Friday, April 26, 2024

SC का ऐतिहासिक फैसला, प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और चीफ जस्टिस करेंगे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर गुरुवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने आदेश दिया कि प्रधानमन्त्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और चीफ जस्टिस का पैनल इनकी नियुक्ति करेगा। पहले सिर्फ केंद्र सरकार इनका चयन करती थी।

5 सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि ये कमेटी नामों की सिफारिश राष्ट्रपति को करेगी। इसके बाद राष्ट्रपति मुहर लगाएंगे। उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में साफ कहा कि यह प्रक्रिया तब तक लागू रहेगी, जब तक संसद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर कोई कानून नहीं बना लेती।

जस्टिस केएम जोसेफ ने फैसला पढ़ते हुए कहा, इस प्रथा को तब तक लागू किया जाएगा जब तक कि संसद द्वारा इस संबंध में एक कानून नहीं बनाया जाता है। जस्टिस केएम जोसेफ, जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार की एक संविधान पीठ भारत के चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सुधार की सिफारिश करने वाली याचिकाओं पर फैसला सुनाया है।

जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता बनाए रखी जानी चाहिए। नहीं तो इसके अच्छे परिणाम नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि वोट की ताकत सुप्रीम है, इससे मजबूत से मजबूत पार्टियां भी सत्ता हार सकती हैं। इसलिए इलेक्शन कमीशन का स्वतंत्र होना जरूरी है। यह भी जरुरी है कि यह अपनी ड्यूटी संविधान के प्रावधानों के मुताबिक और कोर्ट के आदेशों के आधार पर निष्पक्ष रूप से कानून के दायरे में रहकर निभाए।

संविधान पीठ ने कहा कि कोई भी प्रक्रिया जो इस न्यायालय के समक्ष चुनाव प्रक्रिया में सुधार करना चाहती है, उस पर विचार किया जाना चाहिए। पीठ ने जोर देकर कहा कि चुनाव आयोग निष्पक्ष और कानूनी तरीके से कार्य करने और संविधान के प्रावधानों और न्यायालय के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य है। लोकतंत्र लोगों के लिए सत्ता के साथ अस्पष्ट रूप से जुड़ा हुआ है। लोकतंत्र एक आम आदमी के हाथों में शांतिपूर्ण क्रांति की सुविधा देता है अगर इसे स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से आयोजित किया जाए।

संविधान पीठ ने कहा कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका द्वारा सभी प्रकार की अधीनता से अलग रहना होगा। यह हस्तक्षेप करने के तरीकों में से एक वित्तीय सहायता में कटौती कर सकता है। एक कमजोर चुनाव आयोग के परिणामस्वरूप कपटपूर्ण स्थिति होगी और इसके कुशल काम-काज से अलग हो जाएगा। संविधान पीठ ने अपने विस्तृत फैसले में मीडिया की निष्पक्षता पर भी दुख जताया। उन्होंने कहा कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग अपनी भूमिका से अलग हो गया है और पक्षपातपूर्ण हो गया है।

जस्टिस रस्तोगी ने कहा कि चुनाव आयुक्तों को हटाने का आधार वही होना चाहिए जो मुख्य चुनाव आयुक्त का है। न्यायालय के समक्ष दिए गए सुझावों में से एक कॉलेजियम था, जिसमें प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और चुनाव आयुक्तों का चयन करने के लिए विपक्ष के नेता शामिल थे।

संविधानपीठ ने कहा कि उसकी चिंता यह सुनिश्चित करना है कि नियुक्त किए गए व्यक्ति राजनीति से ऊपर हों। सुनवाई के दौरान पीठ ने केंद्र सरकार से अरुण गोयल की निर्वाचन आयुक्तों में से एक के रूप में नियुक्ति को बिजली की गति से मंजूरी देने पर सवाल किया, जब सुनवाई चल रही थी। पीठ ने भारत के अटॉर्नी जनरल से अरुण गोयल की नियुक्ति से संबंधित फाइलें पेश करने को कहा था।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ का विचार था कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 के प्रावधान की एक करीबी नज़र और व्याख्या’ के बाद यह मामला संवैधानिक पीठ को भेजा गया था, जो चुनावों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण को बताता है। चुनाव आयोग में निहित होने की आवश्यकता हो सकती है।

संविधान पीठ के समक्ष बहस करते हुए मुख्य मामले में याचिकाकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट प्रशांत भूषण ने दलील दी थी कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को विनियमित करने के लिए कोई कानून नहीं है। उन्होंने प्रस्तुत किया कि संस्था की समग्र स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं है।

भूषण ने बताया था कि विधि आयोग ने प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश को शामिल करते हुए एक चयन समिति बनाने की सिफारिश की थी। उन्होंने सुझाव दिया कि चूंकि प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं, इसलिए न्यायालय एक तटस्थ निकाय के गठन पर विचार कर सकता है। भूषण के अनुसार व्यवहार्य विकल्पों में से एक सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम है। वैकल्पिक रूप से उन्होंने सुझाव दिया कि ईसीआई सदस्यों की नियुक्ति के लिए पांच सदस्यीय समिति गठित की जा सकती है।

भूषण ने प्रस्तुत किया कि नियुक्ति निकाय को पारदर्शिता बरतनी चाहिए। एक अन्य याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन ने जोर देकर कहा कि संविधान के अनुच्छेद 324(2) के तहत एक रिक्तता है क्योंकि ईसीआई में नियुक्तियां करने की प्रक्रिया का सुझाव देने के लिए कुछ भी नहीं है। इस संबंध में उन्होंने सीजेआई, प्रधान मंत्री और विपक्ष के नेता वाली तीन सदस्यीय समिति का प्रस्ताव रखा।

उन्होंने कहा था कि आज तक, केंद्र सरकार ने 6 साल के पूरे कार्यकाल के लिए किसी को भी चुनाव आयोग के रूप में नियुक्त नहीं किया है और वही चुनाव आयोग को दबाव में रखता है और संस्था की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। उन्होंने जोर देकर कहा था कि एक पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक तंत्र विकसित किया जाना चाहिए जो मनमानी से रहित हो।

अटॉर्नी जनरल, आर. वेंकटरमणि ने भारत और दुनिया भर में संवैधानिक न्यायालयों की शक्तियों और शक्तियों के पृथक्करण के मोंटेस्कियन सिद्धांत के आधार पर उनकी अंतर्निहित सीमाओं पर प्रस्तुतियां दीं, जो कि एक हिस्सा भी है। भारतीय संवैधानिक योजना के उन्होंने तर्क दिया कि संविधान के एक मूल प्रावधान को एक न्यायालय द्वारा रद्द नहीं किया जा सकता है, यह केवल प्रावधान के दायरे को बढ़ा सकता है।

संविधान में कई प्रावधान हैं जो संसद को क़ानून बनाने का अधिकार देते हैं, हालाँकि अदालत यह तय नहीं कर सकती है कि संसद की ओर से कानून बनाया जाए या नहीं। अटॉर्नी जनरल ने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ताओं द्वारा संदर्भित रिपोर्ट अस्पष्ट हैं और उनमें से कोई भी सुधारों के लिए पूछने से परे नहीं है।

एडिशनल सॉलिसिटर जनरल, बलबीर सिंह ने तर्क दिया कि पीठ के समक्ष मामला विनीत नारायण और विशाखा मामलों से अलग है और सुप्रीमकोर्ट के दिशानिर्देशों द्वारा भरे जाने के लिए कोई ट्रिगर बिंदु और शून्य नहीं है। उन्होंने तर्क दिया था कि वर्तमान मामले में पक्षपात या असंवैधानिकता का कोई सबूत नहीं जोड़ा गया है।

शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लेख करते हुए भारत के सॉलिसिटर जनरल, तुषार मेहता ने कहा कि नियुक्ति करने की शक्ति कार्यपालिका को प्रदान की गई है और नियुक्ति प्रक्रिया में सीजेआई को शामिल करने का मतलब होगा कि संविधान को फिर से लिखना होगा।

गौरतलब है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर फिलहाल देश में कोई कानून नहीं है। नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया केंद्र सरकार के हाथ में है। अब तक अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के मुताबिक सचिव स्तर के मौजूदा या रिटायर हाे चुके अधिकारियों की एक सूची तैयार की जाती है।

कई बार इस सूची में 40 नाम तक होते हैं। इस सूची के आधार पर तीनों नामों को एक पैनल तैयार किया जाता है। इन नामों पर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति विचार करते हैं। इसके बाद प्रधानमंत्री पैनल में शामिल अधिकारियों से बात करके कोई एक नाम राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इन नाम के साथ प्रधानमंत्री के नोट भी भेजते हैं। इसमें उस शख्स के चुनाव आयुक्त चुने जाने की वजह भी बताई जाती हैं।

एक अक्टूबर 1993 से चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो चुनाव आयुक्त होते हैं। एक अक्टूबर 1993 से चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो चुनाव आयुक्त होते हैं।

चुनाव आयुक्त कितने हो सकते हैं, इसे लेकर संविधान में कोई संख्या निर्धारित नहीं की गई है। संविधान का अनुच्छेद 324 (2) कहता है कि चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त हो सकते हैं। यह राष्ट्रपति पर निर्भर करता है कि इसकी संख्या कितनी होगी। आजादी के बाद देश में चुनाव आयोग में सिर्फ मुख्य चुनाव आयुक्त होते थे।

वर्ष 2018 में चुनाव आयोग के कामकाज में पारदर्शिता को लेकर कई याचिकाएं दायर हुईं थीं। इनमें मांग की गई थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त यानी सीईसी और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसा सिस्टम बने। सुप्रीम कोर्ट ने इन सब याचिकाओं को क्लब करते हुए इसे 5 जजों की संविधान पीठ को भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट इसी मामले की सुनवाई कर रही थी।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं।)

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