नई दिल्ली। मोदी सरकार की चपलता, ढीठपना और विकास के दावों का ढोल अब पहले की तुलना में कई गुना बढ़ चुका है। 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में 3-1 की बढ़त को 5-0 दिखाने की उनकी महारत सर चढ़कर बोल रही है। जबकि कांग्रेस को इंडिया गठबंधन ही नहीं अपने भीतर भी उठते सवालों का जवाब नहीं सूझ रहा है।
आम चुनाव के लिए समय बचा ही नहीं, जबकि विपक्षी पार्टियों के पास लगता है कि सीटों के बंटवारे के अलावा कोई एजेंडा ही नहीं है। ऐसे में भाजपा के मदांध रथ को रोकने के लिए विपक्षी दलों के पास ऐसा क्या है, जो 2024 की तस्वीर को बदल सकता है?
इस सवाल पर आजकल सोशल मीडिया सहित तमाम यूट्यूब चैनलों में विद्वान सिर खपा रहे हैं। कई तो तीन हिंदी भाषी प्रदेशों के परिणाम के बाद ही पलटी-मार कलाबाजी का अद्भुत नमूना दिखाते हुए कहते देखे गये कि इस हाल में तो भाजपा यदि अपने बल पर 350+ सीट ले आती है तो उन्हें आश्चर्य नहीं होगा।
ये वही लोग थे, जो परिणाम आने से पहले तक कांग्रेस को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जीता हुआ बता रहे थे, जबकि राजस्थान में कड़ी टक्कर दिखा रहे थे। इसलिए बुद्धिजीवी वर्ग के बारे में यही कहा जा सकता है कि इन्हें इनके हाल पर ही छोड़ना बेहतर रहेगा। ये बुद्धि की ही खाते रहे हैं, और आगे भी एक खबर पर एक राय तो दूसरी खबर पर चट दूसरी डाल पर बैठने से कभी भी बाज नहीं आ सकते।
तीन राज्यों में जीत के बाद भाजपा और कॉर्पोरेट समूह उत्साह से लबरेज
लेकिन यह भी सही है कि नैरेटिव के मामले में मोदी सरकार मीलों आगे चल रही है। ऊपर से धारा 370 पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर ने रही-सही कसर भी निकाल दी है। लिबरल खेमे की तो जीभ ही बाहर निकल चुकी है। भारतीय टेलीविजन मीडिया और अधिकांश मीडिया समूहों को तो उसने पहले ही गोदी मीडिया करार दे रखा था, और उसकी एकमात्र आशा ले दे कर न्यायपालिका पर टिकी हुई थी।
उसकी यह हसरत भी चूंकि अब आंसुओं में डूब चुकी है तो उसे लगता है कि 5 किलो राशन पर टिकी 80 करोड़ आबादी पर अपनी उम्मीदों को टिकाना निहायत मूर्खता होगी, जिसके लिए पीएम मोदी पहले ही अगले 5 साल की गारंटी कर चुके हैं।
वास्तव में देखें तो यह भाजपा का कांग्रेस होना और कांग्रेस का आप पार्टी की कॉपी करने वाला क्षण है। कल तक जिस लोकलुभावन नीति को मोदी जी मुफ्त की रेवड़ी कल्चर के रूप में खिल्ली उड़ाते थे, आज उसे ही कांग्रेस से भी ज्यादा गाजे-बाजे के साथ अपनाकर भाजपा ने यह मुद्दा भी विपक्ष से छीन लिया है।
कांग्रेस कर्नाटक के बाद तेलंगाना में महिलाओं को सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा को लागू कर जरूर एक बड़े तबके को अपने पक्ष में लाने में सफल रही है, जिसे भाजपा ने भी निश्चित रूप से सोचा होगा। लेकिन उसके अलावा भी किसानों, महिलाओं और गरीब वर्ग के लिए अनेकों योजनाओं को बड़े पैमाने पर लोगों के बीच प्रचारित कर भाजपा लगातार अपनी लीड को हिंदीभाषी प्रदेशों में बढ़ाती जा रही है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी, मध्य प्रदेश में ओबीसी और राजस्थान में ब्राह्मण मुख्यमंत्री देकर तीनों राज्यों के पुराने दिग्गजों को किनारे लगा दिया गया है। इस एक तीर से कांग्रेस नेता राहुल गांधी के जाति जनगणना की रट की ही हवा काफी हद तक निकाली जा चुकी है।
इन तीनों राज्यों में विधानसभा अध्यक्ष और दो-दो उप-मुख्यमंत्री की व्यवस्था भी जातीय समीकरण को साधने का ही एक सस्ता उपाय कहा जा सकता है। इन पुराने चेहरों को लेकर यही प्रचारित किया गया कि मध्यप्रदेश और राजस्थान में अब इन चेहरों से लोग ऊब चुके हैं। इन्हें देखते ही एंटी-इनकंबेंसी की लहर चलने लगती है।
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा था? यह तो केंद्र की जिद थी कि इस बार मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा नहीं होगा, सामूहिक नेतृत्व के नाम पर मोदी चेहरा बनाये जायेंगे। हार की सूरत में सारी जिम्मेदारी लेने के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा जी तो हैं ही। उन्होंने कभी इंकार भी नहीं किया।
हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की हार को भी नड्डा ने सहर्ष स्वीकारा। उनके लिए हार या जीत कोई मायने नहीं रखती, क्योंकि सारा देश बखूबी जानता है कि हारा तो कौन और जीता तो कौन जिम्मेदार है। यह बात शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया को भी खूब पता है।
भाजपा के रणनीतिकारों को अच्छे से पता है कि उन्होंने आज तक जो भी नैरेटिव चलाया है या नीतियों को आगे बढाया है, उनमें से इक्का-दुक्का को ही उन्हें वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है। ऐसे में यदि सफलता-असफलता 90 बनाम 10 हो तो उनका स्ट्राइक रेट तो 90 है, जो कि असाधारण प्रदर्शन है। य
ह काम उसके द्वारा 2014 के बाद से ही शुरू कर दिया गया था। इसी का परिणाम है कि इस देश में शुरू-शुरू में बीफ के नाम पर माब लिंचिंग हुई तो समाज के बुद्धिजीवी सबसे पहले विरोध में खड़े हुए। उनकी ओर से अवॉर्ड वापसी की मुहिम चलाई गई। कई सामाजिक कार्यकर्ताओं, कलाकारों, फिल्मकारों, लेखकों को हमने देश की आत्मा को जगाने की मुहिम में शामिल देखा।
हस्ताक्षर अभियान में सेवानिवृत्त आईएएस, सेना और एयरफोर्स के बड़े अधिकारी सहित पूर्व न्यायाधीशों को देखा जा सकता था। आज वे या तो थक चुके हैं, या यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने नियति से समझौता कर लिया है। आज उनकी अंतरात्मा उन्हें नहीं कचोटती?
जरूर कचोटती होगी, लेकिन मौजूदा व्यवस्था ने कुल-मिलाकर क्या हासिल किया? उसने कल तक समाज में ऐसे प्रतिष्ठित लोगों को अवॉर्ड वापसी गैंग नाम दिया, जिसे सुनकर बुद्धिजीवी वर्ग ने खुद को अपनी खोल में छिपा लिया। यह हाल लगभग सभी तबकों के समूहों में देखा जा सकता है।
गलतियों से सबक न लेने वाले इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं
अब देखते हैं कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के पास अपने बचाव में क्या तर्क हैं? उसकी ओर से तत्काल यह बात कही गई कि 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कुल वोटों की संख्या के आधार पर बाजी उनके नाम रही। तथ्यों के लिहाज से यह बात सही भी है। राजस्थान में वे 2% से भी कम मतों के अंतर से भाजपा से चूक गये।
इसी प्रकार मिजोरम में भी 20% वोट हासिल करने के बावजूद उन्हें भाजपा के 5% वोटों की तुलना में 50% सीट ही हासिल हो सकी। तेलंगाना में उनकी जीत बिल्कुल विस्मयकारी है, जिसे कर्नाटक की जीत से भी ऊपर रखा जाना चाहिए। यह संभवतः पहली बार है जब कांग्रेस किसी क्षेत्रीय दल को उसी के गढ़ में परास्त कर पाने में सफल रही है। लेकिन कांग्रेस को खुद इसका अहसास नहीं है।
तेलंगाना की जीत का विश्लेषण होना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि टीआरएस से बीआरएस में तब्दील हो चुकी केसीआर की पार्टी का ग्राफ 2014 की तुलना में 2018 में ऊपर की ओर गया था। जितनी योजनाओं को आज कांग्रेस और भाजपा के द्वारा प्रचारित किया जा रहा है, उसे केसीआर पहले ही आजमा चुके थे और जनता उनके कामों से खुश भी थी।
लेकिन इसी के साथ केसीआर की तानाशाही प्रवृत्ति भी दिनोंदिन बढती जा रही थी। चुनाव से 3 महीने पहले तक किसी को अंदाजा नहीं था कि तेलंगाना की जनता इतना बड़ा उलटफेर कर सकती है। लगभग सभी विचारकों का मत था कि तेलंगाना में बीआरएस और कांग्रेस के बीच में वोटों का अंतर (20%) इतना अधिक है कि उसे एक चुनाव में पाट पाना असंभव है। हम कांग्रेस से कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहे हैं।
लेकिन यह संभव हो गया। इस बात को कांग्रेस से अधिक पीएम मोदी अनुभव कर रहे हैं। यही वजह है कि उन्होंने 3 राज्यों में जीत के साथ ही एक-एक कर विपक्ष को निस्सहाय करने के लिए उन्हीं के द्वारा उछाले जा रहे नारों को कैच कर विपक्ष को पंगु बनाने के लिए कदम बढ़ा दिया है।
आज कांग्रेस विचारकों एवं समर्थकों के लिए छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के नवोदित मुख्यमंत्रियों की प्रोफाइल्स में से उनके लंपट, गाली-गलौज वाली भाषा का सहारा लेना पड़ रहा है। उनकी ओर से उदाहरण दिया जा रहा है कि मोदी ऐसे लोगों के सहारे प्रदेश को चलाना चाहते हैं, जोकि देश को रसातल की ओर ले जाने का एक और नायाब उदाहरण है।
लेकिन सवाल यह है कि ये बातें जो वे ट्विटर या सोशल मीडिया में कह रहे हैं, उसे विधानसभा के भीतर ही नहीं बल्कि अंतिम दम तक जन-जन तक कहते रहने वाले हैं या नहीं? क्या वे इसके बरक्श अपनी पार्टी के भीतर सिर्फ ईमानदार छवि वाले लोगों को प्रतिनिधित्व देने की शपथ लेंगे?
मध्य प्रदेश में उनके उम्मीदवारों की सूची में अनेकों करोड़पति उम्मीदवार थे, जो भाजपा से कहीं बड़े पैसे वाले लोग थे। ऐसे ही एक राज्यसभा सांसद के घर से अरबों रूपये रेड में पकड़े गये हैं, जिसे पीएम मोदी सहित सारी भाजपा की टीम देश भर में गा रही है।
विपक्ष की एक चूक को उसके खिलाफ बहुत बड़ा बनाकर दिखाने का काम कोई आज नहीं हो रहा है, यह काम कई दशकों की मेहनत और टीम वर्क का काम है। विपक्षी दलों ने तो आजतक यूपी में एक इत्र व्यापारी के घर पर इसी तरह के अरबों रूपये की धर-पकड़ को कई दिनों तक दिखाए जाने के बाद अचानक से बंद करने को भी बड़ा मुद्दा नहीं बनाया।
उक्त व्यापारी को पहले सपा समर्थक मानकर कार्रवाई की जा रही थी, लेकिन 3 दिन बाद जाकर खुलासा हुआ कि गलत आदमी पर हाथ डाल दिया है, और वह तो भाजपा का निष्ठावान व्यवसायी था।
इन 5 राज्यों के आंकड़ों पर नजर डालें तो कांग्रेस का प्रदर्शन बुरा नहीं कहा जा सकता। 3 राज्यों में भाजपा के विरुद्ध उसकी हार की वजहों को दूर करने का ईमानदारी से प्रयास किया जाये तो इस अंतर को पाटा जा सकता है। लेकिन न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी वाली कहावत यहां भी चरितार्थ होती है। इसे करने के लिए कांग्रेस में बड़े बदलावों की जरूरत फौरन से पेश्तर है। वे क्या हैं, इसके बारे में हम संक्षिप्त में चर्चा कर सकते हैं:-
1- पार्टी के भीतर लोकतंत्र को जिम्मेदार तरीके से अमल में लाना। 3 हिंदीभाषी प्रदेशों को लगभग उनके क्षत्रपों के हाथ में छोड़ दिया गया था। कुछ लोग इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था भी कह सकते हैं, जिसमें हाई कमान की भूमिका पूरी तरह से खत्म हो गई दिखती है। लेकिन इन तीनों राज्यों में पार्टी की कमान संभाल रहे लोगों ने अपनी बुद्धि, विवेक और जीत के समीकरण को साधने की कला पर ही सबकुछ दांव पर लगा दिया।
एक-आध राज्य तो ऐसे भी थे, जिन्होंने भाजपा-आरएसएस की हिंदुत्ववादी शैली की भदेस कॉपी करने तक का प्रयास किया। कमलनाथ को तो पूरा यकीन था कि उन्होंने लगभग सभी तबकों और सामाजिक संतुलन को साध लिया है, और भाजपा के खिलाफ लोगों में असंतोष की लहर चल रही है। इंडिया गठबंधन के दक्षिण के नेता कहीं टपक पड़े तो सारा किया-कराया खत्म हो जायेगा।
एक राज्य की सत्ता को हासिल करने के लिए कांग्रेस इस कदर खुद को गिरा सकती है, जिसे डिफेंड करने का आधार विशेषकर उन लोगों के पास नहीं हो सकता, जो ‘भारत जोड़ो’ परिघटना के बाद कांग्रेस में विकल्प देख रहे थे। राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी इससे बहुत पीछे नहीं थे।
2- बहुत संभव था कि कांग्रेस अकेले दम पर ये तीनों राज्य जीत जाती। लेकिन क्या उसे इन राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों के साथ ऐसा बर्ताव करना चाहिए था? राजस्थान में जिन दलों ने उसे 5 साल सरकार चलाने का आधार प्रदान किया, उन आदिवासी एवं वामपंथी दलों को उसके द्वारा एक बार फिर से दुत्कार दिया गया। राजस्थान में सारी गड़बड़ के बावजूद सिर्फ यही काम कांग्रेस कर गई होती तो आज रिजल्ट दूसरा होता।
भाजपा के लिए यह अवसर होता तो उसकी टैली इससे भी काफी अधिक होती। असल में आज भी राज्यों में कांग्रेस पार्टी के पास अवसरवादी, दलाल लोगों की भरमार है, जिन्हें इंदिरा गांधी के समय से ही परजीवी वर्ग कहा जाता था। केंद्र में जी-27 और भाजपा सहित अन्य दलों में बिला चुके लोगों के विपरीत राज्य स्तर पर इन तीनों राज्यों में वे आज भी मजबूती से जमे हुए हैं।
इसकी एक वजह यह भी है कि इन तीनों राज्यों सहित उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में आज भी भाजपा-कांग्रेस के अलावा कोई तीसरा दल अपने पांव नहीं जमा सका है। कांग्रेस को इन 3 राज्यों में अपनी 3 लोकसभा की सीटों में इजाफा करना है तो उसे इस अवसरवादी राजनीति से खुद को हमेशा के लिए मुक्त करना होगा।
3- इंडिया गठबंधन को भाजपा-आरएसएस की नीतियों का विकल्प बनाने के बारे में कोई बात अभी तक नहीं उठाई गई है। यही वह खाली जगह है, जिसे मोदी सरकार चाहकर भी नहीं भर सकती। इसके दो आधार बिंदु हैं-
पहला है वैचारिक मोर्चे पर समावेशी भारत की ओर बढ़ने की ओर इंडिया गठबंधन के विकल्प को पेश करना। दूसरा है, 1 प्रतिशत बनाम 99 प्रतिशत लोगों के पक्ष में देश की नीतियों को गढ़ने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराने और नारों को गढ़ने के लिए पहल।
ये दोनों ही काम बेहद अहम हैं, और विपक्षी दलों को एक मजबूत आवेग प्रदान कर सकते हैं। अगर ऐसा नहीं किया तो राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का कोई खास अर्थ नहीं रह जाता है।
पिछले 10 वर्षों से देश में क्रोनी पूंजी के पक्ष में देश की सार्वजनिक संपत्तियों एवं बहुमूल्य खनिज संपत्तियों को कौड़ियों के भाव में नीलाम किया जा रहा है। देश भले ही 5 ट्रिलियन से 10 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी क्यों न बन जाये, लेकिन जब धन का प्रवाह सिर्फ एक तरफ जाने लगेगा, तो बाकी के 130 करोड़ लोगों के लिए अपने जीवन को जीने के रास्ते तेजी से बंद होते जाने लगेंगे, जिन्हें अभी 5 किलो राशन या पीएम किसान सम्मान जैसे टुकड़ों ओर जिंदा रखा जा रहा है।
कांग्रेस नेतृत्व ही नहीं बल्कि अन्य क्षेत्रीय दल भी इन सवालों को दरकिनार कर किसी तरह भाजपा को केंद्र से अपदस्थ करने के सपने देख रहे हैं, जो उन्हें भाजपा का एक खराब विकल्प ही जनता की निगाह में साबित करते हैं।
कांग्रेस को तय करना होगा कि उसके लिए अब मोनोपोली कैपिटलिस्ट की पसंदीदा पार्टी बनने का विकल्प भाजपा ने लगभग खत्म कर दिया है। उसे इस अवसरवादिता से बाहर निकलकर वास्तविक अर्थों में गरीबों, युवाओं, किसानों और छोटे और मझोले उद्योगों एवं राष्ट्रीय पूंजीपतियों की रहनुमाई करने का साहस दिखाना होगा।
4- भारतीय संघीय ढांचे की लड़ाई में आज राज्यों के पास अधिकार लगातार कमजोर पड़ते जा रहे हैं। इसमें जीएसटी के तहत राज्यों ने पहले ही अपनी गर्दन केंद्र के हाथों सौंप दी है। केंद्र सरकार के पास तो प्रत्यक्ष कर के साथ-साथ वसूली के अनेक साधन मौजूद हैं, जिसमें वह अक्सर सेस लगाकर राज्यों के साथ जीएसटी को साझा करने से इंकार कर देती है।
इसके अलावा अपने बजट घाटे के लिए उसके पास बैंकों से कर्ज, नोट छापने से लेकर दुनियाभर से बांड के माध्यम से लाखों करोड़ रूपये जमाकर अपनी व्यवस्था को चाक-चौबंद करने के मौके हैं। लेकिन राज्यों को वह अपनी दया पर अधिकाधिक निर्भर करती जा रही है। केंद्र-राज्य संबंधों के पुनर्निर्धारण सहित स्वायत्तता का मुद्दा भी अपने आप में महत्वपूर्ण है।
बिहार जैसे राज्य दशकों से अपने लिए विशेष राज्य के तहत पैकेज की मांग कर रहे हैं, जिसे विपक्षी दलों को अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से उठाना चाहिए। दक्षिण के साथ-साथ पूर्वोत्तर के राज्यों, कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र के लोगों को भी ताकतवर केंद्र के सामने लाचारी का अनुभव उत्तरोत्तर हो रहा है, और वे हिंदुत्व के उग्रतर होने के दुष्प्रभावों को तेजी से महसूस करने लगे हैं।
5- इस इंडिया गठबंधन से आगे भी ऐसे तमाम छोटे क्षेत्रीय दल हैं, जो भले ही सीटों के लिहाज से महत्वपूर्ण नहीं नजर आते हों, लेकिन उनके साथ जुड़ने से दर्जनों सीटों पर परिणाम सकारात्मक आ सकते हैं।
उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर की बहुजन वंचित अघाड़ी को ही लें, जिसे पिछले लोकसभा में लगभग 7% वोट हासिल हुए थे, और करीब 10 लोकसभा की सीटों पर कांग्रेस और एनसीपी की हार की वे सबसे बड़ी वजह बने थे।
ऐसे ही सीपीआई(एम) के लिए एक सीट के बदले राज्य में वामपंथियों के बिखरे वोटों और बूथ पर प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की तैनाती 2-3% वोटों का फर्क पैदा कर सकती है। ये छोटी-छोटी चीजें हैं, जिसे भाजपा की चुनाव मशीनरी बड़े ही संगठित ढंग से अंजाम देती आई है, और अपनी हार को जीत में बदल देती है।
6- सही नैरेटिव को गढ़ना और अफवाह या इस्लामोफोबिया को बढ़ाने वाले दुष्प्रचार पर खुलकर बोलने की जरूरत आज भी कांग्रेस सहित विपक्षी दलों को नहीं लगती है। यही वजह है कि हिंदू समाज के भीतर बहुसंख्यक लोगों को हिंदुत्ववादी शक्तियां अपने प्रभाव में कर लेती हैं।
राजस्थान में कन्हैया लाल हत्याकांड का उदाहरण एक सबक के रूप में याद रखा जाना चाहिए। इस कांड को अंजाम देने वाले लोगों को राजस्थान सरकार ने 4-6 घंटे के भीतर ही हिरासत में ले लिया था। मुआवजे के तौर पर 1 करोड़ की रकम (एक विश्वस्त सूत्र) राज्य सरकार ने जारी कर दी थी। इस मामले को भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर तूल दिया था, जिसके बाद अशोक गहलोत ने देश के प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की थी।
लेकिन पीएम मोदी ने तब एक शब्द नहीं कहा था। कन्हैया लाल को उन्होंने राजस्थान विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल किया, और इतना किया कि सांसद रमेश बिधूड़ी को देश ने न्यूज़ चैनल पर यह दावा करते सुना कि राजस्थान में कांग्रेस सरकार ने कन्हैया लाल के घर वालों को मात्र 5 लाख रूपये मुआवजे के तौर पर दिए, जबकि सड़क दुर्घटना में कोई अल्पसंख्यक मर जाये तो एक करोड़ रूपये बहा दिए जाते थे।
जबकि हकीकत इसके उलट थी, और इतना ही नहीं इस मामले को तत्काल एनआईए को सौंप दिया था, जिसने एक साल बाद भी चार्जशीट दाखिल नहीं किया। उल्टा केंद्र से सवाल पूछने के बजाय कांग्रेस भीगी बिल्ली बनी रही, क्योंकि उसे डर था कि यदि उसने मुंह खोला तो भाजपा-आरएसएस और आईटी सेल इस मुद्दे को पाताल तक ले जाने की क्षमता रखते हैं, और कांग्रेस इस मामले में विफल रहेगी।
लेकिन वह भूल गई कि कांग्रेस इसे मुद्दा माने या न माने, भाजपा समर्थक तो इसे राजस्थान ही नहीं बल्कि तीनों राज्यों में दूर तक ले गये, और कांग्रेस की छवि को एंटी-हिंदू बनाने में काफी हद तक कामयाब रहे।
लेकिन अपनी कमजोरियों से सबक लेने के बजाय, जब विपक्ष और उसके बौध्दिक प्रकोष्ठ को जनता को असंवेदनशील, कुपढ़ और सांप्रदायिकता से घिरे होने का आरोपी बनाते देखा जाता है, तो यही महसूस होता है कि शायद इनके भाग्य में विपक्ष की बेंचों को गर्म करना अभी और लिखा है।
देश को वास्तविक विकल्प की जरूरत है, जिसे संघ और क्रोनी फासिस्ट पूंजी की काट पेश करनी होगी, वरना मोदी सरकार को 2024 में फिर से लाने के लिए देश के कॉर्पोरेट घरानों ने 2-3 लाख करोड़ रुपयों की रेवड़ी बांटने पर पहले ही मंजूरी दे रखी है। वे किसी भी कीमत पर इसे जारी रखना चाहते हैं, और इंडिया गठबंधन के ढीले-ढाले ढांचे में उन्हें इस लूट को जारी रख पाने में बड़ी बाधा नजर आती है।
इस बात को इंडिया गठबंधन जितनी जल्दी समझ लेगा, वैकल्पिक नीतियों के आधार पर मजबूत नारों और इरादों के साथ 2024 के समर में उतरने के लिए उसका संकल्प देश की 140 करोड़ अवाम को साफ़-साफ़ दिखेगा।
(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
आपका विश्लेषण और चेतावनियां उचित हैं। मगर कांग्रेस को सलाह देने का मतलब क्या है, जब उसे खुद जो सामने दिखता है,उसे नकारने की आदत हो गई है। कांग्रेस यदि नेहरू के आजादी के बाद के 1950 के मार्ग पर दृणता से लौटे तो ही कुछ संभव है। अन्यथा तो दुर्गति ही है।