Saturday, April 27, 2024

क्या तमिलनाडु में भाजपा को अपने आक्रामक चुनाव अभियान से कुछ हासिल होगा?

तमिलनाडु में सत्तारूढ़ डीएमके सहित एआईडीएमके और भाजपा के द्वारा अपने-अपने गठबंधनों को अंतिम स्वरुप देने का काम लगभग पूरा हो चुका है, जिसमें किस सहयोगी दल के खाते में कौन निर्वाचन क्षेत्र होगा, से लेकर अधिकांश उम्मीदवारों के नामों तक को तय किया जा चुका है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि तमिलनाडु में लोकसभा चुनावों के लिए रणक्षेत्र की रूपरेखा स्पष्ट रूप से तैयार की जा चुकी है।

तीनों गठबंधन की ताकत को देखते हुए अब इस निष्कर्ष में कोई संदेह नहीं है कि डीएमके और उसके सहयोगी दल न सिर्फ भारी बहुमत हासिल करने की स्थिति में हैं, बल्कि सारी की सारी 39 लोकसभा सीटें भी जीत जायें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस बात की भविष्यवाणी न सिर्फ अधिकांश विश्वसनीय जनमत सर्वेक्षणों में की जा रही है, बल्कि यह राय प्रदेश में राजनीतिक एवं आम लोगों के द्वारा भी साझा की जा रही है।

अब जबकि संभावित चुनाव परिणाम को लेकर पहले से ही राज्य एक निष्कर्ष पर पहुंच चुका है, ऐसे में यह जानना जरुरी है कि तमिलनाडु में चुनावी संघर्ष में वे कौन से प्रमुख चुनावी मुद्दे हैं?

इस राज्य में संघीय ढांचे का मुद्दा सबसे प्रमुखता से छाया हुआ है। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली मोदी सरकार के तमिलनाडु के साथ भेदभाव के मुद्दे को डीएमके ने अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया हुआ है। इसके अलावा चुनी हुई सरकार के विधायी फैसलों को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए आगे न भेजकर तमिलनाडु के राज्यपाल अपनी मनमानी कर रहे हैं, यहां तक ​​कि उनके द्वारा सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का खुलेआम उल्लंघन का मुद्दा भी प्रमुख चुनावी मुद्दा बंटा जा रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत के द्वारा हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के खिलाफ की गई सख्त टिप्पणी भी डीएमके के चुनावी अभियान के लिए एक बड़े उत्साहवर्धक के रूप में काम कर रहा है।

भाजपा की ओर से पूरा जोर इस चुनावी रणक्षेत्र में इस बात को लेकर लगाया जा रहा है कि देखने में लगे कि डीएमके के खिलाफ प्रमुख विपक्षी पार्टी कोई और नहीं, बल्कि वह स्वंय है। भाजपा का लक्ष्य राज्य में खुद को प्रमुख विपक्षी दल के रूप में दिखाने के साथ-साथ अन्नाद्रमुक को तीसरे स्थान पर धकेलने का बना हुआ है।

बता दें कि एआईडीएमके जो पूर्व में लंबे समय से एनडीए का घटक दल रहा है, ने राज्य में भाजपा के साथ गठबंधन की सूरत में खुद की जमीन खिसकते जाने के मद्देनजर संबंध-विच्छेद कर दिया था, जिसे हाल तक भाजपा के द्वारा दोबारा से नाता जोड़ने की जीतोड़ कोशिश को पार्टी प्रमुख एडप्पादी पलानीस्वामी ने साफ़-साफ़ मना कर संबंध बहाली का दरवाजा अपनी तरफ से मजबूती से बंद कर दिया था। यहां पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि एआईडीएमके प्रमुख एडप्पादी पलानीस्वामी की टीम आज के दिन राज्य में डीएमके के सामने प्रमुख विपक्षी दल की लड़ाई लड़ रहे हैं। पूर्व में पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेल्वम और शशिकला के भतीजे टीटीवी दिनाकरन, जो कि जयललिता की जायदाद के पूर्व प्रबंधक होने के साथ-साथ सिंगापुर में बड़े व्यावसायिक हित रखने वाले व्यवसायी हैं, के नेतृत्व में असंतुष्ट अन्नाद्रमुक गुट के द्वारा भाजपा के साथ मिलकर पार्टी में तोड़फोड़ के प्रयास किये गये, जिसका एआईडीएमके ने हाल तक सामना किया है। 

पलानीस्वामी को आज दो मोर्चों का सामना करना पड़ रहा है, एक तरफ उनके पास द्रमुक के मुकाबले एआईडीएमके को मुख्य विपक्षी दल के रूप में फिर से स्थापित करने की चुनौती है तो दूसरी तरफ तमिलनाडु की राजनीति में दो द्रविड़ पार्टियों की दो-ध्रुवीय लड़ाई को जारी रखने की चुनौती है, जिसमें किसी तीसरे मोर्चे के लिए कोई स्थान नहीं है।

इसलिए आज पूर्व की तुलना में दो की जगह त्रिकोणीय मुकाबले की तैयारी की जा रही है, जिसके परिणामस्वरूप बाकी के सभी छोटे दलों के सामने अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती आ खड़ी हुई है। ऐसे में उनके सामने इन्हीं तीन राजनीतिक ढांचों में से किसी एक के पीछे आने की मजबूरी बन गई है। केंद्र की सत्ता पर भाजपा के आधिपत्य एवं मीडिया पर उसकी पकड़ के चलते भले ही राज्य में भाजपा के आक्रामक चुनावी प्रचार की वजह से चुनाव त्रिकोणीयता का आभास दिला रहा हो, लेकिन इस सबके बावजूद तमिलनाडु की राजनीति अभी भी द्विध्रुवीय ही बनी हुई है।

आइए हम एक-एक कर तमिलनाडु की इन तीन प्रमुख राजनीतिक घटकों के बारे में विस्तार से पड़ताल करते हैं।

राजकोषीय संघवाद का मुद्दा

डीएमके का यह दावा कि राज्य से टैक्स के तौर पर चुकता किए गए प्रत्येक रुपये के बदले में केंद्र की ओर से राज्य को बदले में मात्र 29 पैसे वापस दिए जा रहे हैं। इसकी तुलना में उत्तर प्रदेश से अगर एक रुपया सेंट्रल टैक्स के तौर पर वसूला जाता है, तो उसके बदले में राज्य को 2.73 रुपये दिए जा रहे हैं। बिहार के मामले में तो केंद्र राज्य को हर एक रूपये के बदले में 7.06 रुपये दे रहा है। डीएमके के इस नैरेटिव ने राज्य में आम-जनमानस को गहरे स्तर तक प्रभावित कर डाला है। दूसरे शब्दों में कहें तो, यह आरोप कि तमिलनाडु का पैसा उत्तर भारत के अकुशल प्रबंधन वाले एनडीए शासित राज्यों की ओर डाइवर्ट किया जा रहा है, ने राज्य के मतदाताओं के बीच अपनी पैठ जमा ली है।

केंद्र के खिलाफ कुछ इसी तरह के आरोप केरल और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों ने भी लगाते हुए दिल्ली में प्रदर्शन किये, और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने भी केंद्र के खिलाफ कुछ ऐसे ही आरोप लगाये हैं। इन बातों से भी एमके स्टालिन की केंद्र के खिलाफ घोषित मुहिम को बल मिला है। दुर्भाग्य की बात है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद इन चार दक्षिण राज्य के मुख्यमंत्री अभी तक वित्त आयोग द्वारा हस्तांतरण के एक परिवर्तित फॉर्मूले एवं जीएसटी राजस्व के बंटवारे को लेकर एक पुनर्गठित ढांचे की अपनी लोकप्रिय मांग को स्पष्ट स्वरुप दे पाने में विफल रहे हैं।

संघवाद से जुड़े कुछ अन्य मुद्दे 

राजकोषीय संघवाद के मुद्दे के अलावा, जिस प्रकार से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा लापरवाही वाला बयान दिया गया और उसके बाद केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे के द्वारा बेंगलुरु में रामेश्वरम कैफे बम विस्फोट मामले पर तमिलनाडु को आतंकवादियों की नर्सरी बताकर बदनाम करने की कोशिश की गई, जिसके बारे में उन्होंने कहा कि ये आरोपी तमिलनाडु से आए थे, ने तमिल भावनाओं को आहत किया है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने स्वयं आगे आकर इसके खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया, और बयान में कहा कि नफरत की इस राजनीति के चलते तमिलों और कन्नड़ लोगों के बीच दरार पैदा की जा रही है। इस मामले पर चुनाव आयोग ने भी संज्ञान लेते हुए कर्नाटक के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को केंद्रीय मंत्री के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया। इसी का असर था कि केंद्रीय मंत्री शोभा करंदलाजे को माफी मांगने और अपना बयान वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है। । लेकिन तमिलनाडु में भाजपा को नुकसान होना था, वह पहले ही हो चुका था।

इस नुकसान की भरपाई के तौर पर एनआईए के द्वारा मीडिया में आरोपी शाजिब और उसके साथी अब्दुल मतीन ताहा के कथित तमिलनाडु लिंक को मीडिया में प्रचारित किया गया, जिसमें दावा किया गया कि मुख्य आरोपी द्वारा जो टोपी पहनी गई थी, उसे चेन्नई के एक मॉल से खरीदा गया था, और वे चेन्नई में रुके थे। लेकिन शोभा और एनआईए दोनों ही बड़ी आसानी से इस तथ्य को भुला दिए कि दोनों आरोपी तो कर्नाटक के शिमोगा के रहने वाले हैं, और वे आंध्र प्रदेश भी गये थे और महाराष्ट्र में रुके थे। भाजपा के द्वारा इस प्रकार के हताशा भरे उपायों को अपनाकर आतंकवाद के बल पर राजनीति चलाने के भाजपा का हथकंडा उल्टे उनके गले पड़ गया है।

आम लोगों की धारणा में यह बात घर कर गई है कि तमिलनाडु के राज्यपाल का अभद्र और अशोभनीय एवं घृणास्पद व्यवहार असल में केंद्र के इशारे पर तमिलनाडु की निर्वाचित लोकप्रिय सरकार को परेशान करने के मकसद से किया जा रहा है। राज्यपाल की इन करतूतों ने सिर्फ सत्तारूढ़ दल को ही चोट नहीं पहुंचाया है, बल्कि इसने तमिलों के राष्ट्रवाद और मूलनिवासी भावनाओं को भी उकसाने का काम किया है। यहां तक ​​कि कई तटस्थ पर्यवेक्षकों तक के लिए जो कि डीएमके का समर्थन नहीं करते हैं, वे तक इसे लोकतांत्रिक मानदंडों पर हमले के रूप में देख रहे हैं, और तमिलनाडु के भीतर मोदी शासन की निरंकुश छवि हर गुजरे दिन के साथ मजबूत होती जा रही है।

इसमें भी सबसे प्रमुख तथ्य यह है कि उत्तरी मद्रास और तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में दो-दो  अभूतपूर्व बाढ़ आपदा के दौरान राष्ट्रीय आपदा राहत कोष के तहत पारंपरिक चलताऊ सहायता राशि के अलावा केंद्र सरकार ने एक रुपये की भी सहायता देने से इंकार कर भाजपा के लिए तमिलों से पार्टी के लिए वोट की अपील करने के नैतिक अधिकार से वंचित कर दिया है। उत्तर भारत में मोदी की एक “मजबूत नेता” की जो छवि बनी है, उसके विपरीत तमिलनाडु की आम जनता के मन में मोदी को अब तक के सबसे निर्दयी तानाशाह के रूप में देखा जा रहा है।

भाजपा के लिए डीएमके के मुकाबले मुख्य विपक्षी दल के तौर पर दूसरे स्थान पर आने की बात तो दूर की कौड़ी है, असल में अन्नाद्रमुक के बाद भाजपा को कॉलीवुड की मशहूर हस्ती सीमान के ‘नाम तमिलर काची’ (वी द तमिल्स पार्टी) जैसे अति-राष्ट्रवादी राजनीति करने वाले दल के साथ तीसरे स्थान के लिए जद्दोजहद करना पड़ेगा, जिसे 2021 के विधानसभा चुनाव में 7% वोट हासिल हुए थे। कुछ पर्यवेक्षकों का तो यहां तक कहना है कि इस चुनाव में भाजपा को चौथे स्थान के लिए नोटा (NOTA) तक से प्रतिस्पर्धा करने की नौबत आ सकती है! पिछले चुनावों में एनडीए सहयोगी दलों के मत प्रतिशत के ब्यौरे को नीचे तालिका में दिया गया है, जो इस दावे को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं।

पिछले चुनावों में एनडीए के दो प्रमुख सहयोगियों का वोट शेयर:

पार्टी 2014 लोकसभा चुनाव2016 विधानसभा चुनाव2019 लोकसभा चुनाव2021 विधानसभा चुनाव
बीजेपी5.56%2.84%3.6%2.6%
पीएमके4.5%5.34%5.3%3.8%

तमिलनाडु में एनडीए के इन दोनों प्रमुख सहयोगी दलों का संयुक्त वोट शेयर 10% से निरंतर घटते हुए करीब 7% तक पहुंच चुका है। इस नये गठबंधन में कोई नाटकीय नया तत्व नहीं देखने को मिला है।

डीएमके और एआईएडीएमके का वोट प्रतिशत 

1996 में जब जयललिता सरकार को हार का मुहं देखना पड़ा था, तब डीएमके के हिस्से में 42।1% वोट आये थे। लेकिन लगभग एक दशक तक सत्ता में रहने के बाद 2006 में डीएमके के पक्ष में मत प्रतिशत गिरकर 26।5% रह गया था, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में यह बढ़कर 32% हो गया और 2021 के विधानसभा चुनावों में इसने अपने दम पर 37.7% वोट हासिल किए थे, जबकि यूपीए गठबंधन को कुल 45.38% वोट हासिल हुए थे।

एमके स्टालिन की योजना, हर घर से एक महिला को 1000 रुपये देने एवं महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा की योजना का ही यह असर है, जिसके चलते करीब 50% महिला मतदाता अब डीएमके के पक्ष में एकजुट हैं, और पार्टी आगामी आम चुनाव में महिला समर्थन को 60% के रिकॉर्ड स्तर को भी पार करने की उम्मीद कर रही है।

भाजपा अगर सारे प्रमुख गैर-द्रमुक पार्टियों को एकजुट कर पाती तो अवश्य डीएमके को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में पहुंच सकती थी। लेकिन तमिलनाडु में पार्टी का वस्तुतः कोई आधार न होने के कारण भाजपा के पास वह क्षमता ही नहीं है। राज्य की अन्य पार्टियाँ भाजपा के साथ गठबंधन की बात को एक बोझ के रूप में देखती हैं, क्योंकि इससे अल्पसंख्यक वोट उनसे छिटक सकते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि चूंकि भाजपा को एक पराजित होने वाली पार्टी के तौर पर देखा जाता है, इसलिए अधिकांश गैर-डीएमके पार्टियां ऐसी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने से बच रही हैं।

2021 में हुए चुनाव में एआईएडीएमके गठबंधन को 39.72% मत प्राप्त हुए थे, जो कि 2019 में हासिल 19.39% मत प्रतिशत की तुलना में उल्लेखनीय सुधार था, जो कि 2014 में हुए चुनाव में हासिल 44.92% की तुलना में भारी गिरावट कही जा सकती है, जिसमें पार्टी को 39 में से 37 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल हुई थी। 2014 के चुनाव में बीजेपी राज्य में अपने चरम पर पहुंच गई, जब उसे 18% वोट प्रतिशत हासिल हुए थे। आगामी लोकसभा चुनावों में इन दोनों पार्टियों के मत प्रतिशत में कमी होने की उम्मीद है, लेकिन भाजपा की तुलना में  एआईएडीएमके के आगे रहने की उम्मीद है।

भाजपा का गठबंधन

तमिलनाडु में भाजपा आज डीएमके और एआईएडीएमके के बाद तीसरे प्रमुख दल पीएमके के साथ गठबंधन बना पाने में सफल रही है। भाजपा की ओर से पीएमके को 10 लोकसभा सीटें दी गई हैं, लेकिन डीएमडीके (देसिया मुरपोक्कू द्रविड़ कड़गम) जैसी पार्टी, जिसे लोकप्रिय अभिनेता विजयकांत और अब उनके निधन के बाद उनकी जीवनसंगिनी प्रेमलता द्वारा नेतृत्व प्रदान किया जा रहा है, को लुभाने में विफल रही है। प्रेमलता ने चतुराई से काम लेते हुए अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन बनाने के विकल्प को चुना है, जिसने डीएमडीके के लिए पांच सीटें छोड़ी हैं।

आज के दिन डीएमडीके अपने अतीत की धुंधली छाया बनकर रह गई है। डीएमडीके का वोट-शेयर 2006 और 2011 के विधानसभा चुनावों में करीब 8% के आसपास हुआ करता था, वह 2019 के लोकसभा चुनावों में घटकर 0.15% और 2021 के विधानसभा चुनावों में 0.43% रह गया था। हालांकि, पार्टी अपने नेता विजयकांत के निधन के बाद लोगों की सहानुभूति से उपजे नए उभार का फायदा उठाने की फिराक में है और अपने गठबंधन सहयोगी एआईएडीएमके के वोट बैंक से लाभ उठाने की उसकी बेताबी ने एआईएडीएमके को एक गठबंधन नेता की छवि प्रदान करने में भूमिका अदा की है।

एआईएडीएमके का गठबंधन

अन्नाद्रमुक लोकसभा की कुल 39 सीटों में से 32 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। उसने अपने सहयोगियों के लिए 7 सीटें छोड़ी हैं – पांच डीएमडीके (चेन्नई सेंट्रल, तिरुवल्लुर (एससी) जो कि मुख्य रूप से श्रमिक वर्ग बहुल निर्वाचन क्षेत्र है, कुड्डालोर, तंजावुर और विरुधुनगर। इसके अलावा एक-एक सीट पुथिया थमिझागम (थेनकासी) नामक दलितों की पार्टी को दक्षिणी तमिलनाडु में और एसडीपीआई (डिंडुगल) जो कि प्रमुखतया अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय की पार्टी है, के लिए एक सीट छोड़ी है। चूंकि एआईएडीएमके अब भाजपा से अलग हो चुकी है, इसलिए एसडीपीआई को एआईएडीएमके से हाथ मिलाने में कोई परेशानी नहीं हुई।

डीएमके का गठबंधन

डीएमके खुद 21 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जबकि कांग्रेस के खाते में 9 सीटें (थिरुवल्लूर, कृष्णागिरि, करूर, कुड्डालोर, मायलादुथुराई, शिवगंगई, विरुधुनगर, तिरुनेलवेली और कन्याकुमारी की लोकसभा सीटें आई हैं।

सीपीआई और सीपीआई (एम) के हिस्से में दो-दो सीटें आई हैं। सीपीआई के हिस्से में नागपट्टिनम का पारंपरिक वाम गढ़ और पावरलूम श्रमिकों के शहर तिरुपुर की सीटें आई हैं, जबकि सीपीआई (एम) के लिए डिंडुगल और मदुरै की सीटें छोड़ी गई हैं।

इसके अलावा एक सीट (रामनाथपुरम) आईयूएमएल के खाते में गई है। वाइको की एमडीएमके को एकमात्र तिरुचि सीट आवंटित की गई है।

बड़े पावरलूम श्रमिकों की मौजूदगी वाले लोकसभा की सीट नामक्कल को कोंगु देसम मक्कल काची के लिए छोड़ दिया गया है, जसे मुख्य रूप से गौंडार समुदाय की पार्टी माना जाता है, जो एक ताकतवर कृषि समुदाय है जो अब उद्योग में भी तरक्की कर रहा है।

विदुदलाई चिरुथिगल काची (वीसीके) जिसकी उपस्थिति मुख्य रूप से तमिलनाडु के उत्तरी जिलों में बनी हुई है, के हिस्से में चिदंबरम और विल्लुपुरम लोकसभा की दो सीटें आई हैं। इसे दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के तौर पर जाना जाता है, और पार्टी के नेता तिरुमावलवन और पार्टी के प्रमुख विचारक रविकुमार इन दोनों सीटों से चुनाव लड़ रहे हैं।

भाजपा गठबंधन

पीएमके के साथ गठबंधन को भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण सफलता माना जा सकता है। पीएमके मुख्य रूप से वन्नियार कृषक वर्ग की पार्टी है। अगर पीएमके ने जनाधार रखने वाली अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन किया होता तो कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में वह कड़ी टक्कर देने की स्थिति में हो सकती थी। विभिन्न रिपोर्टों से यह तथ्य मिल रहा है कि शुरू-शुरू में पीएमके के भीतर भाजपा के साथ गठबंधन को लेकर पिता डॉ. रामदास और बेटे के बीच में मतभेद था। पिता डॉ. रामदास अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन के इच्छुक थे, जिसने अतीत में वन्नियार समुदाय के लिए 10.5% विशेष कंपार्टमेंटल आरक्षण की पेशकश की थी, लेकिन बेटे डॉ. अंबुमणि रामदास ने अंततः भाजपा के साथ गठबंधन के विकल्प को चुना। संभवतः उन्हें यह उम्मीद है कि अगर पीएमके को एक भी सीट जीतने में कामयाबी ने मिले, उसके बावजूद वे एक बार फिर से केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान पाने में सफल हो सकें। लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि 2019 की तरह इस बार भी पीएमके को कोई सीट नहीं मिलने जा रही है।

हाई-प्रोफाइल मुकाबले 

लड़ाई के स्तर को बढ़ाने के लिए, भाजपा ने अपने कई प्रमुख नेताओं को महत्वपूर्ण निर्वाचन क्षेत्रों में उतारा है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और गुस्सेल नेता, अन्नामलाई को कोयंबटूर से चुनावी मैदान में उतारा गया है। कोयंबटूर उन दो लोकसभा क्षेत्रों में से एक है, जहां भाजपा को कुछ हद तक जन समर्थन हासिल है, और जहां से उनकी उम्मीदवार वनती श्रीनिवासन ने 2021 के विधानसभा चुनावों के दौरान लोकप्रिय अभिनेता कमल हसन को शिकस्त दी थी।

संयोगवश अन्नामलाई गौंडर समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन डीएमके नेता सेंथिल बालाजी, जिन्हें पीएमएलए एक्ट में आरोपी बनाकर जेल में रखा गया है, भी पास के करूर से आने के साथ-साथ गौंडर समुदाय से आते हैं, और कोयंबटूर में डीएमके प्रभारी थे। अन्नाद्रमुक की बात करें तो 2021 विधानसभा चुनावों में डीएमके के पक्ष में लहर के बावजूद कोयंबटूर से पार्टी छह विधानसभा सीटें जीतने में सफल रही थी, और इसके जिला प्रभारी वेलुमणि भी गौंडर हैं। यही नहीं, एडप्पादी खुद गौंडर समुदाय से आते हैं, ऐसे में अन्नामलाई के लिए चुनाव जीत पाना आसान नहीं होगा।

इसके अलावा, वयोवृद्ध राधाकृष्णन भी स्थानीय रूप से प्रभावशाली नादर समुदाय से आते हैं, एक अन्य समुदाय जिसे भाजपा बड़ी मेहनत के साथ विकसित करने में लगी हुई है, को नागरकोइल से चुनावी अखाड़े में उतारा गया है। 2014 में राधाकृष्णन यहां से विजयी हुए थे, लेकिन 2019 में हार के बाद 2021 के लोकसभा उपचुनाव में भी उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था।

प्रभावशाली नादर परिवार से एक अन्य भाजपा नेता तमिलिसाई सौंदरराजन हैं, जिन्हें तेलंगाना के राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलाने के बाद चुनावी मैदान में उतारा गया है। भाजपा उन्हें चुनावी मैदान में उतारकर चेन्नई दक्षिण के मिडिल क्लास बहुल आबादी का जायजा ले रही है। लेकिन यहां पर मुकाबले में मौजूदा सांसद तमीज़हाची थंगापांडियन खड़े हैं, जिनका ताल्लुक एक प्रमुख थेवर राजनीतिक परिवार से है, जो एक कवि होने के साथ-साथ आईआईटी-मद्रास जैसे शैक्षणिक संस्थानों में जातिगत भेदभाव के खिलाफ अभियान चलाने वाली हस्ती के रूप में भी मशहूर रहे हैं।

हालांकि भाजपा के लिए मतदाताओं के बीच में मजबूत जनाधार के अभाव के चलते चेन्नई और कोयंबटूर में जीत हासिल कर पाना बेहद कठिन है, लेकिन इन हाई-प्रोफाइल मुकाबलों की वजह से भाजपा खुद को सुर्खियों में बनाये रखने अवश्य कामयाब रहने वाली है।

तीन गठबंधनों के बीच त्रिकोणीय लड़ाई असल में द्विध्रुवीय है

भले ही तीन गठबंधन चुनावी मैदान में हैं, लेकिन लड़ाई मूलतः द्रमुक और अन्नाद्रमुक गठबंधन के बीच में ही होने जा रही है। डीएमके के घोषणापत्र में उसके द्वारा विधानसभा चुनाव में किये गये वायदों और योजनाओं का दोहराव है, जिन्हें वह पहले ही राज्य में लागू कर चुकी है। इस घोषणापत्र से जो बात पता चलती है वह यह है कि इंडिया गठबंधन के सहयोगियों के बीच में यथोचित समन्वय एवं चुनावी तैयारी की कमी है। इसके साथ ही कुछ नई मांगों को लेकर स्पष्टता की कमी है, जिसे वे केंद्र में हर हाल में उठाने जा रहे हैं।

उदाहरण के लिए गिग वर्कर्स एवं अनौपचारिक श्रमिकों के लिए कांग्रेस की ओर से जारी किए गए घोषणापत्र में स्थान दिया गया है, वह इंडिया गठबंधन के घटक दल डीएमके के घोषणापत्र में प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है। इसके अलावा, न ही भाजपा और न ही कांग्रेस ही एक प्रमुख अखिल भारतीय दल के रूप में एक भी बड़ा लोकलुभावन वादा ही मतदाताओं के सामने पेश कर पाई हैं, जो राज्यों में मूलनिवासीयों एवं क्षेत्रवादी भावनाओं को अपनी ओर आकर्षित कर पाए। इसकी वजह सिर्फ उनकी कल्पनाशीलता की कमी में नहीं है, बल्कि एकल अहंकार है जो मानसिक अवरोधक के तौर पर कार्य करता है।

तमिलनाडु में लोकसभा चुनाव के परिदृश्य के लिहाज से देखें तो भाजपा के लिए आक्रामक चुनावी प्रचार पार्टी के ज्यादा से ज्यादा चर्चा में रखने के लिहाज से सफल है, लेकिन इस सबके बावजूद उसे इतने वोट नहीं मिलने जा रहे वह एक भी सीट जीत पाए।

(बी. सिवरामन स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। [email protected] पर उनसे संपर्क किया जा सकता है।)

 
 
 

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