नई दिल्ली/ इलाहाबाद। बरेली के विधायक राजेश मिश्रा की बेटी साक्षी मिश्रा के पति अजितेश के साथ इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर में मारपीट की गयी है। यह वाकया तब हुआ जब दोनों कोर्ट में पेशी के लिए जा रहे थे। बताया जाता है कि मारपीट करने वाले कालीकोट पहने थे। यानी माना जाना चाहिए कि वे कोर्ट परिसर में मौजूद वकील थे।
कोर्ट में आज इस जोड़े की शादी को लेकर सुनवाई थी। जहां उनके पक्ष को सुनने के बाद कोर्ट ने दोनों की शादी को वैध करार दे दिया। इसके साथ ही कोर्ट ने यूपी पुलिस से जोड़े को पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराने का भी निर्देश दिया। इसी दौरान उसने विधायक राजेश मिश्रा को जमकर फटकार लगायी। बताया जाता है कि कोर्ट ने अजितेश के साथ हुई मारपीट का भी संज्ञान लिया है।
गौरतलब है कि साक्षी मिश्रा ने घर से भागकर अजितेश कुमार के साथ शादी की है जो दलित समुदाय से आते हैं। साक्षी का कहना है कि शादी के बाद से ही उसके विधायक पिता के आदमी उनकी जान के पीछे पड़ गए थे जिसके चलते उन्हें मीडिया और कोर्ट की शरण में जाना पड़ा। हालांकि मीडिया में मामला आने के बाद इस शादी को लेकर अब पूरे देश में बहस खड़ी हो गयी है।

इस शादी ने समाज में मौजूद जातीय जकड़न की कलई खोल दी है। यह घटना इस बात को साबित करती है कि कानून और संविधान भले ही आपके पक्ष में हों लेकिन अगर व्यवस्था, समाज और दूसरे हिस्से खिलाफ हैं तो कोई चीज कर पाना आपके लिए कितना कठिन है। कोर्ट में मारपीट की घटना बताती है कि दोनों को अब केवल परिवार से ही नहीं बल्कि समाज से भी लड़ना है। असली सचाई यह है कि अगर दोनों मीडिया और कोर्ट की शरण में नहीं जाते और यह मामला सार्वजनिक नहीं बनता तो उनका जिंदा बच पाना मुश्किल था।
अब तक उनकी आनर किंलिंग हो गयी होती और किसी को इसका पता भी नहीं चलता। आज अगर ये जोड़ा देश के सामने सही सलामत और जिंदा दिख रहा है तो उसके पीछे उनके मामले का सार्वजनिक होना प्रमुख है। जो लोग यह सवाल साक्षी से पूछ रहे हैं कि वह मीडिया के सामने क्यों गयी उन्हें जरूर इस बात का जवाब देना चाहिए कि एमएलए राजेश मिश्रा के आदमियों का वह कैसे मुकाबला करती? जो उन्हें दिन रात भेड़ियों को तरह ढूंढ रहे थे। या फिर वह ये कहना चाहते हैं कि उसे अपनी बलि देने के लिए तैयार रहना चाहिए था? क्या वे इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि मीडिया और कोर्ट के सामने न जाने पर दोनों महफूज रहते।
दरअसल इसके जरिये एक बार फिर समाज की वर्चस्वशाली ताकतें अपने तरीके से एसर्ट कर रही हैं। इसमें मीडिया के एक हिस्से से लेकर समाज और राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ा एक बड़ा तबका शामिल है। जो किसी भी रूप में आज भी एक दलित युवक के साथ किसी ब्राह्मण लड़की की शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है। यह उसकी सवर्ण सामंती और जातीय मानसिकता है जो विभिन्न रूपों में सामने आ रही है। और वह तरह-तरह से इस शादी के खिलाफ अनर्गल प्रचार में जुट गया है। जिसमें विधायक पिता जो कि अपनी दबंगई के लिए पूरे जिले में जाने जाते हैं, को पीड़ित और मजबूर बाप के तौर पर पेश किया जाने लगा है।
साथ ही पूरी घटना के पीछे किसी छुपी साजिश को ढूंढने की कोशिश शुरू हो गयी है। और बताया जा रहा है कि इस सिलसिले में किसी की गिरफ्तारी भी हो गयी है। इस हिस्से को इस बात से कुछ लेना-देना नहीं कि कैमरे के सामने, कोर्ट में और सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक पर साक्षी खुलेआम अजितेश के साथ अपनी शादी की बात कबूल रही है। इस हिस्से द्वारा साक्षी को पेश इस तरह से किया जा रहा है जैसे वह नाबालिग हो और अजितेश उसे जबरन और साजिशन भगा ले गया हो।
सवर्णों का एक लिबरल हिस्सा इस मामले को कुछ दूसरे भावनात्मक नजरिये से पेश कर रहा है जिसमें उसको लगता है कि शादी का फैसला बेहद अहम होता है और उसके लिए 23 की उम्र बहुत छोटी है। लिहाजा किसी लड़की को इसकी स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती है। और उसमें लड़की के साथ मां-बाप के अरमानों को भी जोड़ दिया जा रहा है और फिर इस तरह से एक खिचड़ी पकायी जा रही है जिसमें लड़का और लड़की बिल्कुल विलेन के तौर पर दिखने लगें।
जबकि इस देश की सचाई यह है कि शादी के मामले में कानून के लिए जाति का कोई मसला ही नहीं है रही उम्र की बात तो दोनों बालिग हैं और अपने बारे में फैसला लेने के लिए स्वतंत्र हैं। ऐसे में उनके फैसले की राह में किसी तीसरे का आना बिल्कुल गैरकानूनी होगा। दरअसल इस देश के भीतर अभी भी महिलाओं को लेकर परिवार और खास कर पुरुषों का वर्चस्व वाला नजरिया बरकरार है। जिसमें वह आज भी महिला को अपनी संपत्ति के तौर पर देखता है।
समाज को आगे ले जाने के नजरिये के हिसाब से दोनों की शादी बिल्कुल क्रांतिकारी है। और उसमें जातिविहीन और बराबरी पर आधारित समाज के निर्माण का बीज छुपा हुआ है। इस देश के भीतर अगर सचमुच में कोई जाति खत्म करना चाहता है तो उसका रास्ता इन्हीं अंतर्जातीय विवाहों से होकर जाता है। लेकिन एक ऐसे दौर में जबकि सूबे और केंद्र में एक ऐसी पार्टी की सत्ता मौजूद हो जो जाति को खत्म करने की जगह उसे और स्थापित करने में विश्वास करती हो उससे किसी सकारात्मक पहल की उम्मीद करना बेमानी है। इस मामले में केवल और केवल कोर्ट और कानून हैं जो उनका सहारा बन सकते हैं।