Saturday, April 27, 2024

यूपी निकाय चुनाव में भाजपा की ‘प्रभावशाली जीत’ का नैरेटिव फर्जी

कर्नाटक चुनाव ने ब्रांड मोदी और 2024 में भाजपा की सम्भावनाओं को जो निर्णायक चोट पहुंचाई है उसकी काट के लिए UP निकाय चुनाव को लेकर सत्ता प्रतिष्ठान के बुद्धिजीवी फर्जी नैरेटिव गढ़ने में लगे हैं।

एक स्वनामधन्य समाजशास्त्री ने सम्भवतः योगी से जुमला उधार लेते हुए एक राष्ट्रीय दैनिक में “ट्रिपल इंजन सरकार” शीर्षक लेख में लिखा है, “सभी शहरी निकायों में नगर पालिका, नगर पंचायत से लेकर मेयर के पदों तक BJP की प्रभावशाली जीत हुई है।”

यह सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में मनगढ़न्त नैरेटिव का बदतरीन उदाहरण है। आइए देखते हैं तथ्य क्या हैं।

BJP ने नगर निगम की 17 सीटें जरूर जीत लीं। लेकिन यह UP निकाय चुनावों का आधा सच है। उतना ही अहम सच यह है कि प्रदेश के 16 जिलों में भाजपा एक भी नगरपालिका नहीं जीत सकी है। सारे जिला मुख्यालयों की नगरपालिकाओं को जीतने का नेतृत्व का महत्वाकांक्षी लक्ष्य धरा रह गया। नगर पंचायत के कुल 544 अध्यक्षों में भाजपा महज 191 तथा 7177 नगर पंचायत-सदस्यों में 1403 (20% से भी कम) पर ही जीत पाई। कुल 199 नगर पालिका अध्यक्षों में वह 89 तथा नगर पालिका के 5327 सदस्यों में 1360 स्थानों (25%) पर ही जीती है।

कल्याण सिंह के जमाने से भाजपा का अभेद्य दुर्ग रही अलीगढ़ की अतरौली समेत स्मृति ईरानी, संजीव बालियान, अजय मिश्र टेनी सूर्य प्रताप शाही, सुरेश खन्ना, जितिन प्रसाद, जेपीएस राठौर समेत दर्जनों मंत्री अपने गढ़ नहीं बचा सके।

आगरा में कुल 5, आजमगढ़ में 3, इटावा में 3, कानपुर नगर में 2, फर्रुखाबाद में 2, बस्ती में 1, बाराबंकी में 1, भदोही में 1, मऊ में 1, मुरादाबाद में 2, महाराजगंज में 2, रायबरेली में 1, श्रावस्ती में 1, संत कबीर नगर में 1, अयोध्या में 1 नगर पालिका है, लेकिन इनमें से किसी पर बीजेपी का खाता भी नहीं खुल सका। गाजियाबाद की 4, बागपत की 6, मुजफ्फरनगर की 8, रामपुर की 6 नगर पंचायत अध्यक्ष की सीटों में बीजेपी एक भी सीट नहीं जीत पाई।

दरअसल, महानगरों से छोटे शहरों/नगरों/कस्बों की ओर उतरते ही तस्वीर बदलने लगती है और भाजपा की जीत का अनुपात घटता जाता है। नगर पंचायत सदस्यों में यह 20% से भी नीचे पहुंच जाता है।

अपने अतिशयोक्ति पूर्ण दावे के आधार पर समाजशास्त्री महोदय विश्लेषण करते हैं, “नतीजों से स्पष्ट है कि योगी सरकार की गरीबों पर केंद्रित समाज कल्याण की योजनाओं और जमीन पर उनके क्रियान्वयन का भाजपा को राजनीतिक लाभ मिलना जारी है। योगी ने जो छवि बनाई है उसने “स्थानीयता” से ऊपर उठकर पड़ोस/जाति/समुदाय के पार लोगों को BJP की ओर आकर्षित किया है।”

अगर उपरोक्त दावा सच है तो भाजपा 199 में 109 नगर पालिकाएं और 544 में 353 नगर पंचायत अध्यक्ष पदों पर हार क्यों गयी? नगर पालिका के 5327 सदस्यों में 1360 स्थानों तथा नगर पंचायत के 7177 सदस्यों में 1403 पर ही क्यों जीत पाई?

उसके तमाम निर्वाचित मेयरों को मिले मतों का प्रतिशत दयनीय रूप से इतना कम क्यों है? गौर करिए,

प्रयागराज के मेयर 15 प्रतिशत मत पाकर चुने गए हैं। इसी तरह झांसी में 27 प्रतिशत, गोरखपुर में 17.22 प्रतिशत, फिरोजाबाद में 17.99 प्रतिशत, मुरादाबाद में 18.02 प्रतिशत, वाराणसी में 18.15 प्रतिशत, आगरा में 18.25 प्रतिशत, मेरठ में 18.76 प्रतिशत, बरेली में 19.74 प्रतिशत, कानपुर में 19.86 प्रतिशत, वृंदावन-मथुरा में 20.18 प्रतिशत, अलीगढ़ में 21.51 प्रतिशत, अयोध्या में 23.32 प्रतिशत, शाहजहांपुर में 24.66 प्रतिशत, सहारनपुर में 25.01 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने महापौर का चुनाव कर दिया। (जनचौक में जितेंद्र उपाध्याय की रिपोर्ट)

विपक्ष के बिखराव और जनता की उदासीनता का फायदा उठाकर इतने कम मत पाकर भी First-past-the-post System में भाजपा जीत भले गयी, पर ये तथ्य सरकार की योजनाओं, उनके क्रियान्वयन आदि को लेकर भाजपा के प्रति जनता के आकर्षण का नहीं, जैसा समाजशास्त्री महोदय दावा कर रहे हैं, बल्कि नाराजगी का संकेत है।

अगर विपक्ष थोड़ा एकजुट होता तो ये नतीजे और बदरंग दिखते, तब उनकी इस theory का क्या होता?

लेख का सबसे शातिर अंश है, “योगी जी के माफिया विरोधी अभियान ने उनकी लोकप्रियता को बढ़ाया है। हमने अक्सर देखा है, अपराधियों द्वारा जमीनों पर कब्जा तेजी से शहरीकरण वाले इलाकों में व्यापक जनसमुदाय के लिए चिंता का बड़ा सबब होता है। हालांकि अतीक की हत्या से BJP के खिलाफ मुसलमानों का एक हिस्सा AIMIM, सपा, बसपा के पक्ष में गया है।”

मासूम statement of fact लगते इस वाक्य की आड़ में ऐसी कार्रवाइयों के पीछे के भयानक साम्प्रदायिक मन्तव्य को छिपाने और एक तरह उसे justify करने का शातिर खेल यहां साफ देखा जा सकता है। मुस्लिम विरोधी भावना को उभारकर हासिल चुनावी लाभ को लोकप्रियता बताया जा रहा है।

समुदाय विशेष के माफिया के ख़िलाफ़ सेलेक्टिव कार्रवाई- वह भी कानून के राज को ताक पर रख कर- अल्पसंख्यकों को डराना और बहुसंख्यकवाद को तुष्ट करना जो योगी के कथित माफिया विरोधी अभियान का मूल उद्देश्य है और उनके प्रति एक तबके के कथित आकर्षण का मूल कारण है, उसे चालाकी से छिपाया जा रहा है और पूरे मामले को भू-माफिया से लोगों की बड़ी चिंता से जोड़ा जा रहा है। क्या भू-माफिया केवल मुसलमान हैं? उन्हीं के विरुद्ध selective action, वह भी rule of law की बिना परवाह किये, इसका approvingly उल्लेख करना क्या innocent, objective समाजशास्त्रीय विश्लेषण है?

अतीक की हत्या से BJP के खिलाफ मुसलमानों के एक हिस्से पर AIMIM, सपा, बसपा के पक्ष में जाने” की तोहमत मढ़ना मुसलमानों के demonisation और विपक्ष के ख़िलाफ़ हिन्दू सेंटीमेंट को उभारने की खतरनाक फासीवादी राजनीति का ही अभिन्न अंग है।

अगर यह लेख किसी घोषित भाजपा प्रवक्ता/बुद्धिजीवी का होता तो लोग इसे पार्टी प्रोपेगंडा समझ कर खारिज कर देते, पर विडंबना है कि यह एक “वस्तुनिष्ठ, समाजशास्त्रीय” विश्लेषक का है।

दरअसल इस सारी कवायद का उद्देश्य लेख के इस निष्कर्ष में प्रकट होता है, “भाजपा नेतृत्व, इन नतीजों के 2024 के लिए जो मायने हैं, उससे खुश होगा। भाजपा ने सभी तबकों व क्षेत्रों में असर कायम कर लिया है। निकाय चुनाव के नतीजे पार्टियों की जनता में लोकप्रियता के संकेत हों, ऐसा हमेशा तो नहीं होता, लेकिन कभी-कभी यह सच होता है कि वे विधानसभा, लोकसभा की दिशा का संकेत करते हैं, इस बार का UP निकाय चुनाव ऐसा ही था।”

अर्थात, निकाय चुनावों में भाजपा की “प्रभावशाली जीत” 2024 के चुनाव में भाजपा की जीत की दिशा सूचक है।

ऐसे आधारहीन निष्कर्ष कर्नाटक के नुकसान की भरपाई हेतु संघी प्रचारतंत्र के राष्ट्रीय प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं। सच्चाई यही है कि अर्ध-राजनीतिक चरित्र के UP के हालिया निकाय चुनाव, जिनमें राज्य मशीनरी की भूमिका भी सर्वविदित है, आम चुनावों के लिए कोई बैरोमीटर नहीं हैं, जनता की आंख में धूल झोंकने के लिए भले इसे लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल आदि बताया जाय।

आज सच्चाई यही है कि भाजपा को भी निकाय चुनाव के मिले-जुले नतीजों से शायद ही कोई बड़ी आश्वस्ति हुई हो। ऐसी खबरें आ रही हैं कि स्वयं भाजपा के अंदर इन नतीजों के तमाम पहलुओं पर चिंताकुल माहौल है और ताबड़तोड़ चिंतन बैठकें हो रही हैं।

निकाय चुनावों का अगर कोई सन्देश है तो यही है कि, 2024 का चुनाव पूरे देश के लिए ही नहीं, उत्तर प्रदेश के लिए भी खुला हुआ है।

बहरहाल, इन चुनावों में उत्तर प्रदेश में विपक्ष की कमजोरियां भी बिल्कुल मुखर होकर सामने आ गयी हैं। आज लाख टके का सवाल यही है कि बदलते राष्ट्रीय माहौल का फायदा उठाते हुए क्या विपक्ष उत्तर प्रदेश में अपनी आत्मघाती कमजोरियों और चरम अवसरवाद से उबरते हुए योगी-राज के खिलाफ एक एकताबद्ध, दृढ़ प्रतिज्ञ, determined counter-offensive खड़ा कर सकता है? अगर ऐसा हुआ तो जिस उत्तर प्रदेश पर 2024 में मोदी की पुनर्वापसी की सारी उम्मीदें टिकी हुई हैं, वहां भी बाजी पलट सकती है।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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