर में आम जनजीवन प्रभावित नहीं हुआ है। लोग अपना जरूरी काम कर रहे हैं… जो लोग कह रहे हैं कि जनजीवन पर असर पड़ा है, ये वही लोग हैं जिनका जीवन आतंकवाद पर आश्रित है।” इन वक्तव्यों से यह समझना आसान है कि हिंदुस्तानी सरकार किन लोगों को आतंकवादी मानती है।

जरा कल्पना कीजिए कि पूरे न्यूयॉर्क शहर में खबरों पर पाबंदी लगा दी जाए और ऐसा कर्फ्यू लगा दिया जाए जिसमें लाखों सैनिक गश्त कर रहे हों। कल्पना कीजिए कि कटीली तारें बिछाकर आपके शहर का नक्शा बदल दिया जाए और उसमें यातना केंद्र खोल दिए जाएं। कल्पना कीजिए कि आपके पड़ोस में छोटे-छोटे अबुगारीब नमूदार हो जाएं। कल्पना कीजिए कि आप जैसे हजारों लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाए और आपके परिवार वालों को पता ही न चले कि आपको कहां रखा गया है। कल्पना कीजिए कि आप किसी के भी संपर्क में न रहें, अपने पड़ोसी के नहीं, शहर के बाहर रहने वाले अपने प्रिय-जनों के नहीं, बाहरी दुनिया में किसी के साथ कोई संपर्क न हो, और हफ्तों तक ऐसा ही चले। कल्पना कीजिए कि बैंक और स्कूल बंद हैं, बच्चे अपने घरों में कैद हैं। कल्पना कीजिए कि आपके मां-बाप, भाई-बहन, जीवन-साथी, या बच्चे मर रहे हैं और आपको हफ्तों तक इसकी खबर ही न मिले। जरा कल्पना कीजिए मेडिकल इमरजेंसी की, मेंटल हेल्थ इमरजेंसी की, कानूनी इमरजेंसी की, खाने, पैसे और गैस के अभाव की। कल्पना कीजिए कि आप एक दिहाड़ी मजदूर या ठेका मजदूर हैं और आप हफ्ता दर हफ्ता काम पर नहीं जा पा रहे हैं। और जरा सोचिए कि आप से कहा जाए कि यह सब आपकी भलाई के लिए किया जा रहा है।

पिछले कुछ महीनों में जो दहशत कश्मीरियों के हिस्से आई है वह 30 साल पुराने उस हथियारबंद संघर्ष के अलावा है जिसने अब तक 70 हजार लोगों की जानें ले ली हैं और उनकी घाटी को कब्रों से ढक दिया है। इन लोगों ने सब कुछ झेला-जंग, पैसा, टॉर्चर, ढेरों लोगों की गुमशुदगी, पांच लाख से ज्यादा सैनिकों की तैनाती और उनके खिलाफ दुष्प्रचार, जो पूरी आबादी को हत्यारा कट्टरवादी बताता है।

कश्मीर की घेराबंदी को अब तीन महीने से ज्यादा बीत चुके हैं। कश्मीरी नेतागण अभी भी जेलों में कैद हैं। उन्हें सिर्फ इस शर्त पर रिहा करने की पेशकश है कि वे लिखित रूप से मानें कि वे लोग साल भर तक कोई बयान नहीं देंगे। ज्यादातर लोगों ने इस शर्त को नामंजूर कर दिया है। 

फिलहाल कर्फ्यू ढीला कर दिया गया है, स्कूल दुबारा खुल गए हैं और कुछ फोन लाइनें चालू हो गई हैं। स्थिति “सामान्य” होने की घोषणा कर दी गई है। कश्मीर में हालात का सामान्य होना हमेशा ही एक घोषणा-योग्य स्थिति होती है जिसे सरकार या सेना जारी करती है। इसका लोगों और उनकी रोजमर्रे की जिंदगी पर नाममात्र का असर पड़ता है।

कश्मीरियों ने इस नई सामान्य हालत को मंजूर करने से फिलहाल इनकार कर रखा है। स्कूल खाली पड़े हैं और सेबों की बम्पर पैदावार बगीचों में सड़ रही है। मां-बाप और किसानों के लिए इससे अधिक मुश्किल हालात भला क्या हो सकते हैं। हां, शायद यही कि उनके अस्तित्व को ही मिटा दिया जाए।

कश्मीर में संघर्ष का नया दौर शुरू हो चुका है। उग्रवादियों ने चेतावनी दी है कि अब वे सभी भारतीयों को जायज निशाना समझेंगे। अब तक 10 से ज्यादा गरीब गैर-कश्मीरी मजदूर मारे जा चुके हैं। (जी हां गरीब, हमेशा गरीब ही, ऐसी लड़ाइयों का शिकार बनते हैं)। यह और अधिक घिनौना होने वाला है। बेहद घिनौना।

जल्द ही हाल की घटनाओं को भुला दिया जाएगा और एक बार फिर टीवी स्टूडियो में भारतीय सुरक्षा बलों और कश्मीरी उग्रवादियों की ज्यादतियों पर तुलनात्मक बहसें होंगी। कश्मीर की बात करने पर हिंदुस्तानी सरकार और उसका मीडिया तुरंत ही आपको पाकिस्तान के बारे में बताएगा। ऐसा जानबूझकर किया जाएगा ताकि सेना के कब्जे में जी रहे आम लोगों की लोकतांत्रिक मांगों को विदेशी राज्य के कुकृत्य से गड्ड-मड्ड किया जा सके। हिंदुस्तानी सरकार ने साफ कर दिया है कि कश्मीरियों के सामने बस एक ही चारा बचा है और वह है पूरी तरह से घुटने टेक देना। सरकार को किसी भी तरह का विरोध नामंजूर है फिर चाहे वह हिंसक हो या अहिंसा, बोलकर किया जाए या लिखकर या गीत गाकर। फिर भी कश्मीरी जानते हैं कि अगर जिंदा रहना है तो प्रतिरोध करना ही होगा।

ये लोग हिंदुस्तान का हिस्सा भला क्यों बनना चाहेंगे? दुनिया में इसकी कोई वजह हो तो बताइए? अगर वह लोग आजादी चाहते हैं तो उन्हें आजादी मिलनी ही चाहिए।

यही तो हिंदुस्तानियों की भी चाहत होनी चाहिए। कश्मीरियों के लिए नहीं, बल्कि खुद अपने लिए। उनके नाम पर जो जुल्म किए रहे हैं, अत्याचार किया जा रहा है वह ऐसा क्षरण है जिसे हिंदुस्तान झेल नहीं पाएगा। हो सकता है कि कश्मीर हिंदुस्तान को हरा न सके लेकिन वह हिंदुस्तान को निगल जरूर जाएगा। कई तरह से, ऐसा हो भी चुका है।

ह्यूस्टन स्टेडियम में तालियां बजाने वाले उन 60 हजार लोगों के लिए इसका शायद कोई ज्यादा महत्व न हो जो अमेरिका जाकर बसने के सबसे बड़े भारतीय सपने को पूरा कर चुके हैं। उनके लिए कश्मीर थकी हुई पुरानी समस्या है जिसके बारे में उन्होंने बड़ी बेवकूफी से मान लिया है कि बीजेपी ने इसका हमेशा के लिए समाधान कर दिया है। लेकिन निश्चित रूप से, क्योंकि ये सभी अप्रवासी हैं, इसलिए इनसे उम्मीद तो की जा सकती है कि ये असम में जो हो रहा है उसे शायद अधिक समझेंगे। या शायद यह कुछ ज्यादा ही उम्मीद करने जैसी बात है क्योंकि ये वही लोग हैं जो शरणार्थी संकट का सामना कर रही दुनिया के सबसे भाग्यशाली शरणार्थी हैं। ह्यूस्टन में आए ज्यादातर लोग ऐसे लोगों की तरह थे जिनके पास हॉलीडे होम होते हैं, इनके पास शायद अमेरिका की नागरिकता और समुद्र पार भारतीय नागरिक का प्रमाणपत्र भी हो।

“हाउडी मोदी!” असम के 20 लाख लोगों द्वारा राष्ट्रीय नागरिक पंजिका में अपना नाम खो देने के 22वें दिन हो रहा था।

असम के बारपेटा जिले के अनार हुसैन ने अपनी दो जवान बेटियों का नाम राष्ट्रीय नागरिक पंजिका के प्रारंभिक मसौदे से बाहर पाया। एनआरसी को अपडेट करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने असम में लाखों लोगों को नौकरशाही, कानूनी पेचीदगियों, दस्तावेजों, अदालत की सुनवाइयों और उनके साथ होने वाली सभी क्रूर जालसाजियों के हवाले कर दिया है।

असम में एनआरसी की कवायद।

कश्मीर की तरह ही असम भी एक सीमांत राज्य है जिसके इतिहास में कई सार्वभौम सत्ताएं बनी और लुप्त हो गईं, यहां सदियों से आव्रजन होता रहा, युद्ध और घुसपैठें हुईं, यहां की सीमाएं बदलती रही हैं, ब्रिटिश उपनिवेशवाद और 70 साल के चुनावी लोकतंत्र ने इस खतरनाक स्तर तक ज्वलंत समाज में दरारों को गहरा कर दिया है।

असम में एनआरसी हुआ इसका कारण उसका विशेष सांस्कृतिक इतिहास है। 1826 में आंग्ल-बर्मा युद्ध के बाद अंग्रेजों के साथ शांति समझौते के तहत इस क्षेत्र को बर्मा ने अंग्रेजों के हवाले किया था। उस वक्त यहां घने जंगल हुआ करते थे और यहां बहुत कम आबादी थी। यहां बोडो, संथाल, कचार, मिशिंग, लालूंग, अहोमी हिंदू, अहोमी मुस्लिम जैसे सैकड़ों समुदाय रहते थे। हर समुदाय की अपनी भाषा थी, जमीन के साथ प्राकृतिक रूप से विकसित रिश्ते थे, यद्यपि इस संबंध को दस्तावेजों से साबित नहीं किया जा सकता। असम हमेशा से ही अल्पसंख्यकों का गुलदस्ता था जो नस्ली और भाषाई गठबंधन बनाकर बहुसंख्यक बन जाते थे। कोई भी वस्तु जो इस संतुलन को बिगाड़ने या उसके लिए खतरा बने वह संभावित हिंसा का कारण बन जाती थी।

1826 में इस संतुलन को बिगाड़ने के बीज बोए गए। असम के नए मालिक अंग्रेजों ने बंगाली भाषा को यहां की आधिकारिक भाषा बना दिया। इसका मतलब था कि लगभग सभी प्रशासनिक और सरकारी नौकरियां शिक्षित हिंदू बंगाली भाषी संभ्रांत लोगों ने ले लीं। हालांकि इस नीति को 1877 में बदल दिया गया और बंगाली के साथ असमी को भी आधिकारिक मान्यता दे दी गई जिसने शक्ति संतुलन को गंभीर रूप से बदल दिया। इसके साथ ही असमी और बंगाली भाषा बोलने वालों की दुश्मनी की शुरुआत हो गई, जो दो सदियों पुरानी हो चुकी है।

19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश लोगों को पता चला कि इस क्षेत्र की मिट्टी और वातावरण चाय की खेती के लिए अच्छे हैं। स्थानीय लोग चाय के बागानों में गुलामों की तरह काम करना नहीं चाहते थे इसलिए मध्य हिंदुस्तान से मूल निवासियों को यहां ला कर बड़ी संख्या में बसाया गया. ये उन गिरमिटिया मजदूरों से अलग नहीं थे जिन्हें अंग्रेज जहाजों में भर-भर कर दुनिया भर के अपने उपनिवेशों में ले जाया करते थे। आज चाय बागान में काम करने वाले लोग असम की आबादी का 15 से 20 फीसदी हैं, लेकिन अफ्रीका के भारतीय मूल के लोगों से उलट, इन लोगों को शर्मनाक तरीके से आज नीच समझा जाता है और ये आज भी चाय बागानों में ही रहते हैं, गुलामों को मिलने वाला भत्ता पाते हैं और बागान मालिकों की दया पर जिंदा है।

1890 के दशक के अंत तक पड़ोसी पूर्वी बंगाल की तराई में चाय बागान का विकास इतना हो चुका था कि और ज्यादा चाय नहीं लगाई जा सकती थी इसलिए अंग्रेज मालिकों ने बंगाली मुस्लिम किसानों को, जो ब्रह्मपुत्र नदी के उपजाऊ, दलदली किनारों और डूबते-उभरते टापुओं में, जिन्हें चार कहा जाता है, धान की खेती करने में माहिर थे, असम आने के लिए प्रोत्साहन दिया। अंग्रेजों के लिए असम के जंगल और तराई वाला हिस्सा अगर टैरा नलिस (लावारिस) नहीं भी था तो वह जमीन लगभग लावारिस ही थी। इस क्षेत्र में बहुत से असमी आदिवासी कबीलों की मौजूदगी को नजरअंदाज करते हुए अंग्रेजों ने इन मामूली आदिवासियों की जमीनें “उत्पादक” किसानों को देनी शुरू कर दी जिन्हें आने वाले समय में ब्रिटिश राजस्व संकलन में योगदान देना था। हजारों की संख्या में आव्रजक यहां आकर बसे, इन लोगों ने जंगल साफ किए और यहां की दलदली जमीन को खेतों में तब्दील कर खाद्यानों और जूट की खेती की। 1930 तक आव्रजन ने यहां की आबादी संतुलन और अर्थतंत्र को बड़े पैमाने पर बदल दिया।

शुरुआत में असम के राष्ट्रवादी समूहों ने आव्रजकों का स्वागत किया लेकिन जल्द ही जातीय, धार्मिक और भाषाई तनाव शुरू हो गया। यह तनाव उस वक्त थोड़ा कम हुआ जब 1937 की जन गणना में बंगाली भाषी मुसलमानों ने, जिनकी समस्त स्थानीय बोलियों को मिलाकर “मियां भाषा” भी कहते हैं, अपने नए वतन के प्रति एकजुटता का इजहार करते हुए असमी को अपनी मातृभाषा घोषित की, ताकि यह भाषा आधारिक भाषा का दर्जा बनाए रख सके। आज भी मियां बोलियां असमी लिपि में ही लिखी जाती हैं।

बाद के सालों में असम की सीमाएं बार-बार बनती-बिगड़ती रही, लगभग चकरा देने की हद तक तेजी से। 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल का बंटवारा किया तो उन्होंने असम को मुस्लिम बहुलता वाले पूर्वी बंगाल के साथ मिला दिया जिसकी राजधानी ढाका थी। अचानक ही असम की माइग्रेंट या प्रवासी आबादी प्रवासी नहीं रही बल्कि बहुसंख्यक आबादी का हिस्सा बन गई।  इसके सात साल बाद जब बंगाल का दुबारा एकीकरण हुआ तो असम खुद एक प्रांत बन गया और इसकी बंगाली आबादी एक बार फिर प्रवासी हो गई। 1947 के बंटवारे के बाद पूर्वी बंगाल पूर्वी पाकिस्तान बन गया और असम में बसे बंगाली मुसलमानों ने असम में ही रहना स्वीकार किया। लेकिन विभाजन के बाद असम में बड़ी संख्या में बंगाली शरणार्थी, हिंदू और मुसलमान, आए। इसके बाद 1971 में जब पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में नस्ली नरसंहार को अंजाम दिया और लाखों लोग मारे गए थे, तो एक बार फिर इस क्षेत्र में शरणार्थियों की बाढ़-सी आई। मुक्ति युद्ध के बाद नया राष्ट्र बांग्लादेश अस्तित्व में आया।

तो बात ऐसी है कि असम पहले पूर्वी बंगाल का हिस्सा था और बाद में हिस्सा नहीं रहा। पूर्वी बंगाल पूर्वी पाकिस्तान बना और पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया। देश बदल गए, झंडे बदल गए और राष्ट्रगान बदल गया। शहर फैले, जंगल सिकुड़े, दलदली जमीन खेती के लायक बना दी गई और आदिवासियों की जमीन को आधुनिक विकास ने निगल लिया। और लोगों के बीच की दरारें पुरानी होकर सख्त और इतनी गहरी हो गईं कि अब उन्हें भरा नहीं जा सकता था।

जारी…

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