राजमोहन गांधी: पाठ्यक्रमों से निकाल कर आप गांधी के विचारों को मार नहीं सकते 

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मैं उन जीवित लोगों में एक हूं, जो महात्मा गांधी के उन प्रार्थना सभाओं में शामिल थे, जो 1947-48 में उन्होंने नई दिल्ली के बिड़ला हाउस के लॉन में आयोजित की थीं। जिसे उस समय अल्बुकर्क रोड कहा जाता था और अब जिसका नाम तीस जनवरी मार्ग है।

उस समय मैं बारह वर्ष का था। मैं अक्सर उन प्रार्थनाओं में भाग लेता था। लेकिन जिस दिन 30 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा जाते हुए  मेरे दादा जी की हत्या हुई, उस दिन मुझे प्रार्थना सभा में शामिल होने से रोक दिया था। उस दिन मेरे स्कूल में खेल का एक आयोजन था।

1947-48 के वे दिन मेरे दिमाग में उमड़ने-घुमड़ने लगे, जब मैने एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में कुछ हिस्सों को निकाल बाहर करने की कहानी 5 अप्रैल को द इंडियन एक्सप्रेस में पढ़ी, जिसमें मैं आत्मसात करने की कोशिश कर रहा हूं।

पाठ्यक्रमों से निकाल दिए गए वे वाक्य , जो भारत भर के 12वीं कक्षा के छात्र 15 वर्षों या उससे अधिक समय से पढ़ रहे हैं:

“वे लोग उन्हें (गांधी) को नापसंद करते थे, जो चाहते थे कि हिंदू, मुसलमानों से बदला लें या जो लोग चाहते थे कि भारत हिंदुओं का देश बने, जैसे पाकिस्तान मुसलमानों का देश बना था..” 

“हिंदू-मुस्लिम एकता की गांधी की दृढ़ कोशिश के चलते हिंदू चरमपंथी इतने आक्रोशित हो गए कि उन्होंने गांधी की हत्या के कई प्रयास किए…”                              

गांधी जी की हत्या का देश की साम्प्रदायिक स्थिति पर करीब जादुई प्रभाव पड़ा…भारत सरकार ने साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वाले संगठनों पर नकेल कस दी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) जैसे संगठनों पर कुछ समय के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया।….

इसके अलावा अब 12वीं के इतिहास के छात्रों को यह नहीं बताया जाएगा कि गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे ‘पुणे के एक ब्राह्मण’ थे या कि  “एक चरमपंथी हिंदू समाचार पत्र के संपादक” थे और इस रूप में वे (गोडसे) ने  “गांधीजी को ‘मुसलमानों का तुष्टीकरण करने वाला’ कहा था।”  इन तथ्यों को पाठ्यक्रम से बाहर निकालने के पक्ष में यह दावा किया गया है कि ऐसा करने से “पाठ्यक्रम का भार कम हो  जाएगा।” और यह तर्कसंगत है।

मैं इस तरह के दावों को स्वीकार नहीं कर सकता। पाठ्यक्रमों में निकाले गए इन टुकड़े-दर-टुकड़ों को गांधी के विचारों को लोगों के स्मृति पटल से सतत तौर गायब करने की प्रक्रिया के रूप में देखता हूं। अंत में उनसे संबंधित इन सभी सबूतों को मिटा दिया जाएगा, जिससे यह साबित होता है कि गांधी को इसलिए मार दिया गया,क्योंकि भारत उन सभी का है, जो इसमें रहते हैं, जिसमें मुस्लिम और ईसाई भी शामिल हैं और यह देश सिर्फ हिंदुओं का नहीं है।

हालांकि गांधी की हत्या आसान था, लेकिन साक्ष्यों को मिटाना एक ऐसा लक्ष्य है, जिसे पाना नामुमकिन है। भारत सबका है, इस विचार को मिटाने का मतलब है उस ऐतिहासिक सत्य को मिटाना जिसे गांधी ने रेखांकित किया था। इसके साथ उस सत्य को मिटाना कि गांधी की हत्या इसलिए की गई, क्योंकि वे अपनी इस बात पर दृढ़ थे कि भारत सबका है, सिर्फ हिंदुओं का नहीं। लेकिन ऐसा कर पाना असंभव सी कोशिश है।

जब मैं कह रहा हूं कि यह असंभव है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि यह गांधी के स्मृति चिह्नों और स्मृति स्थलों को खत्म करने के मामले में यह असंभव है। गांधी स्मृति स्थलों को खत्म किया जा सकता है, जिसमें 30 जनवरी के गांधी स्मृति स्थल को बंद करना भी है। यह काम यह तर्क देकर किया जा सकता है कि वहां ट्रैफिक की काफी भीड़ रहती है। लेकिन 30 जनवरी 1948 को जो कुछ घटित हुआ उसके बारे में भारत या दुनिया की जानकारी और समझ को कोई सरकारी एजेंसी या राज्य नहीं मिटा सकता है। यह उसके बलबूते की बात नहीं है, चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो।

क्या भारत सरकार की सेंसर एजेंसिया जवाहर लाल नेहरू और सरदार बल्लभ भाई पटेल की उन आवाजों और बातों को मिटा सकती हैं, जो उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो 30 जनवरी 1948 की रात कहा। क्या 31 जनवरी 1948 को भारत भर में छपने वाले सैकड़ों अखबारों के रिकॉर्ड गायब हो जाएंगे? जिनमें से कुछ पृष्ठ माइक्रोफिल्म पर भी उपलब्ध हैं और पूरी दुनिया में उपलब्ध हैं। 

आज अमेरिका वह जगह है, जहां अब लाखों भारतीय रहते हैं। यह भी देख सकते हैं कि एक अमेरिकी ने गांधी की हत्या के बारे में क्या है, जिस अमेरिकी को पूरी दुनिया प्यार करती है। वह अमेरिकी कोई और नहीं, मार्टिन लूथर किंग जूनियर थे। जिन्होंने मोंटगोमरी, अलबामा में 22 मार्च, 1959 को भारत की अपनी पहली और  आखिरी संक्षिप्त यात्रा से लौटने के तुरंत बाद कहा, “उन्होंने उस आदमी को मार डाला, जिसने भारत की आजादी के लिए 40 करोड़ भारतीयों के प्रेरणा का स्रोत बना और उन्हें आजादी के लिए तैयार किया। उसके अपने ही एक हिंदू को लगा कि वह ( गांधी) मुसलमानों के प्रति कुछ ज्यादा ही लगाव रखता है और उनका ज्यादा सहयोगी है। एक प्यार करने वाला आदमी नफरत करने वाले आदमी के हाथों मार दिया गया। सच यह है कि जिस आदमी ने गांधी को गोली मारी उसने इंसानियत के दिलों में गोली मार दी।”(द पेपर्स ऑफ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया प्रेस, वॉल्यूम। 5, पृ. 156.)

मैं दोहरा रहा हूं कि गांधी की हत्या करना आसान काम था। लेकिन गांधी का एक सिद्धांत भी  है या गांधी एक विचार भी हैं। जैसा कि मैने पहले कहा कि वह मुख्य विचार यह है कि भारत उन सभी का है, जो इसमें रहते हैं।  यह मूल बात के दो अन्य संदेशों को सामने लाती हैं। पहला, ईश्वर अल्लाह तेरे नाम। दूसरा, दूसरों के दर्द को महसूस करना, पराई पीड़ा का अहसास करना। यह एक अच्छे इंसान की निशानी है।

गांधी के इन मुख्य विचारों को सेंसर करना, उसे निकाल बाहर करना या उसे नष्ट करना आसान है। ये वे विचार हैं, जो गांधी से इतना जुड़े हुए थे, जितना उनके हाथ-पैर या कोई अन्य चीज जुड़ी हुई थी। उनके ये विचार करोड़ों भारतीयों के दिलों में बसते हैं। इसके सब के बावजूद भी भारत के लोगों के लिए पाठ्यपुस्तकों से इन विचारों को बाहर करने की घटना से गहन स्तर पर चिंतित होना स्वाभाविक है। क्योंकि वर्तमान शासक गांधी के इन विचारों के साथ सहज नहीं महसूस कर रहे हैं।

एक बात जो पाठ्यक्रम से निकाली गई है, वह मुझे परेशान नहीं कर रही है। वह है गोडसे के ब्राह्मण होने के बारे में। क्योंकि गोडसे ने जो किया, वह इसलिए नहीं किया क्योंकि वह ब्राह्मण था। ब्राह्मणत्व नहीं, गांधी के प्रति नापंसदगी ने उसे उनकी हत्या के लिए प्रेरित किया। विनोबा भावे भी महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण थे। वे एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। वे न केवल गांधी के सबसे करीबी दोस्त थे, बल्कि उनके सहयोगियों में से एक थे। भावे ने भारत में हजारों जमींदारों को भूमिहीन गरीबों को अपनी भूमि देने के लिए प्रेरित किया। गांधी की हत्या के दो महीने बाद विनोबा भावे ने सेवाग्राम में गांधी के सहयोगियों की एक सभा में कहा कि महात्मा के हत्यारे को पालने वाला समूह  अपने “चरित्र में फासीवादी” था। (गांधी इज गॉन, 1948 सेवाग्राम कॉन्क्लेव की रिपोर्ट, परमानेंट ब्लैक, 2007, पृष्ठ 89)।

75 साल बाद पाठ्यक्रमों से गांधी के विचारों को हटाना हमारे समय का संकेत है।

(राजमोहन गांधी का यह लेख ‘You can’t delete Gandhi’s truth’ शीर्षक से द इंडियन एक्सप्रेस में 7 अप्रैल को प्रकाशित हुआ। साभार प्रकाशन। अनुवाद- सिद्धार्थ)

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