मोदी और संघियों ने जिस नंगई के साथ कर्नाटक चुनाव में बजरंगबली के नारों से धर्म का खुला प्रयोग किया, वह संसदीय जनतंत्र के प्रति इनके अंदर खुले तिरस्कार के भाव का, जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष समाज के नैतिक मानदंडों पर उनकी मानसिक बीमारी का द्योतक है।
संघियों की यह बीमारी इनके मूलभूत, हिटलर-परस्त दृष्टिकोण से जुड़ी हुई बीमारी है।
इसीलिए यह सोचना कि उनके इस दृष्टि-दोष में सुधार हो जाने से जनतंत्र के प्रति उनके तिरस्कार के भाव में कोई कमी आ जाएगी, शुद्ध रूप से खुद को धोखा देने वाले भ्रम के अलावा कुछ नहीं है।
इसे कभी भूलना नहीं चाहिए कि जनतंत्र और न्याय के प्रति तिरस्कार के भाव का आकर्षण ही किसी संघी को संघी बनाता है।
जनतंत्र, न्याय, समानता और धर्म-निरपेक्षता के विचारों की अपने मन में हत्या करके ही संघी चरित्र का गठन संभव है। फ्रायड इसे एक शब्द में ‘मृत्यु-प्रवृत्ति’ कहते हैं।
जनतंत्र और उस पर आधारित समानता और न्यायपूर्ण समाज की विचारों की हत्या का विचार संघी मनोदशा को परिभाषित करने वाला मूलभूत विचार है और गाहे-बगाहे, हर मौक़े पर वह उसका प्रदर्शन करता है।
कर्नाटक में प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव संहिता की धज्जी उड़ा कर जय बजरंगबली की हुंकार से अपनी इसी प्रवृत्ति का प्रदर्शन किया है।
इसका ही दूसरा उदाहरण है शांतिनिकेतन में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय के संघी उप कुलपति का कृत्य। वह इधर अमर्त्य सेन के घर को उजाड़ने की साज़िश में लगा हुआ है।
यह संघी उप कुलपति डा. सेन को नहीं उजाड़ रहा है,अपने संस्कृति-विरोधी, विचार-शून्य, जड़मति वाले संघी स्वभाव का परिचय दे रहा है।उसे भी केंद्र से मोदी-शाह का प्रश्रय मिल रहा है ।
दिल्ली में महिला कुश्तीगीरों के खिलाफ बृजभूषण सिंह की तरह के माफिया का समर्थन भी इसी स्त्री-विरोधी संघी मानसिकता का परिचय है।
सबसे पहले तो स्त्रियों की अन्तर्राष्ट्रीय उपलब्धियां ही स्वयं में संघी मानसिकता को स्वीकार्य नहीं होती है। ऊपर से उनका अपने प्रति अन्याय के विरूद्ध खड़ा होना, यह तो संघी शासन के मानदंडों का खुला उल्लंघन है।
शाहीनबाग के आंदोलन का भी यह स्त्रियों की भागीदारी का पहलू मोदी सरकार को सबसे अधिक नागवार गुजरा था।
इसीलिये पूरा संघ परिवार अभी हमारी शान, स्त्री कुश्तीगीरों की आवाज़ को कुचल देने के तमाम कुचक्र कर रहा है।
कर्नाटक चुनाव, अमर्त्य सेन, महिला कुश्तीगीरों का मसला — ये सब आज संघी शासन के चलते साफ़ तौर पर एक ही कड़ी में जुड़े दिखाई देते हैं। मोदी इन सबको अपनी संघी अस्मिता के लिए एक बड़ी चुनौती मानते हैं।
(अरुण माहेश्वरी लेखक और विचारक हैं।)