भारत की अर्थव्यवस्था दिनों दिन गर्त में जा रही है जबकि महामारी भी पूरी तरह से बेलगाम हो चुकी है। राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार पिछले साल की पहली तिमाही में भारत की वास्तविक जीडीपी 5.2% बढ़ी थी, लेकिन जून 2020 को समाप्त तिमाही में इसमें -23.9% की रिकॉर्ड गिरावट दर्ज की गई है। 1980 से पहली बार ऐसा हुआ है।
जारी आंकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र, जिसकी वृद्धि दर पिछले साल की इसी तिमाही में 3% थी, इस साल 3.4% रही। कृषि क्षेत्र के अलावा सभी अन्य क्षेत्रों की वृद्धि दर ऋणात्मक है। इसी क्षेत्र ने कुल वृद्धि दर को और ज्यादा गिरने से कुछ हद तक रोका है। पहले से ही तबाह हाल विनिर्माण, यानि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की वृद्धिदर इस साल -39.3% रही। निर्माण, यानि कॉन्स्ट्रक्शन की वृद्धिदर पिछले साल 5.2% थी, इस साल गिर कर -50.3% हो गई।
खनन क्षेत्र की वृद्धिदर पिछले साल 4.7% थी, इस साल -23.3% तक गिर गई। बिजली, गैस, जल-आपूर्ति एवं अन्य उपयोगी सेवाएं पिछले साल 8.8% थीं, इस साल -7% हो गईं। व्यापार, होटल, परिवहन, संचार तथा प्रसारण से जुड़ी सेवाओं को भी काफी तगड़ा झटका लगा है। इस क्षेत्र की वृद्धिदर पिछले साल 3.5% थी, इस साल -47% हो गई। वित्त, रियल स्टेट और पेशेवर सेवाएं पिछले साल 6% पर थीं, इस साल -5.3% पहुंच गईं। इसी तरह लोक प्रशासन, रक्षा एवं अन्य सेवाएं पिछले साल 7.7% पर थीं, इस साल -10.3% पर पहुंच गईं।
अर्थव्यवस्था की कमजोरी का सबसे बुरा प्रभाव राजस्व पर पड़ा है। अगस्त 2020 का जीएसटी संग्रह 86449 करोड़ रुपये रहा, जो कि अगस्त 2019 के 98202 करोड़ रुपये की तुलना में -12% है, जबकि मई 2020 में यह -68.9% था। ये आंकड़े हमारी अर्थव्यवस्था के भविष्य के प्रति भी कोई आशा नहीं पैदा कर रहे हैं।
अक्सर हमारी अर्थव्यवस्था की इस तबाही को ढकने के लिए महामारी को बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि हमारे देश के लिए यह त्रासदी प्राकृतिक से ज्यादा मानव-निर्मित है। 2016 में एक झटके के साथ की गई नोटबंदी ने हमारे लघु एवं मध्यम उद्योगों और पूरे विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) सेक्टर की कमर पहले ही तोड़ दिया था। यही सेक्टर हमारी अर्थव्यवस्था के लिए शॉक-आब्जर्बर का काम करता था। इसने पहले भी कई वैश्विक मंदियों के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को ज्यादा झटका लगने से बचा लिया था।
एक असंगत ढांचे वाली जीएसटी और जुलाई 2017 में उसके सनक भरे जिद्दी क्रियान्वयन ने छोटे और मझोले व्यवसायियों और दुकानदारों को तबाह कर दिया। ये दुकानें और विनिर्माण क्षेत्र मिल कर भारत की व्यापक बेरोजगारी को भी ढके रहते थे। अर्थव्यवस्था को तीसरा झटका लॉक डाउन के रूप में दिया गया। इस तरह से हम देखते हैं कि महामारी से पहले ही हमारे नेतृत्व ने हमारी अर्थव्यवस्था को रुग्ण बना कर बिस्तर पर पटक दिया था।
भारतीय अर्थव्यवस्था की इस तबाही की गाथा केवल कोविड-19 की लिखी हुई नहीं है। कोविड-19 तो महज कोढ़ में खाज साबित हुई है। केवल 2019 की अंतिम तिमाही में नगण्य सी 0.08% प्रतिशत की वृद्धि को छोड़कर भारत की जीडीपी पिछली आठ तिमाहियों से लगातार गिर रही है। मार्च 2018 में जीडीपी वृद्धि दर 8.2% थी, जो गिरते-गिरते मार्च 2020 में 3.1% पर आ गई थी, जबकि मार्च 2020 में केवल अंतिम सप्ताह पर लॉक डाउन का असर पड़ा था।
हमारे देश में खेत की रक्षा के लिए लगाई गई बाड़ ही खेत को चर गई है, हम दूसरे किसी को क्या दोष दें? यही कारण है कि हमारे छोटे-बड़े पड़ोसियों की अर्थव्यवस्था उतना नहीं चरमराई है जितनी हमारी।
श्रीलंका की अर्थव्यवस्था 2019-20 की अंतिम तिमाही में मात्र 1.6% सिकुड़ी। यह प्रभाव लॉकडाउन के साथ-साथ पिछले साल 21 अप्रैल 2019 को ईस्टर के मौके पर हुए आतंकी बम धमाकों का भी था जिसमें 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे, क्योंकि अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र इन धमाकों के बाद से ही पटरी पर नहीं लौट पाए थे। कोविड के प्रसार को रोकने में श्रीलंका की शानदार सफलता की प्रशंसा विश्व स्वास्थ्य संगठन के अलावा भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खूब हुई।
यहां तक कि हमारे नन्हे पड़ोसी नेपाल की जीडीपी वृद्धि दर ने भी एक साल पहले के +7.0% की जगह जुलाई 2020 के आंकड़ों के अनुसार सकारात्मक विकास दिखाया है और +2.3% रही है।
2019 की पहली तिमाही में बांग्लादेश अपनी 7.3% की जीडीपी वृद्धिदर के साथ दुनिया की सातवीं सबसे तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था था। जून 2020 में समाप्त वित्तीय वर्ष 2019-20 में बांग्लादेश की वृद्धिदर का अनुमान विश्वबैंक ने 1.6% और आईएमएफ ने 3.8% लगाया था, लेकिन सभी अनुमानों को धता बताते हुए बांग्लादेश की की जीडीपी वृद्धिदर +5.2% रही है। वहां कृषि क्षेत्र की विकास दर पिछले साल के 3.90% की जगह 3.10%, उद्योगों में 12.70% की जगह 6.50% और सेवा क्षेत्र में 6.80% की जगह 5.30% रही।
पाकिस्तान की जीडीपी वृद्धिदर भी काफी गिरी है, फिर भी वह निगेटिव न होकर +0.98% है। पाकिस्तान में स्मार्ट लॉकडाउन (केवल हॉटस्पॉट क्षेत्रों में) लगाने के कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दुष्प्रभावित होने से बची रही। पाकिस्तान ने जुलाई के अंत तक अपने यहां महामारी की तेजी पर काबू पा लिया। जुलाई 2019 में पाकिस्तान के चालू खाते का घाटा 613 मिलियन डॉलर था। जुलाई 2020 में वहां के चालू खाते में घाटे की जगह 424 मिलियन डॉलर का सरप्लस तैयार हो चुका है।
चीन की अर्थव्यवस्था जनवरी से मार्च 2020 के बीच -6.8% सिकुड़ी थी लेकिन अप्रैल से जून 20 की तिमाही में +3.2% की वृद्धि दर्ज की है। चीन ने भी आंशिक लॉकडाउन लगाते हुए अपनी अर्थव्यवस्था को बचाए रखा। चीन ने जनवरी के अंत में हुबेई प्रांत में ही लॉकडाउन लगाया जिसके वुहान शहर में कोरोना वायरस का संक्रमण शुरू हुआ था।
हमारे देश को तो संपूर्ण और दुनिया का सबसे कठोर लॉकडाउन लगाकर भी कुछ भी हासिल नहीं हुआ। घोषणा के चार घंटे के भीतर इसे लागू कर दिया गया। उम्मीद थी कि सरकार के पास कोई मुकम्मल वैकल्पिक योजना रही होगी कि पूरा उत्पादन, वितरण, कारोबार, परिवहन और आवागमन ठप कर देने के बाद के हालात को कैसे संभाला जाएगा और आवश्यक वस्तुओं और सुविधाओं की आपूर्ति को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा। लेकिन निर्णय के बाद के भयानक अराजक हालात, बेहिसाब मानवीय त्रासदी और रिकॉर्ड स्तर पर खस्ताहाल अर्थव्यवस्था ने साबित कर दिया कि दरअसल यह एक तुगलकी फरमान था।
अराजकता का आलम यह है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाउन के शुरुआती दो महीनों के भीतर ही 4000 अलग-अलग नियम जारी किए गए। यह एक हैरतअंगेज सनक थी जिसमें इंसानों के साथ कीड़े-मकोड़ों जैसा सलूक किया गया। जिस तरह से आवागमन के सभी साधनों को एक झटके के साथ निरस्त करके हजारों-हजार लोगों के हुजूम को जबर्दस्ती रेलवे स्टेशनों और बस स्टैंडों पर असहाय-निरुपाय इकट्ठा होने को विवश किया गया, वह खुद ही संक्रमण को बड़े पैमाने पर फैलने का जरिया बन गया।
यह सब हमारे देश में ही संभव था जिसमें शासकों द्वारा की गई किसी भी स्तर की जलालत को सर झुकाकर नियति और पूर्वजन्म के पापों का फल मानकर स्वीकार कर लेने की हजारों साल पुरानी परंपरा विद्यमान है। जब तक नागरिकता और मानवाधिकार-बोध का यह स्तर मौजूद है तब तक किसी भी सत्ता को तनिक भी चिंतित होने की जरूरत नहीं है।
इस समय तक कोविड के कुल मामलों की संख्या में ब्राजील को पीछे छोड़ते हुए भारत दूसरे स्थान पर पहुंच चुका है, जबकि दैनिक नए मामलों की संख्या के लिहाज से भारत पूरी दुनिया को काफी पहले ही पीछे छोड़ चुकने के बावजूद अभी भी रोज अपने ही बनाए कीर्तिमान तोड़ता जा रहा है। एक पैटर्न साफ-साफ दिख रहा था कि जिन देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा जितना ही मजबूत था, वहां बीमारी पर काबू भी उतनी ही जल्दी पाया गया।
साथ ही यह भी देखा गया कि जिन देशों में सत्ता नवउदारवादी नीतियों के प्रबल पैरोकार, लोकलुभावनवादी सनकों वाले नेताओं के हाथों में थी वहां इस महामारी पर काबू पाना उतना ही कठिन साबित हुआ। इन शर्तों पर हमारा नेतृत्व शायद सब पर भारी पड़ा इसीलिए हम काफी तेजी से अन्य सभी को पीछे छोड़ते हुए नंबर 1 की ओर अग्रसर हैं।
उम्मीद की जा रही थी कि दुनिया इस भीषण आपदा के बाद कुछ सबक लेगी और कॉरपोरेट मुनाफे के बदहवास लोभ में सभी प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे, उनकी अंधी लूट-खसोट का रास्ता छोड़कर प्राकृतिक पर्यावरण और मनुष्य के अन्योन्याश्रित संबंधों पर आधारित समतावादी समावेशी विकास का समाजवादी रास्ता अख्तियार करेगी जिससे हमारी पृथ्वी लंबे समय तक जीवन को वहन करने योग्य बनी रहे। लेकिन जिस तरह से हमारे देश में भी कॉरपोरेट पूंजी सत्ता के सभी केंद्रों के साथ दुरभिसंधि पूर्वक आपदा को अवसर में बदलते हुए सभी सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को निगलती जा रही है उससे सबक लेने की आशा धूमिल पड़ती जा रही है।
यह बीमारी श्रम और प्राकृतिक पर्यावरण की बेहिसाब लूट पर आधारित कॉरपोरेट उत्पादन-आपूर्ति-शृंखलाओं (प्रोडक्शन-सप्लाई-चेन्स) में ही पैदा भी हुई है। इन शृंखलाओं में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन और मुनाफे के लिए फसलों तथा पालतू पशुओं एवं वन्य जीवों की जेनेटिक बनावट से छेड़छाड़ करके प्राकृतिक बैरियरों को तोड़ा जाता है, जिससे जंगली जानवरों में पाए जाने वाले विषाणुओं को उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) करने का मौका मिलता है। इसके बावजूद यह आपदा भी कॉरपोरेट सोच में कोई बदलाव नहीं कर पाई है। जो लोग पृथ्वी और इस पर जीवन के भविष्य के लिए चिंतित हैं उन्हें ही एकजुट होकर पूंजीवादी लोभ-लालच की संस्कृति के खिलाफ संघर्ष छेड़ना पड़ेगा।
(शैलेश स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)