शिवराज सिंह चौहान सरकार एक बार फिर कटघरे में है। इस बार भी महिलाओं के अपमान के लिए। मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले के गडासराय में मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना के तहत लगभग 219 लड़कियों का सामूहिक विवाह एक समारोह के माध्यम से होना तय था। पर विवाह से कुछ समय पहले, जब वे अपने फाॅर्म जमा कर रही थीं, उनसे कहा गया कि विवाह औपचारिक रूप से सम्पन्न हो, इससे पहले उन्हें अपना गर्भ परीक्षण करवाना पड़ेगा।
इस तरह उन्हें जबरन अपमान सहने को मजबूर किया गया। इस पर विपक्ष के नेता कमल नाथ और सीपीएम के महिला संगठन, ऐडवा ने जबरदस्त आपत्ति की और इसे भाजपा के महिला-विरोधी चरित्र का प्रतीक बताया। उन्होंने इस पूरे मामले की उच्च स्तरीय जांच की भी मांग की है। सामूहिक विवाह समारोह अक्षय तृतीया के अवसर पर सरकार द्वारा कराया गया था।
क्या है मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना?
यह योजना 2006 में शुरू हुई थी। मध्य प्रदेश शासन द्वारा “गरीब, जरूरतमंद, निराश्रित, निर्धन परिवारों की विवाह योग्य कन्या/विधवा/ परित्यक्ता के विवाह हेतु आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना’’ इस योजना का उद्देश्य बताया गया है। वर की उम्र न्यूनतम 21 वर्ष और वधु की न्यूनतम 18 वर्ष है। अधिकतम उम्र की सीमा नहीं है।
कुल 49,000 रुपये की राशि वर-वधु को गृहस्थी बसाने के लिए सामूहिक विवाह कार्यक्रम में शामिल होने पर ही दी जाती है। यह भी कहा गया है कि पात्र केवल मध्य प्रदेश निवासी होंगे और उनके आयु प्रमाण पत्र व पात्रता संबंधी प्रमाण विवाह आयोजन से 15 दिन पूर्व जमा किये जाने चाहिये। इसके अलावा कार्यक्रम के दौरान किसी भी प्रकार की मेडिकल जांच का जिक्र नहीं किया गया है।
जब टेस्ट नहीं किया तो नाम कैसे कटे?
घटना की रिपोर्ट छपने के बाद डिविज़्नल कमिशनर ने किसी भी तरह के टेस्ट से इंकार करते हुए कहा कि कोई टेस्ट नहीं कराए गए, बल्कि स्वास्थ्य की साधारण जांच की गई थी। डिंडोरी के जिलाधिकारी ने पत्रकारों से कहा कि प्रशासन की ओर से केवल रक्ताभाव की जांच के निर्देश दिये गए थे। सवाल उठता है कि जब ऐसी जांच की कोई बात योजना के नियमों में शामिल नहीं हैं, न ही कोई आदेश हुआ, तो ऐसा क्यों किया गया?
जब कलक्टर फंस गए तो उन्हें बचाने के लिए एक अन्य अधिकारी ने कहा कि जिला प्रशासन की ओर से ऐसा कोई आदेश नहीं था कि गर्भ की जांच हो, पर जरूर कुछ डाॅक्टरों ने उन महिलाओं की जांच करने का फैसला लिया, जो किसी प्रकार के स्त्री रोग की शिकायत कर रही थीं। यह कितना हास्यास्पद बयान है। जब कुछ न समझ में आया तो सारा दोष महिलाओं पर मढ़ दिया।
लेकिन जिन लड़कियों का परीक्षण हुआ था उन्होंने बताया कि जांच के परिणाम आने के बाद उनके नाम सूची से काट दिये गए थे। आखिर कोई बताएगा कि ऐसा किस आधार पर किया गया? डिंडोरी एक आदिवासी बहुल इलाका है। क्या इसलिए उन्हें बेइज़्जत करना आसान है?
मध्य प्रदेश पहले से बदनाम है
इससे पहले, 7 जून 2013 को बेतुल जिले के चिछोली ब्लाॅक के हरदू ग्राम में करीब 450 लड़कियों का सामूहिक विवाह कार्यक्रम मुख्यमंत्री कन्यादान योजना के तहत होना था। पंजीकरण करवाने के बाद और माला बदलने से पहले जिला अधिकारी की ओर से निर्देश आया कि सभी महिलाएं, जो स्कीम का लाभ लेना चाहती हों, अनिवार्य रूप से कौमार्य परीक्षण और प्रेग्नेंसी टेस्ट करवाए। बताया गया कि 9 लड़कियां गर्भवती थीं। उनके नाम सूची से काट दिये गए।
मामले पर विरोध का स्वर बढ़ते हुए देखकर भाजपा विधयक गीता उइके ने कहा कि वे इस मामले में पड़ताल करेंगी कि किस नियम के तहत ये परीक्षण कराए जा रहे थे। यहां भी जिलाधिकारी से वही पिटा-पिटाया जवाब मिला कि ऐसा कोई टेस्ट नहीं हुआ था और प्रशासन केवल कुछ ऐसे लोगों को रोकने की कोशिश कर रहा था जो फ्राॅड से कन्यादान योजना का लाभ लेना चाहते थे।
उन्होंने बताया कि इस घटना की जांच के आदेश दे दिये गए हैं, जिसके आधार पर दोषियों को दंडित किया जाएगा। आज तक कुछ न हुआ। क्या फ्राॅड की जांच ऐसे ही होती है?
इससे चार साल पहले, 2009 में भी शहडोल जिले में ठीक इसी प्रकार की घटना घटी थी। यहां 152 विवाह होने थे। लगभग सभी जोड़े अदिवासी थे। गर्भ परीक्षण कराया गया। इस घटना की चौतरफा निंदा हुई थी। तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने संसद में मामले पर सवाल उठाया था। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरजा व्यास ने भी मीडिया रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए अवैधनिक परीक्षण की कड़ी निंदा की थी और सरकार से अंतरिम रिपोर्ट मंगवाई थी।
मामले की जांच के लिए आयोग की टीम जिले तक गई थी। दूसरी ओर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले पर संज्ञान लेते हुए प्रदेश के मुख्य सचिव को नोटिस भेजी। अलग से ग्रामीण महिलाओं ने समाज कल्याण विभाग, जिलाधिकारी, ज़िला पंचायत अध्यक्ष आदि के विरुद्ध आईपीसी की धाराओं और एससी/एसटी अधिनियम के तहत प्राथमिकी भी दर्ज की थी।
एक महिला ने तो यहां तक कहा कि जब उसने कौमार्य परीक्षण का विरोध किया तो उसकी एक न सुनी गई और स्वास्थ्य कर्मियों ने उसे पकड़कर जबरन परीक्षण करवाया। उस समय राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष कृष्णकान्त तोमर ने सभी बयानों और मीडिया रिपोर्टों को बेशर्मी से नकारते हुए सरकार को बचाने की कोशिश की थी। उनका कहना था कि वह शहडोल जाकर मामले की जांच कर चुकी थीं और उनकी टीम ने ऐसा कुछ भी नहीं पाया जिसपर इतना बड़ा हंगामा खड़ा किया गया था।
इस घटना में गर्भ परीक्षण के आधार पर 14 जोड़ों को सूची से बाहर कर दिया गया था। प्रशासन भले ही कौमार्य परीक्षण और गर्भ परीक्षण की बात को खुलकर स्वीकार न करे, वह यह तर्क जरूर देता है कि राज्य में मुख्यमंत्री कन्यादान योजना का दुरुपयोग हो रहा है। यानि कुछ एजेन्ट हैं जो पहले से विवाहित जोड़ों को लेकर आते हैं और योजना के तहत मिलने वाले 49,000 रुपये का एक हिस्सा हड़प लेते हैं।
कैसी योजना, जिसमें महिलाओं का अपमान नियम बना
आश्चर्य की बात है कि सरकार ने इतनी बड़ी योजना चला रखी है पर उसके पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे पता लगाया जा सके कि जोड़ा पहले से विवाहित है या नहीं, सिवाय इसके कि हर लड़की का सार्वजनिक अपमान किया जाए। सबसे पहली बात तो यह है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार बार-बार इस कार्रवाई को दोहराती है, और फिर सिरे से नकार देती है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ।
जिन जोड़ों को सूची से बाहर किया जाता है, उनके बारे में प्रचार किया जाता है कि वे गर्भवती थीं? क्या गरीब, दलित व आदिवासी महिलाओं के सम्मान और निजता के साथ ऐसा मजाक करना मानवाधिकारों का घोर हनन नहीं है? जब इस मसले पर पहले भी इतना बड़ा हंगामा हो चुका है तो निश्चित ही वह मुख्यमंत्री के संज्ञान में होगा। इसलिए सबसे पहले तो मुख्यमंत्री को स्पष्ट करना चाहिये कि जब इस योजना के नियमों में कहीं ऐसा नहीं लिखा है कि पहले कौमार्य और गर्भ परीक्षण होगा, तो उनके राज्य में ऐसा बार-बार क्यों होता आ रहा है और किसके आदेश पर किया जा रहा है?
फिर, हर बार कहा जाता है कि घटना की जांच होगी, पर न ही ऐसा होता है न दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई होती है। तो क्या हमें यह मान लेना चाहिये कि राज्य सरकार का प्रशासन को अलिखित आदेश है कि बिना परीक्षण के कन्यादान योजना का पैसा दिया ही न जाए? या यह मानें कि जिन लड़कियों के नाम जबरन काटे जाते हैं, उनके हिस्से के पैसों का बंदरबांट हो जाता है?
सबसे बड़ी बात तो यह है कि विवाह की औपचारिकता से पूर्व यदि कोई महिला कुंवारी है या नहीं अथवा गर्भवती है या नहीं, यह तो पति-पत्नी के बीच का निहायत गोपनीय और निजी मामला है। इस मामले में राज्य को कोई अधिकार नहीं है, न ही वह इस मामले में दखल दे सकता है। फिर गरीबों, दलितों व आदिवासियों के बीच महिला-पुरुष संबंध भी सामंती नहीं होते। इसलिए समुदाय में इन जोड़ों के बीच रिश्ते भी सहज होते हैं, जिसमें कौमार्य कोई मुद्दा नहीं होता।
जहां तक गर्भवती होने की बात है तो परित्यक्ता और हाल में विधवा हुई महिलाएं गर्भवती हो सकती हैं। विवाह-पूर्व प्रेम संबंध के कारण भी गर्भ ठहर सकता है। जब वर को कोई आपत्ति नहीं हो तो भाजपा सरकार क्यों उनके ऊपर अपनी सामंती, पितृसत्तावादी व दक्षिणपंथी नैतिकता के मापदंडों को थोपकर उन्हें बेइज्जत करना चाहती है? आज के समय में, जब यौन शुचिता का विचार खारिज हो चुका है, सरकार क्या साबित करना चाहती है? यह कि गरीब महिलाएं बेइमान या दुष्चरित्र होती हैं?
दूसरी बात, यहां केवल महिला को टार्गेट किया जाता है तो मामला सार्वजनिक होने के बाद पूरी संभावना होती है कि होने वाला पति उसे छोड़ देगा और आगे लड़की की शादी होने में मुश्किल होगी। जब हमने भोपाल ग्रुप फाॅर इन्फाॅरमेशन ऐण्ड ऐक्शन की रचना धींगरा से बात की, तो उन्होंने कहा, ‘‘यह सीधे तौर पर महिलाओं की सेक्युएलिटी और उनके सेक्सुअल प्रिफरेंसेज़ को नियंत्रित करने का मामला है। औरतों को अपना जीवन अपने ढंग से जीने नहीं दिया जाता। उन पर तरह-तरह की बंदिशें लगाई जाती हैं। यह एक भयानक पितृसत्तावादी विचार का द्योतक है।’’
विश्व स्वास्थ्य संगठन साफ कहता है कि “कौमार्य परीक्षण पीड़ित महिला के मानवाधिकारों का उल्लंघन और तत्काल और दीर्घकालिक दोनों परिणामों से जुड़ा हुआ है, जो उसके शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कल्याण के लिए हानिकारक हैं।” पर कुछ साल पहले तक मध्य प्रदेश में ट-ूफिंगर टेस्ट तक होता रहा है, रचना ने बताया।
इसलिए ऐडवा का विरोध स्वागतयोग्य है और सभी महिला संगठनों व मानवाधिकार संगठनों सहित सामाजिक न्याय के लिए काम कर रहे संस्थाओं/संगठनों/दलों को शिवराज सिंह चौहान सरकार के महिला-विरोधी, सामंती आचरण का पुरजोर विरोध करना चाहिये और आरएसएस व भाजपा के महिला-विरोधी चरित्र पर वैचारिक-राजनीतिक हमला बोलना चाहिये।
(कुमुदिनी पति स्वतंत्र टिप्पणीकार एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं।)