8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे पहली नोटबंदी की गई थी, तब प्रधानमंत्री ने जनता से रूबरू होते हुए घोषणा की थी कि रात बारह बजे के बाद एक हजार और पांच सौ रुपये के नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे। यह नोटबंदी किसकी सलाह पर, किस उद्देश्य से और क्यों की गई थी, यह रहस्य आज भी बना हुआ है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर हुई, उसकी सुनवाई भी की गई, लेकिन आज तक उक्त नोटबंदी के उद्देश्य जो उस समय सरकार ने घोषित किए थे, उन्हें पा लिया गया या नहीं, यह आज तक सरकार देश को नहीं बता पाई।
लेकिन नोटों को बदलवाने के लिए बैंकों के सामने लाइनों में खड़े-खड़े लगभग 150 लोग मर गए। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की कमर टूट गई। असंगठित क्षेत्र जो, अधिकतर नकदी लेनदेन पर चलता है, वह लगभग तबाह हो गया। खुदरा व्यापार, जो समाज के निचले स्तर पर जनता के जीवन यापन का मुख्य आधार था, वह भी उजड़ गया। इन खुदरा और परचून व्यापार के तबाह होने की दशा में, उनकी जगह बड़े कॉर्पोरेट के बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर खुल गए, जिससे इस असंगठित क्षेत्र में भी, कॉरपोरेट की पैठ शुरू हो गई। इसका सीधा प्रभाव निम्न मध्यम वर्ग के असंगठित व्यापार क्षेत्र पर पड़ा।
2016 की नोटबंदी के सरकार ने निम्न उद्देश्य गिनाए थे,
० काले धन का खात्मा,
० नकली नोट के चलन को खत्म करना,
० आतंकी फंडिंग को रोकना,
० भ्रष्टाचार पर रोक लगाना।
लेकिन आज तक सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है कि वह बता सके कि,
० कितनी धनराशि का कलाधन सामने आ पाया है,
० काले धन का एकत्रीकरण किस क्षेत्र में अधिक है,
० कितने प्रतिशत नकली नोट चलन में पकड़े गए,
० आतंकी फंडिंग रुकने के कारण, क्या आतंकी घटनाओं पर असर पड़ा या नहीं।
इन सारे बिंदुओं पर जब सरकार कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे पाई, तब एक नया शिगूफा छोड़ा गया कि यह कदम डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए लाया गया है और तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली जिनके बारे में तब अखबारों में भी यह छपा था कि नोटबंदी के बारे में भी उन्हें अंतिम समय ही पता चला था, ने कहा कि कैशलेस आर्थिकी, यानी नकदी विहीन अर्थव्यवस्था की ओर देश को ले जाने हेतु यह कदम उठाया गया था।
जब कैशलेस का जुमला फेल होने लगा तो इसे लेसकैश कहा जाने लगा। लेकिन 2016 की नोटबंदी, सरकार का एक सनक भरा निर्णय था, जिसका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला और सरकार ने भी फिर इसका अपनी उपलब्धियों के रूप में कभी, कहीं उल्लेख भी नहीं किया। आज भी सरकार और सत्तारूढ़ दल इसे उपलब्धि बताने से कतराते हैं।
2016 की नोटबंदी पर पूर्व प्रधानमंत्री और जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह ने इसे एक संगठित लूट कहा था। मोदी सरकार का यह सबसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय था जिसके कारण देश की जीडीपी विकास दर 2% तत्काल गिर गई और आज सात साल बाद भी देश की आर्थिकी नोटबंदी पूर्व की स्थिति में नहीं आ पाई है। इसका एक कारण, कोरोना महामारी भी लोग कहते हैं, लेकिन महामारी के आगमन के पहले ही देश की जीडीपी 2% तक गिर चुकी थी।
नोटबंदी-1 के समय जब हजार और पांच सौ के नोट रद्द हो गए तो सरकार ने 2000 रुपये के नए नोट जारी किए। जल्दीबाजी में जारी किए गए ये नोट आकार प्रकार में ऐसे नहीं थे, जो तब प्रचलित एटीएम मशीनों की करेंसी ट्रे में फिट हो सकें। फिर इन नोटों को एटीएम मशीनों के लायक बनाने के लिए, देशभर के सभी बैंकों की एटीएम मशीनों को कैलिब्रेट किया गया, क्योंकि नोट तो पहले ही बिना इस बात की पड़ताल किए छापे जा चुके थे कि यह नोट, एटीएम की करेंसी ट्रे में आ भी पाएंगे कि नहीं। नोट छापने के आंकड़े का अक्सर उल्लेख किया जाता है, लेकिन एटीएम के कैलिब्रेट किए जाने पर देशभर के बैंकों ने कितना धन व्यय किया था, इसका आंकड़ा मुझे कहीं नहीं मिलता है।
अब वही दो हजार के नोट फिर आरबीआई (रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) के आदेश से, धारकों से वापस लिए जा रहे हैं। अब यहां फिर भ्रम की एक स्थिति आरबीआई के आदेश से उत्पन्न हो गई है, क्योंकि एक तरफ तो आरबीआई का कहना है कि 2000 रुपये का नोट लीगल टेंडर बना रहेगा और यह बताते हुए इसमें किसी प्रकार की समय सीमा का उल्लेख नहीं है। हालांकि यह भी कहा गया है कि इन नोटों को बदलने की सुविधा 30 सितंबर तक ही खुली है। यानी 30 सितंबर के बाद इन नोटों की कानूनी स्थिति क्या रहेगी। बैंक तो 2000 रुपये के नोट लेंगे नहीं, और जब बैंक यह नोट नहीं लेंगे तो, कोई भी व्यक्ति यह नोट क्यों लेगा?
क्या ऐसी स्थिति में 1 अक्तूबर के बाद 2000 रुपये के नोट लीगल टेंडर के रूप में रहते हुए भी लीगल टेंडर नहीं रह जायेंगे? ऐसी विषम स्थिति का सामना आम जनता को करना पड़ेगा क्योंकि, कोई भी इसका उपयोग सामान और सेवाएं खरीदने के लिए नहीं कर सकता है? देश की मुद्रा लेने के लिए, उसे वैध लीगल टेंडर रहते हुए भी, लोग इसे मानने से इंकार कर सकते हैं। देश की मुद्रा, देश में ही न चले, क्या यह विडंबना नहीं है? अगर इनमें से कुछ भी सच नहीं है, तो समय सीमा तय करने का क्या मतलब है?
अब 2000 रुपये के करेंसी नोट का इतिहास भी, संक्षेप में पढ़ लें..
1- 2000 रुपये के नोट की शुरूआत अपने आप में एक विचार के रूप में आत्म-विरोधाभासी था। जैसा कि ऊपर मैं लिख चुका हूं कि, प्रधानमंत्री ने 08/11/2016 को विमुद्रीकरण/नोटबंदी (500 रुपये और 1000 रुपये के उच्च मूल्य के नोटों को अमान्य करना) की घोषणा करके देश को चौंका दिया था। तब यह तर्क दिया गया था कि इन उच्च मूल्य के नोटों के रूप में जो काले धन और आतंकवाद के धन का बड़ा हिस्सा जमा है, वह सामने आ जाएगा और काला धन रखने वालों की कमर टूट जायेगी।
लेकिन, 2000 रुपये का नोट जारी करना, इस तर्क को स्वतः झुठला देता है। सच्चाई यह है- और यह आरबीआई के इस बारे में रिकॉर्ड में है- अधिकांश काला धन सोने या संपत्ति जैसी अन्य संपत्तियों में जमा होता है, न कि मुद्रा में। वैसे भी आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, 99% तक की मुद्रा, बैंकों में वापस आ गई थी।
2- मामला तब और उलझ गया, जब 2000 रुपये के नोटों का वितरण गड़बड़ियों से भरा हुआ किया गया। इन नोटों को पहले आरबीआई अधिनियम की धारा 24 (2) के तहत “अधिसूचित” किया गया था। लेकिन जल्द ही यह एहसास हो गया कि यह गलत सेक्शन था। यह आरबीआई अधिनियम की धारा 24(1) है, जिसने केंद्र को घोषणा में आवश्यक संशोधन के लिए बैंक नोट जारी करने का अधिकार दिया गया है। यह नोट अलग आकार के थे और इसलिए मौजूदा एटीएम मशीनों में फिट नहीं हो सकते थे; इसने सभी एटीएम को फिर से कैलिब्रेट करने के लिए मजबूर किया और “पुनर्मुद्रीकरण” में और देरी हुई, जबकि पूरा देश मुद्रा के लिए कतारों में खड़ा था और लोग मरे भी।
3- 2000 रुपये के नोटों में बहुप्रतीक्षित सुरक्षा अद्यतनों में से कोई भी मानक नहीं था। 26 नवंबर 2016 की शुरुआत में 2000 रुपये के नकली नोटों की खबरें तेजी से अखबारों में आईं थीं। कुछ लड़कों ने मुद्रा सुरक्षा की धज्जियां उड़ाते हुए घर के ही कंप्यूटर और प्रिंटर पर 2000 रुपये की नकल बना ली। वे पकड़े भी गए। पुराने करेंसी नोटों की जालसाजी और नकली बनाना आसान नहीं था, जबकि 2000 रुपये के नकली नोट धड़ल्ले से बनाए जाने की खबरें अखबारों में आईं थी।
4- अंत में 2000 रुपये का नोट उन मूलभूत उद्देश्यों में से एक को प्राप्त करने में विफल रहा, जो एक मुद्रा का उद्देश्य होता है। पैसे को विनिमय का माध्यम होना चाहिए। बाजार में एक समय अधिकांश के पास 2000 रुपये के नोट थे लेकिन कोई भी इसे भुनाकर, चीजों को खरीदने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता था। विनिमय के माध्यम के रूप में तब इसका बहुत सीमित उपयोग था।
विशेष रूप से उस समय, जब 1000 रुपये और 500 रुपये के नोट रद्द हो चुके थे, डिजिटल भुगतान के एप्प न तो इतने लोकप्रिय थे और न ही इतने उपलब्ध। साथ ही लोगों का माइंडसेट भी डिजिटल भुगतान की प्रति तब इतना नहीं बन पाया था। 100, 50, 20, 10 के नोट कम थे। ऐसा इसलिए हुआ था कि लगभग 88% मुद्रा जो 1000 और 500 के नोटों में थी, को चार घंटे की नोटिस पर रद्द कर दिया गया था।
आरबीआई ने निर्धारित किया है कि 2000 रुपये के नोट का कोई भी एक्सचेंज एक समय में 20,000 रुपये से अधिक नहीं हो सकता है। इसका मतलब यह है कि अगर किसी व्यक्ति ने इन नोटों में 2 लाख रुपये की बचत की है- मान लीजिए शादी के आयोजन के लिए- तो उसे वापस पाने के लिए 10 बार लाइन में खड़ा होना होगा (पूरे देश में आरबीआई के 19 क्षेत्रीय कार्यालयों में से एक के बाहर)। चूंकि नोटबंदी को व्यापक रूप से भारतीयों के बीच एक मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा गया था, इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं होगा कि इसे भी उसी तर्ज पर मास्टरस्ट्रोक के एक नए संस्करण के रूप में देखा जाय।
एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि 8 नवंबर 2016 से 31 दिसंबर 2016 तक आरबीआई ने दो सौ से अधिक दिशा निर्देश जारी किये थे। वर्तमान आरबीआई गवर्नर, तब वित्त सचिव थे और हर रोज शाम को होनी वाली अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कोई न कोई नया फरमान सुना जाते थे। सुबह कुछ और शाम को कुछ जारी होने वाले यह आदेश/निर्देश, प्रशासन की अपरिपक्वता और बदहवासी ही बताते हैं।
यह एक ऐसा मास्टरस्ट्रोक था कि इसे लागू करने के पहले लगता है कोई होमवर्क किया ही नहीं गया था और रोज देशभर से अफरातफरी की खबरें आ रही थीं। अब नोटबंदी-2 के मामले में भी कुछ ऐसा ही भ्रम दिखाई दे रहा है। किसी भी देश की मुद्रा उस देश की अस्मिता से जुड़ी होती है। पर नौ वर्षों के कार्यकाल में, भारतीय मुद्रा के साथ जो तमाशा किया गया है, उसका विपरीत असर देश की अर्थव्यवस्था पर तो पड़ा ही है, मुद्रा को लेकर भी लोगों के मन में संशय उठने लगा है। ऐसा लगता है कि नोटबंदी-1 के समय हुई प्रशासनिक गलतियों से, न तो आरबीआई ने और न ही सरकार ने कुछ सीखा है।
(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस हैं)