साल 2020-21 का बजट ऐसे वक्त में पेश किया गया जब किसी को भी इस बात में कोई शक नहीं रह गया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर संकट के भंवरजाल में फंसी हुई है। कुछ वक्त से बहस सिर्फ इस मुद्दे पर ही थी कि क्या सरकार सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च कम कर वित्तीय घाटा नियंत्रित करने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी या अर्थव्यवस्था को किक स्टार्ट करने के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने की कींसवादी नीति अपनाएगी।
बहुत से आर्थिक विशेषज्ञ यह उम्मीद कर रहे थे कि सरकार आम मेहनतकश लोगों और मध्यम वर्ग के हाथ में कुछ पैसा पहुंचाने का प्रयास करेगी ताकि बाजार में उपभोक्ता मांग का विस्तार हो जिससे उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश फिर से शुरू हो सके। इसके लिए मनरेगा के लिए बजट बढ़ाने, शहरों में रोजगार गारंटी योजना शुरू करने, मध्यम वर्ग के लिए आयकर में छूट बढ़ाने आदि की चर्चा चल रही थी।
पर सरकारी खर्च बढ़ाने की नीति में पहले से ही सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता वित्तीय घाटा मुख्य रुकावट नजर आ रहा था, क्योंकि धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था में टैक्स वसूली हो या अन्य सरकारी आय दोनों में भारी कमी हुई है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में अभी तक टैक्स वसूली पिछले वित्तीय वर्ष से भी कम है, जबकि सरकार का बजट अनुमान इसमें लगभग 24% वृद्धि का था।
इससे सार्वजनिक क्षेत्र के नाम पर लिए गए कर्जों समेत सरकार का कुल वित्तीय घाटा तमाम तरह से छिपाने के प्रयासों के बावजूद 3.3% के लक्ष्य के बजाय लगभग 8-10% के आसपास पहुंच चुका है। ऊपर से इस वर्ष सरकार ने बड़े पूंजीपतियों को कॉर्पोरेट टैक्स में भी लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये की रियायत दी है। अतः सरकारी खर्च में भारी वृद्धि की गुंजाइश बहुत मुश्किल लग रही थी।
31 जनवरी को जब सालाना आर्थिक सर्वेक्षण संसद में प्रस्तुत किया गया तभी यह बात स्पष्ट हो गई थी कि सरकार की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है और वह विनिवेश, निजीकरण, व्यवसायीकरण को तेज करने और शिक्षा, स्वास्थ्य, आदि सामाजिक सेवाओं पर खर्च घटाने की नवउदारवादी नीतियों को जारी रखेगी। आर्थिक सर्वे में सार्वजनिक उद्यमों का निजीकरण तेज करने, खाद्य सब्सिडी घटाने, शिक्षा का व्यवसायीकरण जारी रखने, बाजार के अदृश्य हाथ पर भरोसा करने और सरकारी हस्तक्षेप को कम करने पर ज़ोर दिया गया था।
आर्थिक सर्वे नवउदारवाद के पक्ष में इतनी मजबूती से खड़ा था कि शिक्षा के व्यवसायीकरण से उसके महंगा होने और समाज के कमजोर वर्गों के उच्च शिक्षा से बाहर होते जाने की बात स्वीकार करने के बावजूद भी व्यवसायीकरण की नीति को जारी रखने की बात कही गई थी।
वित्त मंत्री ने जब बजट पेश किया तो आर्थिक सर्वे में कही गई बातों पर ही बढ़ती नजर आईं। पर बजट का आय-व्यय खाते का हिसाब देखें तो यह बजट नवउदारवाद और कींसवाद दोनों की सबसे बदतर बातों का घटिया मिक्स्चर है, अर्थात सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च में तो भारी कटौती हुई ही है, मगर सरकार का बजट घाटा भी नियंत्रित होने के बजाय बहुत ज्यादा बढ़ गया। भारत जैसे देश में जो 117 देशों के भूख सूचकांक में 102वें स्थान पर है, वहां बजट में खाद्य सबसिडी का बजट 70 हजार करोड़ रुपये घटा दिया गया है।
1.85 लाख करोड़ रुपये से 1.15 लाख करोड़ रुपये। वैसे तो इसके भी वास्तव में खर्च किए जाने पर शक है, क्योंकि इस साल में भी बजट अनुमान 1.85 लाख करोड़ के बजाय संशोधित अनुमान के अनुसार वास्तविक खर्च 1.08 लाख करोड़ रुपये ही किया जा रहा है। इसका अर्थ है कि पहले ही लगभग दो लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूब चुकी फूड कार्पोरेशन पूरी तरह दिवालिया होने के कगार पर है और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत आने वाली सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) का भविष्य समाप्ति की ओर है।
देश की सबसे गरीब जनता के लिए यह खबर मौत की घंटी के बराबर है, क्योंकि पहले ही झारखंड जैसे राज्यों से राशन न मिलने से मौतों की खबरें आती रही हैं।
सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों पर दूसरा बड़ा हमला स्वास्थ्य सेवाओं पर है, जहाँ एक तो महंगाई दर की तुलना में देखने पर खर्च का बजट प्रावधान घट गया है, वहीं दूसरी ओर देश में डॉक्टरों की कमी दूर करने के नाम पर जिला अस्पतालों को निजी क्षेत्र को सौंपने का षड्यंत्र तैयार है। बजट घोषणा के अनुसार पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल में जिला अस्पतालों के साथ मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे।
मेडिकल कॉलेजों के लिए शुरुआती पूंजी भी निजी क्षेत्र को सरकार ही देगी, जिसका पैसा मेडिकल उपकरणों पर सेस लगाकर जुटाया जाएगा। यह सेस बजट में लगा भी दिया गया है अर्थात बहुत से मेडिकल उपकरण और भी महंगे हो जाएंगे जिसका खामियाजा अंत में मरीजों को ही भुगतना होगा।
इस योजना का अर्थ है कि जिला अस्पतालों का पहले से मौजूद पूरा बहुमूल्य तंत्र निजी क्षेत्र के हाथ में होगा जिन्हें पूंजी भी खुद नहीं जुटानी होगी। इसका प्रयोग कर वे महंगी फीस वाले निजी मेडिकल कॉलेज खोलकर खूब मुनाफा कमाएंगे, साथ ही कुछ सालों में जिला अस्पतालों के मालिक भी हो जाएंगे और देश की गरीब मेहनतकश जनता के लिए सस्ते अस्पताली इलाज का अंतिम सहारा भी छिन जाएगा।
इसको एक काल्पनिक स्थिति न समझें क्योंकि मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री रहते भुज में भूकंप पीड़ितों के लिए सार्वजनिक धन से खोला गया अस्पताल इसी तरह पीपीपी मॉडल के जरिए अदानी की कंपनी को सौंपा जा चुका है। असल में अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में इस पीपीपी मॉडल का अर्थ ही हो गया है पब्लिक संपत्ति की प्राइवेट लूट।
इसी तरह की साजिश किसानों की आय दोगनी करने के सुनहरे सपने वाली घोषणाओं में देखी जा सकती है। एक ओर तो कृषि पर आवटित व्यय मुद्रा स्फीति की दर से तुलना करने पर स्थिर है, दूसरी ओर किसानों के नाम पर असल में कृषि आधारित उद्योगों को बड़ी सुविधायें और रियायतें देने की घोषणा की गई है। किसान रेल, किसान उड़ान, रेफ्रीजरेटेड ट्रक, वेयरहाउस आदि के लिए खर्च कृषि उद्यमी और व्यापारी बन चुके अमीर किसानों और कृषि आधारित उद्योग चलाने वाले पूंजीपतियों के लाभ के लिए है। किसानों के 86% से अधिक भाग जिसके पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है, उसके लिए इससे क्या फायदा है।
उनके लिए तो न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से भी सरकार पीछे हट रही है। जो 1500 करोड़ का खर्च उस मद में पिछले साल घोषित हुआ था उसमें लगभग नहीं के बराबर खर्च किया गया है। इन गरीब, सीमांत किसानों को तो अपनी उपज उन अमीर किसानों को कौड़ियों के दाम ही बेचनी पड़ेगी जो इन किसान रेल, उड़ान, ट्रक, वेयरहाउस के जरिए व्यापार कर कृषि उत्पाद को शहरी उपभोक्ताओं को कई गुना महंगे दामों पर बेचकर तगड़ा मुनाफा कमाएंगे।
शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, महिला-बाल कल्याण, दलित-आदिवासी कार्यक्रमों सभी के विस्तार में जाएं तो व्यय में कटौती या चोर दरवाजे से पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने की ऐसी ही स्थिति है। पर सरकार का वित्तीय घाटा फिर भी अनियंत्रित ढंग से बढ़ा है।
खुद सरकार मान रही है कि इस वर्ष के लक्ष्य 3.3% के मुक़ाबले यह 3.8% पर पहुंच गया है। किंतु अगर सरकार द्वारा बजट से बाहर एफ़सीआई आदि सार्वजनिक कंपनियों के नाम पर लिए गए कर्ज को भी जोड़ा जाए तो अधिकांश विश्लेषकों के अनुसार यह आठ से 10% के आसपास पहुंच गया है। इसका सबसे बड़ा कारण है अर्थव्यवस्था में मंदी, सरकार द्वारा पूंजीपति वर्ग को दी गई बहुतेरी रियायतों एवं उनके द्वारा की गई भारी टैक्स चोरी के कारण टैक्स वसूली में भारी कमी। इस घाटे को पूरा करने के लिए सरकार को तमाम तरह के उपाय करने पड़ रहे हैं।
जैसे रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष को खाली करना, सार्वजनिक उद्यमों एवं संपत्तियों को बेचना आदि। इसी क्रम में अब सार्वजनिक क्षेत्र की महाकाय वित्तीय कंपनी एलआईसी में सरकारी शेयर बेचने का प्रस्ताव किया गया है। किंतु सवाल है कि संपत्ति बेचने की एक सीमा है, उसके बाद क्या? अभी तो यही कहा जा सकता है कि अंत में इन सरमायेदार परस्त नीतियों से हुए सरकारी घाटे का सारा बोझ विभिन्न तरह से आम मेहनतकश जनता के सिर पर ही लादा जाना है। स्पष्ट है कि यही नीतियां जारी रहीं तो देश की आम जनता को ‘अच्छे दिनों’ के नाम पर अभी बहुत अधिक तकलीफदेह दिन देखने बाकी हैं।
मुकेश असीम