सत्ता और संपत्ति के भार से डगमग पत्रकारिता

हिन्दुस्तानियों के हित हेतु तथा उन्हें परावलंबन से मुक्ति दिलाकर स्वतंत्र दृष्टि प्रदान करने के निमित्त 30 मई 1826 को कलकत्ते के कोलू टोला नामक मुहल्ले के 37 नंबर आमड़ातल्ला गली के पते से युगल किशोर शुक्ल ने हिन्दी का पहला साप्ताहिक पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित किया। प्रत्येक मंगलवार को प्रकाशित होने वाला यह पत्र सरकारी सहायता न मिलने के कारण और पर्याप्त ग्राहकों के अभाव में 4 दिसंबर 1827 को सदा के लिए अस्त हो गया। चार दिसंबर के अंतिम अंक में संपादक ने लिखा- ‘आज दिवस लौ उग चुक्यो मार्तण्ड उदन्त, अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त’। इसी पत्र के उदय के उपलक्ष्य में हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है।

पत्र के बारे में संपादकाचार्य पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी अपनी पुस्तक ‘हिन्दी समाचार पत्रों का इतिहास’ में लिखते हैं कि “सरकार ‘जामे जहानुमा’ नामक फारसी पत्र और ‘समाचार दर्पण’ नाम के बंगला पत्र को आर्थिक सहायता देती थी। इसी के भरोसे युगल किशोरजी ने भी ‘उदन्त मार्तण्ड’ निकाल दिया था। परन्तु वह न मिली और किसी धनी-मानी के सहायता मिलने की आशा न रही, तब यह मार्तण्ड अस्ताचल को चला गया।”

पत्र के अवसान पर अपनी टिप्पणी करते हुए हिन्दी पत्रकारिता का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले कृष्ण बिहारी मिश्र लिखते हैं, “कहना न होगा कि यह पंक्तियां पं. युगल किशोर शुक्ल जी ने बड़ी व्यथा के साथ लिखी होंगी। यह भी कुछ विचित्र संयोग है कि हिन्दी पत्रकारिता के उदय के साथ ही आर्थिक संकट का अशुभ ग्रह उसके साथ लग गया जिसकी कुदृष्टि हिन्दी पत्रकारिता पर सदैव लगी रही।”

लेकिन आज हिन्दी पत्रकारिता के साथ आर्थिक संकट की कुदृष्टि नहीं है बल्कि सत्ता और संपन्नता की कुदृष्टि लगी हुई है। इसी के बारे में सन 1925 में वृन्दावन साहित्य सम्मेलन के अंतर्गत प्रथम संपादक सम्मेलन में संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने जो बात कही थी वह आज ज्यादा सटीक बैठती है। उन्होंने कहा कि “आने वाले समय में अखबार रंगीन होंगे, उनके पास पन्ने ज्यादा होंगे। उनके संपादकों के पास गाड़ियां होंगी। मोटी तनख्वाहें होंगी। लेकिन वह स्वतंत्रता नहीं होगी जो आज उन्हें हासिल है।”

पत्रकारिता का दायित्व होता है जनता और सरकार को प्रामाणिक समाचार देना और संतुलित विश्लेषण प्रस्तुत करना। इसके लिए उसके पास इतिहास बोध और एक मूल्यदृष्टि होनी चाहिए। जाहिर सी बात है वह दृष्टि अध्ययन, साधना और संघर्ष से ही आती है। वह न तो मोटी तन्ख्वाह से और न ही सत्ता से निकटता से आती है। पत्रकार प्रभाष जोशी कहते थे कि “पत्रकार को ऋषि की तरह से रहना चाहिए। उसे सत्ता से दूर और जनता के मध्य अपने साधनागृह में रहना चाहिए। जैसे ऋषियों की तपोस्थली होती थी। ताकि वह किसी व्यवधान और दबाव से दूर अपने सत्य का अनुसंधान कर सके और जब जरूरत पड़े तो सत्ता के गलियारे में जाकर न सिर्फ उसका हालचाल जाने बल्कि जनता की बात हिम्मत के साथ शासकों के समक्ष कह सके।”

प्रभाष जोशी ने 1983 में दिल्ली से निकले ‘जनसत्ता’ अखबार के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को नया मुहावरा दिया। वे जिस समूह में काम करते थे वह कोई ज्यादा वेतन नहीं देता था। वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए पत्रकारों को लंबा संघर्ष भी करना पड़ता था। लेकिन पत्रकारिता के मूल्यों के साथ उन्होंने न्यूनतम समझौता किया। वे सत्ता से लगातार सवाल पूछते रहे। एक दौर में अयोध्या आंदोलन के दौरान वे उस विवाद का कोई समाधान निकालने के लिए समझौता वार्ताओं में लगे थे। लेकिन जब 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई तो उन्होंने भारतीय समाज और सत्ता पर सांप्रदायिकता को हावी होते देखा। उन्होंने उसके बाद आजीवन उस प्रवृत्ति का प्रतिकार किया। हिन्दू होने का ‘धर्म’ जैसी उनकी महत्त्वपूर्ण पुस्तक इसी सिलसिले में लिखे गए लेखों का संकलन है।

प्रभाष जोशी ही नहीं उस समय के तमाम पत्रकारों और पत्र समूहों ने उदारीकऱण और वैश्वीकरण का तीखा विरोध किया। इनमें मालिकों को लग रहा था कि उनका व्यवसाय बंद हो जाएगा। जबकि पत्रकारों को लग रहा था कि उनकी स्वतंत्रता छिन जाएगी। वह विरोध बिना किसी तार्किक परिणति पर पहुंचे खत्म हो गया और पत्रकारिता को एक ओर पूंजी ने अधिग्रहित कर लिया तो दूसरी ओर उससे निकली सत्ता ने।

तभी राबिन जैफ्री ने ‘भारत की समाचार पत्र क्रांति’ जैसी पुस्तक लिखकर रंगीन होते भारतीय पत्रों और छपाई की प्रौद्योगिकी में आने वाले परिवर्तनों का सुहाना वर्णन किया। इसी सिलसिले में सेवंती नाइनन ने भी ‘हेडलाइन्स फ्राम हार्ट लैंड’ से लगातार फैलते हिन्दी पत्रों के संसार का रंग-बिरंगा चित्र खींचा है। लेकिन इन दोनों लेखकों ने पत्रकारों की घटती आजादी और उनके संकीर्ण होते मानस का बहुत कम जिक्र किया।

पहले लगता था कि पूंजीवाद और सांप्रदायिकता दो अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं। कहीं-कहीं पूंजीवाद सांप्रदायिकता से लोहा लेता हुआ भी दिखता था। लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में दोनों के बीच चोली-दामन का साथ हो गया। अब भारत एक नए रास्ते पर चल निकला है और उसकी हिन्दी पत्रकारिता भी पराड़कर जी या प्रभाष जी द्वारा सुझाए गए दायित्वों का निर्वाह करने को तैयार नहीं है।

पराड़कर जी ने कहा था कि ‘पत्रकारिता का काम है समाज का चित्र खींचना और उसे सदुपदेश देना। लेकिन पत्रकारिता जो कि अब मीडिया हो गया है इन दोनों कामों से विमुख हो गया है। उसने उसकी ठकुर सोहाती करने की ठान ली है जो उसके विज्ञापन देता है फैक्ट्री के लिए जमीन देता है और कानून से संरक्षण देता है।”

नए संसद भवन के उद्घाटन के मौके पर पत्रकारिता (मीडिया) की चीख चिल्लाहटों के बीच वे सारे स्वर दब गए जो आजादी के लंबे संघर्ष और लोकतंत्र के मूल्यों से निकल रहे थे। कोई पराड़कर जी के योगदान को भूल कर कह रहा था कि ‘संसद’ शब्द तो सावरकर ने दिया था तो कोई सेंगोल नामक राजदंड पर मुग्ध था। शब्दों के उपयोग की सीमाएं टूट गई थीं और पत्रकारिता इक्कीसवीं सदी के पूंजीवाद के साथ सामंती और राजशाही के मूल्यों का गजब का गठबंधन कर रही थी। वह उन सारे मूल्यों और शब्दों को तिलांजलि दे रही थी जो आजादी के संघर्ष में पत्रकारों, जिनमें महात्मा गांधी, तिलक, मौलाना आजाद, डा आंबेडकर और पंडित नेहरू भी शामिल थे, ने बड़ी मेहनत से सृजित किया था।

हिन्दी पत्रकारिता के योगदान की चर्चा उसकी प्रखरता और समन्वय भाव के बिना पूरी नहीं होगी। हिन्दी के तमाम बड़े संपादक इसके प्रतीक हैं। तिलक की परंपरा से आए पराड़कर ने गांधी के प्रति सम्मान व्यक्त किया, तो क्रांतिकारियों की परंपरा से आए माखनलाल चतुर्वेदी जी ने गांधी का नेतृत्व स्वीकार किया। इसी तरह भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद को प्रश्रय देने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी ने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए अपने को न्योछावर कर दिया तो उनकी मृत्यु पर महात्मा गांधी ने वैसी ही मृत्यु की आकांक्षा व्यक्त की।

पराड़कर जी ने गोडसे की फांसी के बाद जो लेख लिखा है वह आज के हिन्दी पत्रकारों को बार-बार पढ़ना चाहिए। उन्होंने लिखा कि “गोडसे ने हत्या के अलावा जो दूसरा अपराध किया वो यह कि विश्व के सबसे निन्द्य और अमानुषिक कार्य को सिद्धांतवाद का जामा पहनाया। एक हत्यारा आदर्श का ढोंग रचना चाहता था।” फिर उन्होंने लिखा, “मृत्यु के समय गोडसे के हाथ में गीता थी। महात्मा गांधी भी गीता के अनन्य भक्त थे। गांधी और गोडसे की गीता में पाठान्तर था। क्या भारतीय इस पाठान्तर को समझेंगे? गोडसे नहीं गांधी की गीता भारतीय राजनीति का मार्गदर्शन करेगी। यह ध्रुवसत्य है।”

तीन साल बाद हिन्दी पत्रकारिता के दो सौ वर्ष पूरे होंगे। तब इस दो सदी की यात्रा का मूल्यांकन होगा। उस समय अगर समाज ने अपने विवेक का संतुलन कायम रखा तो यह सवाल उठेंगे कि किसने सत्ता से कितने संबंध बनाए और कितना धन कमाया और किसने कितने मूल्य और सिद्धांत बचाए और किसने लोकतंत्र को समृद्ध किया।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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