Saturday, April 27, 2024

ग्राउंड रिपोर्ट: चुवांड़ी खोदकर पानी पीने को मजबूर पलामू की परहिया जनजाति

झारखंड के पलामू जिला अंतर्गत रामगढ़ प्रखण्ड का एक गांव है मरगड़ा। आदिम जनजाति परहिया के 60 परिवारों वाला यह गांव प्रखण्ड मुख्यालय से करीब 17 किलोमीटर और जिला मुख्यालय से करीब 27 किलोमीटर दूर है। इस गांव में रहने वालों को बुनियादी सुविधाएं-सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार उपलब्ध कराने की बात कौन कहे  उन्हें आज भी पीने के लिए साफ पानी मयस्सर नहीं है।  

पेयजल संकट का आलम यह है कि यहां की अधिकांश आबादी को कुड़ेवा नदी में चुवांड़ी खोदकर महिलाओं और बुजुर्गों को पानी का इंतजाम करना पड़ता है। यह व्यवस्था सामान्य मौसम में तो ठीक ठाक रहती है लेकिन जब गर्मी अपना कदम जैसे ही बढ़ाती है पानी का स्रोत भी सूखने लग जाता है और लोगों के लिए पानी की समस्या काफी विराट रूप धारण कर लेती है।

गांव का एक युवा बिन्दु परहिया जो होली के अवसर पर गांव आया है। वह रोजगार के लिए दूसरे राज्य में पलायन किया हुआ है। वह बताता है कि “गांव में एक कुआं तो है वह लेकिन इतना जीर्ण-शीर्ण है कि मरम्मत के अभाव में बरसात का पानी उसमें चला जाता है और वह पानी पीने लायक तो रहता ही नहीं। बावजूद जब चुवांड़ी सूख जाता है तो उसके बाद यहीं एक आसरा रह जाता है। अतः विकल्प यही है कि उसकी सफाई हमलोग करेंगे और उसी से पूरी गर्मी में अपनी प्यास बुझाएंगे।”

पानी लेकर जाती महिालाएं

बताते हैं कि ग्रामीणों को इस कुआं तक आने जाने और पानी लाने-ले जाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। खासकर गर्भवती महिलाएं और बुजुर्ग महिलाओं के लिए तो बहुत बड़ा संकट है। दूसरी तरफ एक और कुआं है जो गांव से दूर स्कूल के पास है जहां सिर्फ स्कूल टोला के 12-15 परिवारों को ही पानी नसीब हो पाता है, क्योंकि स्कूल में सोलर चालित जलमीनार से पानी उपलब्ध है। 

गांव की एकमात्र बहू हृदया देवी जो आठवीं तक पढ़ी-लिखी हैं। वह स्वास्थ्य केंद्र और सड़क के अभाव पर कहती हैं कि “गांव से कोई भी गर्भवती महिला प्रसव के समय सामान्य स्थिति में अस्पताल नहीं जाती है, क्योंकि रास्ता इतना खराब हैं कि उन्हें और उनके परिवार वालों को रास्ते में ही कहीं कुछ अनहोनी हो जाने का डर सताता रहता है।”  

बता दें कि इस गांव की समस्या केवल पेयजल तक ही सीमित नहीं है। इन गरीब आदिम जनजाति परिवारों को कई तरफ के प्रशासनिक अनदेखी का सामना करना पड़ता है। विगत वर्ष जुलाई 2023 से दिसंबर तक इनको राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मिलने वाला डाकिया योजना से राशन नहीं दिया गया।

झारखंड सरकार ने आदिम जनजातियों के संरक्षण के लिए आदिम जनजाति डाकिया खाद्यान्न योजना को लागू किया गया है। इस योजना के माध्यम से आदिम जनजाति परिवारों को हर महीने 35 किलो चावल मुफ्त दिए जाते हैं।

खाद्य एवं आपूर्ति विभाग से जुड़े अधिकारियों द्वारा इस योजना के तहत जनजाति परिवारों के घर तक अनाज पहुंचाया जाता है। बावजूद जुलाई 2023 से दिसंबर तक इनको राशन नहीं दिया गया, जो विभागीय लापरवाही तो है ही साथ ही यह व्यवस्थागत रूप से जमीनी अज्ञानता को भी दर्शाता है।

मामले की गहन छानबीन के बाद पता चला कि राशन वितरण में 2022 से ही समस्या उत्पन्न होना शुरू हो गयी थी, जिसपर विभागीय अधिकारी गंभीर नहीं थे। ऐसे में नौबत यह रही कि खाद्यान्न के आवंटन और वितरण में भारी अंतर आया तो राज्य सरकार द्वारा एकाएक आवंटन पर रोक लगा दी गई। 

दरअसल ऐसी स्थिति तकनीकी बदलाव के कारण उत्पन्न हुई। हुआ यह था कि राज्य सरकार ने 2022-23 में बग़ैर जमीनी अध्ययन के डाकिया योजना के तहत वितरण किए जाने हेतु पॉश मशीन में कार्डधारकों के अंगूठे के निशान लेने सम्बन्धी आदेश को अनिवार्य कर दिया। किन्तु शहर से दूर इन गांवों में मोबाइल नेटवर्क है ही नहीं। ऐसे में लोगों को राशन भौतिक (कागजी) तौर पर मुहैया करा दी गई, किन्तु उसका ऑनलाइन रिकॉर्ड में संधारित नहीं हो पाने के कारण खाद्यान्न उपलब्ध दिखाता रहा।

नाले में बहते पानी से प्यास बुझाता एक आदिवासी

ऐसे में इन परिवारों की महिलाओं ने रोजमर्रा खाद्य जरूरतों के लिए जो कदम उठाए, उसके बारे में जो बताया उसके अनुसार दशहरा के पहले का दुकानों में बहुत उधार हो गया था। उसके बाद जब चकवड़ के बीज का सीजन आया तो करीब 15 दिनों तक गांव में रह रही महिलाएं अपने परिवार के खाने की चीजें इंतजाम करने के लिए आस – पास और जंगलों से चकवड़ का बीज इकट्ठा कर उसे स्थानीय महाजनों को बेचती थीं। वे एक दिन में 2 से तीन किलो बीज संग्रहित कर पाती थीं, जिसे 20 रुपये किलो बेचकर 36 प्रति रुपये किलो चावल खरीदकर खाना पड़ रहा था।

बता दें कि चकवड़ में औषधीय गुणों की भरमार है। देश के अन्य क्षेत्रों में चकवड़ को पवाड़, पमाड, पवांर, जकवड़ आदि नामों से जाना जाता है। हालांकि इसे कथित सभ्य समाज में किसी खरपतवार से कम नहीं माना जाता है। 

जब चकवड़ बीज का सीजन ख़त्म होने लगा तो महिलाओं ने तुलसी के बीज संग्रहित कर बेचना शुरू किया ही था। यह बीज 18 रुपये प्रति किलो बिकना प्रारंभ हुआ ही था कि मिचौंग तूफान के प्रभाव से 3-4 दिनों तक लगातार बारिश हो गई और उनकी उम्मीदों पर पूरा पानी फिर गया। मतलब बारिश ने आगे की कहानी को पूरी तरह समाप्त कर दी। 

(झारखंड से विशद कुमार की रिपोर्ट)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles