यह महाराष्ट्र का इमरजेंसी मोमेंट था। जब रात के अंधेरे में एक बार फिर लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया। हत्या में केवल बीजेपी के नेता और केंद्र सरकार ही नहीं बल्कि संवैधानिक संस्थाओं के प्रतिनिधि भी शामिल थे। अगर सूरज निकलने से पहले अल-सुबह 5.47 पर राष्ट्रपति शासन हटाने का गृहमंत्रालय द्वारा नोटिफिकेशन जारी हुआ है। तो यह स्पष्ट हो जाता है कि महामहिम ने रात के अंधेरे में उस पर कलम चलायी होगी।
बताया जा रहा है कि केंद्रीय गृहसचिव अजय कुमार भल्ला ने डिजिटल हस्ताक्षर किए हैं लेकिन राष्ट्रपति की सिग्नेचर फिजिकल होती है। उसके पहले कैबिनेट बुलाने और उसकी संस्तुति लेने की औपचारिकता से बचने के लिए रात में ही बिजनेस संचालित करने संबंधी 1961 के एक्ट के तहत बने रूल 12 को लागू कर दिया गया। जिसमें कैबिनेट की पूर्व सहमति के बगैर राष्ट्रपति शासन लागू करने का प्रावधान है। यह रुल 12 पीएम को अपवाद स्वरूप स्थितियों में यह अधिकार देता है।
बावजूद इसके यह सवाल रह ही जाता है कि आखिर ‘औपचारिकताओं’ को पूरा करने से पहले ही महामहिम राज्यपाल को क्या रात में सब कुछ बता दिया गया था? क्या वे रतजगी पर थे? या फिर इन सभी हस्ताक्षरों के बारे में उन्हें ब्रीफ कर दिया गया था? जो बिल्कुल मुंह अंधेरे वह न केवल तैयार हो गए बल्कि देवेंद्र फडनवीस और अजित पवार को उन्होंने शपथ भी दिला दी। देवेंद्र फडनवीस और अजीत पवार को छोड़ भी दिया जाए। केंद्र में मोदी और अमित शाह को भी एकबारगी इससे बरी कर दिया जाए। क्योंकि ये सभी तमाम संवैधानिक मर्यादाओं और उसकी कसौटियों से अब ऊपर उठ चुके हैं। इनके बनने-बिगड़ने का अब इन सभी पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या संवैधानिक संस्थाओं के प्रतिनिधि और उनके मुखिया भी अब हमाम में उन्हीं के साथ खड़े हो गए हैं? यह अजीब विडंबना है कि संविधान दिवस से महज तीन दिन पहले बाबा साहेब की धरती पर संविधान को तार-तार करने का काम इन्हीं संवैधानिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों ने किया है।
राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से जरूर यह बात पूछी जानी चाहिए कि आखिर उन्होंने जब एक बार फडनवीस को मौका दिया था और उन्होंने बहुमत होने के अभाव में सरकार गठन से इंकार कर दिया था। तब दोबारा न्योतने से पहले क्या उन्हें पूर्ण बहुमत का पुख्ता भरोसा था और न होने पर क्या उनको इसकी जांच परख नहीं कर लेनी चाहिए थी?
यह पूरा घटनाक्रम बताता है कि वह किसी राज्यपाल से ज्यादा एक स्वयंसेवक की भूमिका में ख़ड़े थे। और इस बात का उन्हें पूरा भान था कि वह एक ऐसे शख्स को पद और गोपनीयता की शपथ दिला रहे हैं जिसके पास बहुमत नहीं है। यानी आप खुलेआम और पूरे होशो-हवास में खरीद-फरोख्त के हालात पैदा कर रहे हैं।
अब जबकि एनसीपी मुखिया शरद पवार और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की प्रेस कांफ्रेंस के बाद चीजें स्पष्ट हो चुकी हैं। एनसीपी की आधिकारिक बैठक में 54 में से 50 विधायकों के मौजूद होने की रिपोर्ट है। और अजित पवार को एनसीपी विधायक दल के नेता पद से हटाकर दिलीप पाटिल को उनकी जगह नियुक्त कर दिया गया है। तब यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गयी है कि नवगठित सरकार के पास बहुमत नहीं है। इस बीच, न्याय की गुहार के साथ शिवसेना ने सुप्रीम कोर्ट का भी दरवाजा खटखटा दिया है।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर इतनी जल्दबाजी क्यों है? और एन-केन प्रकारेण मोदी-शाह महाराष्ट्र में सरकार क्यों चाहते हैं? दरअसल महाराष्ट्र दूसरे सूबों की तरह महज एक सूबा नहीं है। अगर राजनीतिक तौर पर और संख्या के मामले में यूपी का स्थान देश में सबसे ऊपर आता है। तो दौलत और कारपोरेट की ताकत के मामले में महराष्ट्र उससे भी ऊपर हो जाता है। ऊपर से हिंदुत्व की राजनीति के लिहाज से भी वह एक स्थाई स्तंभ बना हुआ है।
ऐसे में बीजेपी की सरकार का न बन पाना न केवल उसकी विचारधारा के लिए नुकसानदेह होता बल्कि सत्ता पक्ष की जारी एकक्षत्र कारपोरेट ताकत में भी बड़ा छेद साबित होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सभी मोर्चों पर नाकाम होने के बावजूद अगर मोदी की सरकार टिकी हुई है और चल रही है तो उसके पीछे कारपोरेट और उसके संरक्षण में काम करने वाले मीडिया का हाथ है। और एकबारगी अगर महाराष्ट्र विपक्ष की झोली में चला गया तो मोदी सरकार के लिए यह किसी पक्षाघात से कम नहीं होगा।
ऊपर से जज लोया से लेकर टेरर फंडिंग करने वाली कंपनियों से चंदे जैसे तमाम ऐसे मामले हैं जिनके विपक्ष का हथियार बन जाने का खतरा है। अगर मोदी-शाह की जोड़ी अभी तक भ्रष्टाचार के मामलों में पवार परिवार के खिलाफ अपर हैंड लिए हुए है तो सत्ता में आने के बाद कई मामलों में निशाने पर रहने वाले मोदी-शाह की गर्दन भी एनसीपी मुखिया के हाथ में होगी। इसमें कोई शक नहीं है। यही वो मजबूरियां हैं जिनके चलते मोदी-शाह की जोड़ी ने महाराष्ट्र में सत्ता हासिल करने के लिए सारी संवैधानिक मर्यादाओं और परंपराओं को ताक पर रख दिया।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संस्थापक संपादक हैं।)
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