मनोज झा-ग़ज़ाला जमील का लेख: सामाजिक न्याय ‘पहचान की राजनीति’ नहीं, धड़कते दिलों की उम्मीद है

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भारत में जाति को लेकर मुख्य समझ एक सांस्कृतिक परिघटना के रूप में जाति के विचार पर केंद्रित रही है। जाति और व्यापक सामाजिक न्याय की मांग करने वाली राजनीति का मजाक उड़ाते हुए ‘पहचान की राजनीति’ बताया जाता है। 22 अप्रैल के अपने लेख में प्रताप भानु मेहता ने इस तर्क को दोहराया है कि सामाजिक न्याय ‘सामाजिक विभाजन’ को बढ़ाता है।

एक ओर वह यह तर्क देते दिखाई देते हैं कि सामाजिक न्याय विमर्श ने जातिगत पहचान के आधार पर सार्वजनिक संसाधनों के बंटवारे पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित किया है, दूसरी ओर वे भेदभाव के नैतिक मुद्दों को चिन्हित करने और जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए प्रभावी संस्थानों के निर्माण की भी वकालत करते हैं। समावेशी आर्थिक विकास क्या है और सामाजिक न्याय क्या है, इसे लेकर वे क्या सोचते हैं, इस बारे में मेहता से स्पष्टीकरण मांगना बनता है।

यहां हम उन लोगों की एक परेशान करने वाली सहजवृत्ति को याद कर सकते हैं, जिनके पास यह विशेषाधिकार है कि वे आर्थिक राष्ट्रीय विकास लाने के लिए बहुसंख्यकवादी हिंसा के रिकॉर्ड वाले दलों की क्षमता में मासूमियत से विश्वास कर सकते हैं। मेहता सामाजिक न्याय के इर्द-गिर्द विपक्षी एकजुटता को राजनीतिक रूप से नासमझी वाला विचार मानते हैं।

उनके अनुसार यह तात्कालिक तौर पर फायदेमंद हो सकता है लेकिन दूरगामी लक्ष्यों को कमजोर करता है। प्रताप भानु मेहता की बौद्धिक क्षमता के प्रति सम्मान के साथ, क्या हमें सामाजिक न्याय के विचार को बढ़ती गरीबी के साथ-साथ हमारे दौर में बढ़ती भयावह असमानता की प्रवृत्ति के संदर्भ में नहीं देखना चाहिए ?

सैकड़ों साल पहले से ही हाशिये पर मौजूद समूहों के और अधिक हाशिए पर जाने की ये प्रवृत्तियां विपक्षी दलों के साथ-साथ नागरिक समाज समूहों के बीच एकता की धुरी क्यों नहीं बननी चाहिए? आखिरकार, सामाजिक न्याय की सबसे बुनियादी समझ अवसरों, विशेषाधिकारों के समतामूलक बंटवारे के साथ-साथ सत्ता-संरचनाओं और संस्थानों में व्यापकतम संभव प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना और उसके लिये संघर्ष है। 

हमें यह याद रखना चाहिए कि जाति-आधारित उत्पीड़न भौतिक परिस्थितियों का निर्माण करता है। जातिगत असमानता की यह भौतिकता न केवल आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से बल्कि राजनीतिक, विशेष रूप से चुनावी राजनीतिक, व्यवस्था-तंत्र के जरिये भी पैदा होती है। प्रताप भानु मेहता का इस बात पर जोर है कि सामाजिक न्याय के मुद्दे पर राजनीतिक गोलबंदी जातिगत असमानताओं के मूल कारणों को हल नहीं करेगी। यह बात किसी ठोस तर्क पर आधारित नहीं है।

वह इसे बहुसंख्यकवाद का ही एक रूप बताते हैं। सच्चाई उसके विपरीत है। भारत में जातिगत अन्याय को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय को खारिज करने की प्रवृत्ति काफी हद तक हिंदुत्व की विचारधारा की पैदाइश है। इस सूत्रीकरण में जाति को भारतीय समाज के एक ‘परेशान’ करने वाले लेकिन ‘प्राकृतिक दोष’ के रूप में पेश किया जाता है, जिसे नीतिगत उपेक्षा और राजनीतिक चुप्पी से मिटाया जा सकता है।

जाति-आधारित असमानताओं की राजनीतिक अस्पष्टता को दूर करने के लिए सबसे पहले जाति-आधारित असमानता के ऐतिहासिक और राजनीतिक आयामों की पहचान करनी होगी। उसके साथ ही जाति-आधारित उत्पीड़न को बनाए रखने वाली संरचनात्मक बाधाओं को चुनौती देने के लिए एक राजनीतिक प्रतिबद्धता की दरकार होगी। उनकी राय में भारत में राजद जैसे राजनीतिक दल ठीक इसी ‘अपराध’ के ‘दोषी’ हैं।

उच्च शिक्षा और अनुसंधान के अति-कुलीन संस्थानों के प्रशासन में कठिनाइयों के सीमित अनुभव ने शायद उन्हें इस सच्चाई से ठीक-ठीक रूबरू नहीं कराया है कि शिक्षा प्रणाली में भेदभाव भारत में प्रारम्भ से ही शुरू हो जाता है। राजद और दूसरे विपक्षी दलों पर वह ‘आधिकारिक रूप से परिभाषित जाति पहचानों के आधार पर सरकारी उदारता’ के बंटवारे तक सामाजिक न्याय को सीमित कर देने और ‘सार्वजनिक शिक्षा को ध्वस्त करने और विश्वविद्यालयों को बर्बाद करने’ का आरोप लगाते हैं।

जबकि सच्चाई यह है कि इन दलों की सरकारों ने स्कूली शिक्षा प्रणाली में भारी निवेश किया है ताकि हाशिए के तबके भी सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में प्रवेश के स्तर तक पहुंच सकें। सार्वजनिक नौकरियों की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए बिहार के युवाओं में महत्वाकांक्षा का स्तर और भारत एवं विदेशों में निजी अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति आज असमान विकास के दुष्प्रभाव और सहकारी संघवाद की विफलता के बावजूद बिहार में शिक्षा के बड़े पैमाने पर विस्तार का सबूत है। यह बिल्कुल साफ है कि केवल नारेबाजी से गरिमा हासिल नहीं की जा सकती। 

विपक्षी पार्टियां जिनका वह मजाक उड़ाते नहीं थकते, सामाजिक न्याय के लक्ष्य के लिए गरिमा और विकास को जोड़ती हैं। गरिमा और न्याय की बलि देकर विकास कभी भी हासिल नहीं किया जा सकता, जिसकी उन्होंने त्रुटिपूर्ण तरीके से लेकिन लगातार वकालत की है। यह सोचना कि आम उपाय जातिगत अन्याय का समुचित निराकरण कर सकते हैं, गलत है और अपने आप में अन्यायपूर्ण भी हो सकता है। अक्सर, इन उपायों की बात उन लोगों द्वारा उठाई जाती है जिनमें खुद के जाति-विशेषाधिकारों के प्रति आलोचनात्मक रुख का अभाव होता है, फलस्वरूप जाति-आधारित भेदभाव जारी रहता है। 

ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों को अवसर देने वाले कोटा और आरक्षण को लेकर प्रभुत्वशाली जाति के सदस्य, जिनके अंदर सामाजिक न्याय की भावना का अभाव होता है तथा अपने लिए बढ़े-चढ़े विशेषाधिकार की भावना होती है। वे मानते हैं कि यह उनके खिलाफ उल्टा भेदभाव हो रहा है। यह तर्क देना कि सामाजिक न्याय के उपाय अन्यायपूर्ण हैं सदियों से जाति-आधारित विशेषाधिकार और हाशिए के समुदायों के खिलाफ भेदभाव को जारी रखना है।

अफसोस की बात है कि वह एक ऐसी बौद्धिक तरकीब की वक़ालत कर रहे हैं, जो अब भारत में आम है। वह सामाजिक न्याय के आधार पर भारतीय मतदाताओं को लामबंद करने के मूल्य के खिलाफ तर्क देने के लिए भारत में सामाजिक न्याय के आंदोलन के शानदार इतिहास से विकसित शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं। 

इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वह चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर पेश की गई सामाजिक न्याय की एक उच्चतर धारणा के आवरण में सामाजिक न्याय पर किये जा रहे अपने हमले में जातिगत जनगणना के खिलाफ तर्क करते हैं। वह डॉ. आंबेडकर के बुनियादी मूल्यों के ठीक उलट अपने तर्क को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें गलत तरीके से उद्धृत करते हुए विपक्ष पर हमले की अपनी आम प्रवृत्ति का साफ सुराग छोड़ देते हैं।

भारत में जाति के मुख्यधारा विमर्श में जाति-आधारित हिंसा और भेदभाव के स्तर और उसकी तीव्रता को स्वीकार करने की अनिच्छा रही है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत में जातिगत अन्याय की अस्वीकृति नकार और दण्डमुक्ति की एक व्यापक संस्कृति की पैदाइश है। नकार की इस संस्कृति का मुकाबला करने के लिए जाति-आधारित उत्पीड़न की सच्चाईयों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और जाति-आधारित हिंसा और विभिन्न रूपों में भेदभाव करने वालों की अदण्डनीयता को चुनौती देने के लिए सतत और ठोस प्रयास की जरूरत है। 

एक ऐसे माहौल में जहां एक घोर बहुसंख्यकवादी पार्टी सम्पूर्ण संस्थागत कब्जे पर आमादा है। चुनावी राजनीति वह अखाड़ा है जहां भारत के भविष्य की दिशा के प्रश्न पर बहुसंख्यकवादी ‘सर्वसम्मति’ को चुनौती दी जानी है, उसका प्रतिरोध किया जाना है और उसे शिकस्त दी जानी है। हमें ईमानदारी से प्रभुत्वशाली जातियों के उन सदस्यों की संस्कृति को चुनौती देने की जरूरत है, जो अक्सर सत्ता और प्रभाव के पदों पर होते हैं।

सार्वभौमिक उपाय प्रस्तावित करते हैं और अपने खुद के जाति-आधारित विशेषाधिकारों को स्वीकार किए बिना सामाजिक न्याय को केवल एक नारा बताकर उसका मजाक उड़ाते हैं। इसके अलावा, मुख्यधारा की मीडिया के पुरजोर समर्थन के साथ सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग का एक हिस्सा समवेत स्वर में बोल रहा है कि जाति-गणना या जाति जनगणना जातिवाद को जन्म देगी, जाहिर है इसमें कोई सार नहीं है।

लेकिन हां, इस तरह के डर को दूर करने के लिए इस प्रश्न को दार्शनिक रूप से संबोधित करने की जरूरत है और समाज में हर दिन हो रहे जाति-आधारित अन्याय के नकार के आंकड़ों को एक आईने के रूप में जरूर दिखाया जाना चाहिए। इसीलिए हम दोहराते हैं कि सौभाग्यवश, सामाजिक न्याय एक मृग-मरीचिका नहीं बल्कि अपने और देश के भविष्य के लिए धड़कते तमाम दिलों की उम्मीद है। यदि यह एक बुरा विचार है, तो हमें ऐसे ‘बुरे विचारों’ की बहुतायत में जरूरत है।

(प्रो.मनोज कुमार झा, सांसद, राज्यसभा(आरजेडी),डॉ. ग़ज़ाला जमील जेएनयू में कानून और शासन विभाग की प्रोफेसर। द इंडियन एक्सप्रेस से साभार प्रकाशित।)

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